न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानडे

✍ मूल लेखक (मराठी) हणमंत धोंडीराम गायकवाड

भारत साधु-संतों एवं विचारकों की पावन भूमि है। इस पुण्य भूमि में अनेक साधु-संतों एवं विचारकों का जन्म हुआ है। उनमें से एक न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानडे थे।

न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानडे का जन्म दिनांक 18 जनवरी 1842 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के निफाड गाँव में हुआ। माता का नाम गोपिका तथा पिता का नाम गोविंद था। बालक के पाँव पालने में ही दिखाई देते हैं इस उक्ति के अनुसार महादेव बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। उनका शरीर हष्ट-पुष्ट था। उनकी प्रकृति बचपन से ही शांत, सहिष्णु और उदार थी। इन सद्गुणों के कारण वे सभी को बहुत प्रिय थे। प्राथमिक शिक्षा कोल्हापुर में हुई। उच्च शिक्षा मुंबई में हुई। शिक्षा के दौरान उन्हें अतिरिक्त पठन में बहुत रुचि थी। उन्होंने बहुत पुस्तकों का अध्ययन किया। महाविद्यालय के जो पुस्तकालय थे, उनका पूर्ण उपयोग करके अनेक ग्रंथों का पठन किया। सन् 1862 में वे बी.ए. की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। 1864 में एम.ए. परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। 1865 में कानून की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। मुंबई विश्वविद्यालय के ‘प्रथम भारतीय फेलो’ के रूप में उनका चयन हुआ था। सन् 1866 में उन्हें ओरिएंटल ट्रांसलेटर के पद पर सरकार ने नियुक्त किया। मराठी भाषा में जो ग्रंथ उस समय प्रकाशित हो रहे थे, उन पर अभिप्राय लिखने का कार्य वे करते थे। साहित्य, इतिहास इन विषयों पर उनके गहन अध्ययन को देखकर तत्कालीन शासन ने 1868 में मुंबई के एल्फिन्स्टन कॉलेज में प्राध्यापक पद पर उनकी नियुक्ति की। पुणे के न्याय विभाग में न्यायाधीश के रूप में उनकी नियुक्ति की गई। बाद में रानडे को मुंबई के उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति के पद पर नियुक्त किया गया। उस काल में भारतीयों को उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति का पद अत्यंत दुर्लभ था। सामान्यतः अपने भारत के लोगों को वह पद नहीं दिया जाता था परंतु ऐसे काल में भी उन्हें न्यायमूर्ति पद पर बैठाकर उनका गौरव ही किया था।

न्यायमूर्ति रानडे का वैवाहिक जीवन

न्यायमूर्ति रानडे के दो विवाह हुए थे। एक बारहवें वर्ष में और प्रथम पत्नी के निधन के पश्चात दूसरा विवाह इकतीसवें वर्ष में रमाबाई के साथ हुआ। पिता के आग्रह से उन्होंने दूसरा विवाह किया। रमाबाई के साथ उनका गृहस्थ जीवन सुख-समाधान से पूर्ण हुआ। रमाबाई ने उनके उदात्त जीवन से समरसता प्राप्त की। रमाबाई ने अपने पति के देश कार्य में साथ दिया। इसलिए न्यायमूर्ति रानडे के निधन के पश्चात उन्होंने ‘हमारे जीवन की कुछ स्मृतियाँ’ यह जो आत्मकथा लिखी, वह मराठी की श्रेष्ठ साहित्य के रूप में मान्यता प्राप्त की। रमाबाई ने पति के निधन के पश्चात स्त्रियों की सेवा को समर्पित कर दिया। आर्य महिला समाज तथा लेडी डफरिन फंड कमिटी से उनका निकट का संबंध था। स्त्रियों को व्यावसायिक शिक्षा देने वाली संस्थाएं स्थापित कीं। पुणे में ‘सेवासदन’ की पहल लेकर निकाली। स्त्री शिक्षा का कार्य करने वाली संस्था की वे प्रमुख प्रेरणास्रोत थीं। सरकारी पाठ्य-पुस्तक समिति पर भी चार बार वे थीं तथा महिला सम्मेलन का अध्यक्ष पद भी उन्होंने सुशोभित किया था। भारतीय स्त्री के लिए किया गया उनका कार्य महत्वपूर्ण माना जाता है।

सामाजिक सुधार

न्यायमूर्ति रानडे के मन पर पुरानी परंपराओं का बहुत बड़ा प्रभाव था। साथ ही भारत के प्राचीन इतिहास का उन्हें सार्थक अभिमान था। हिंदू धर्म की अच्छी परंपराओं का पुनरुज्जीवन करके समाज सुधार लाना चाहिए ऐसा उन्हें लगता था। हिंदू धर्म में अनिष्ट प्रथाएं बाद के काल में प्रविष्ट हुई हैं। उन अनिष्ट प्रथाओं को किसी भी धर्मग्रंथ का आधार नहीं है। ऐसी अनिष्ट रीति-रिवाजों को बंद करना चाहिए ऐसा उन्हें हृदय से लगता था। शिक्षा का प्रसार हो, स्त्रियों को भी शिक्षा मिल सके इसलिए उन्होंने बालिकाओं की शालाएं प्रारंभ कीं। उन्होंने शिक्षा, समाजसेवा, राजनीति तथा आर्थिक क्षेत्र में अमूल्य कार्य किया। समाज जीवन का उन्होंने विस्तृत सभी स्तरों पर अध्ययन किया था। राजनीति को समाज सुधार से अलग करना पूर्णतः असंभव है ऐसा उन्हें लगता था। समाज की राजनीतिक अथवा आर्थिक प्रगति करनी हो तो सामाजिक सुधार करना अत्यंत आवश्यक है ऐसा उन्हें लगता था।

प्रार्थना समाज

हिंदू धर्म के दोषों पर प्रार्थना समाज के अनुयायियों ने आलोचना की थी, फिर भी हिंदू धर्म से अलग होना उन्हें मान्य नहीं था। हिंदू धर्म में रहकर ही उसमें के दोष दूर करने का प्रयत्न उन्होंने किया।

31 मार्च 1867 को डॉक्टर आत्माराम पांडुरंग, न्यायमूर्ति रानडे, डॉक्टर भांडारकर, आबाजी मोडक इत्यादि विद्वानों ने पहल लेकर मुंबई में प्रार्थना समाज की स्थापना की। यह समाज प्रारंभ से एकेश्वर उपासक मंडली इस नाम से जाना जाता था। प्रार्थना समाज के प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित हैं:

  • ईश्वर एक ही है वह निराकार है। वही इस विश्व का निर्माता है।
  • सत्य, सदाचार और भक्ति ये ईश्वर की उपासना के मार्ग हैं।
  • प्रार्थना के मार्ग से ईश्वर की उपासना की जा सकती है, प्रार्थना से भौतिक फल की प्राप्ति नहीं होती। प्रार्थना केवल आत्मिक उन्नति के लिए ही करनी होती है।
  • मूर्ति पूजा परमेश्वर की उपासना का मार्ग है।
  • सभी मानव एक ही ईश्वर की संतान हैं। 
  • सभी को बंधुभाव से एक साथ रहना चाहिए। इत्यादि तत्व प्रार्थना समाज में समाविष्ट थे। इस समाज के माध्यम से जन जागरण का कार्य उन्होंने किया।

भारतीय सामाजिक परिषद

सामाजिक प्रश्नों के समाधान हेतु न्यायमूर्ति रानडे ने पहल लेकर भारतीय सामाजिक परिषद की स्थापना की। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1887 के तीसरे अधिवेशन में सामाजिक परिषद पहली बार आयोजित की गई। कांग्रेस के अधिवेशन के मंडप में ही इसका आयोजन किया गया था। राजनीतिक प्रश्नों के साथ-साथ सामाजिक प्रश्नों में भी ध्यान देना चाहिए यह विचार प्रस्तुत किया था। प्रारंभिक कुछ वर्षों तक कांग्रेस के अधिवेशन के मंडप में ही सामाजिक परिषद आयोजित की जाती थीं, परंतु 1895 के कांग्रेस के पुणे अधिवेशन के समय सामाजिक परिषद के आयोजन का कुछ कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने कड़ा विरोध किया। तब से भारतीय सामाजिक परिषद अलग आयोजित की जाने लगीं। उनके माध्यम से सामाजिक सुधार लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया गया। मानव की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए सचेत प्रयत्न करना यह समाज सुधार की शुरुआत है। हमारे समाज में संकुचित वृत्तियाँ, जातिभेद, ऊँच-नीच, जीवन के प्रति उदासीनता जैसे दोष उत्पन्न होने के कारण समाज की बड़े पैमाने पर अवनति होती है, इस पर विजय पाने के लिए सचेत प्रयत्न करने चाहिए। समाज के दोषों को प्रयत्नपूर्वक दूर करके ही समाज की उन्नति की जा सकती है।

हिंदी अर्थकारण की नींव डाली

हिंदी अर्थकारण और हिंदी औद्योगिक उन्नति के आंदोलन की नींव डालने का श्रेय न्यायमूर्ति महादेव रानडे को ही दिया जाता है। उन्होंने हिंदी राजनीति को अर्थशास्त्रीय विचारों का जोड़ दिया; स्वदेशी की कल्पना को उन्होंने शास्त्रशुद्ध और व्यावहारिक स्वरूप दिया। स्वदेशी का प्रचार और प्रसार करने का प्रयत्न किया।

न्यायमूर्ति रानडे ने भारत में दरिद्रता की समस्या का मूलभूत विवेचन करके यहाँ की दरिद्रता के कारण और उसे दूर करने के उपाय इनके संबंध में अध्ययनपूर्ण विचार प्रस्तुत किए। भारत में कृषि व्यवसाय पर निर्भर जनसंख्या का अनुपात विशाल है। इसलिए कृषि व्यवसाय पर पड़ा अतिरिक्त भार, प्रकृति की अनिश्चितता पर निर्भर कृषि, देशी उद्योग-धंधों का ह्रास, कृषि और नए उद्योग-धंधों में निवेश करने के लिए आवश्यक पूँजी का अभाव, जनसंख्या में हो रही विशाल वृद्धि, भारतीयों में उद्यमशीलता का अभाव, ये भारत की आर्थिक दुर्दशा और यहाँ की दरिद्रता के प्रमुख कारण हैं, यह उन्होंने स्पष्ट किया था। भारतीय अर्थव्यवहार को गति देने के लिए और उसे उचित दिशा प्राप्त करवाने के लिए सरकार को पहल करनी चाहिए, ऐसा उन्होंने सुझाया।

महादेवराव के काल में ‘लोकहितवादी’ देशमुख, विष्णुशास्त्री पंडित, ज्योतिराव फुले आदि समाजसुधारकों ने सुधार का आंदोलन प्रारंभ किया था। उसमें रानडे सम्मिलित हुए। 1862 में उन्होंने इंदुप्रकाश पत्र के अंग्रेजी विभाग में समाज सुधार की मीमांसा अनेक लेख लिखकर की। 1865 में विधवा-विवाह-प्रोत्साहक मंडल की स्थापना हुई। इस मंडल ने एक विधवा विवाह संपन्न करवाया। परंपरावादी सनातन धर्मियों ने शंकराचार्य की अनुमति से विधवा-विवाह के समर्थकों पर बहिष्कार डाला। इसके कारण बहुत कष्ट सहन करना पड़ा। महादेवराव ने इस विवाद के निमित्त से वेद, स्मृति, पुराण और इतिहास का अध्ययन किया। हिंदू धर्म सुधार के आंदोलन में न्यायमूर्ति रानडे ने स्वयं के धर्म-चिंतन का योगदान दिया। धर्मानुभवों की नैसर्गिक योग्यता मनुष्य के अंतःकरण में है। अंतःकरण चिंतनशील बने और विकारों के बंधन से बाहर निकले तो आंतरिक विवेक का प्रकाश प्राप्त होता है और निराकार, पवित्र परमेश्वर की अनुभूति प्राप्त होती है। संतों और धर्म-संस्थापकों के विचार सर्वसामान्य को देने का कार्य उन्होंने किया। निराकार, पवित्र, एक ही ईश्वर का प्रत्यय और उसके प्रति भक्तिभाव हृदय में व्यक्त होता है। इसलिए सारी मानव जाति का मूल शुद्ध धर्म एक ही है ऐसी निश्चिति होती है, ऐसी उनकी धार्मिक, दार्शनिक विचारों की धारणा थी।

समाजकार्य की धुरा अपने कंधों पर लेने के पश्चात उन्होंने सामाजिक परिषद यह संस्था स्थापित की। समाजसुधार के विचारों के आधार के रूप में निश्चित दर्शन उन्होंने प्रस्तुत किया। राजनीतिक सुधार, आर्थिक सुधार, धर्म सुधार और समाज सुधार ये भिन्न-भिन्न अंग परस्पर से अत्यंत संबद्ध हैं, इसलिए समाज जीवन का समग्रता से विचार करना चाहिए ऐसा उनका व्यापक दृष्टिकोण था। उन्होंने प्रतिपादित किया कि वंशभेद अथवा धर्मभेद न मानकर मनुष्य-मनुष्य में समानता और न्याय स्थापित करना, यह नए युग के मानव का कर्तव्य है। इसके लिए परंपरा की अंधश्रद्धा से और धर्मग्रंथों के बंधन से मानव की बुद्धि प्रथम मुक्त करनी चाहिए। उसकी कर्तव्यनिष्ठा उसकी विवेकबुद्धि से आनी चाहिए। अंध दैववाद के स्थान पर बुद्धिनिष्ठा स्थापित करनी चाहिए। मानव की प्रतिष्ठा समता के तत्व पर होनी चाहिए। उच्च ऐसा विश्वनियामक ईश्वरीय तत्व और उस ईश्वरीय तत्व की मानवीय हृदय की शुद्ध प्रेरणा यह सभी धर्मों के मूल में रहा हुआ रहस्य है, ऐसा वे कहते थे। मूर्तिपूजा और कर्मकांड से मुक्त होकर उच्च धर्म की ओर मनुष्य की विवेकबुद्धि का आकर्षण बढ़ना चाहिए इसलिए राजा राममोहन राय ने बंगाल में स्थापित किए ब्राह्मो समाज के आधार पर मुंबई में प्रार्थना समाज की स्थापना उन्होंने और उनके मित्रों ने की। सिद्धांत, उपासना-पद्धति और विधि का समर्थन करने के लिए उन्होंने अंग्रेजी में ‘एकेश्वरनिष्ठा की कैफियत’ इस शीर्षक से एक निबंध लिखा। भागवत धर्म अर्थात वारकरी संप्रदाय का महादेवराव के मन पर प्रभाव गहरा अंकित हुआ था। भक्ति का प्रसार करने के लिए प्रार्थना समाज का जन्म है, ऐसा उन्होंने कहा है।

न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानडे महान विचारक, राजनीतिक नेता, संवैधानिक राजनीति के आग्रही समर्थक, समाजकार्यकर्ता ऐसे विविध रूपों में महाराष्ट्र की जनता को ज्ञात हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में महाराष्ट्र के सार्वजनिक जीवन में नई चेतना निर्माण करने का श्रेय उन्हीं को देना पड़ता है। राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

न्या. रानडे को इतिहास का भी बड़ा अध्ययन था। उन्होंने ‘मराठा सत्ता का उदय’ (Rise of the Maratha Power) इस ग्रंथ का लेखन किया। सन् 1878 में पुणे में आयोजित प्रथम अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन के वे अध्यक्ष भी थे। आधुनिक भारत के इतिहास में महाराष्ट्र के समाज सुधार आंदोलन का महत्वपूर्ण स्थान है।

ऐसे महान समाजसुधारक का मुंबई में दीर्घ रोग से दिनांक 16 जनवरी 1901 को निधन हुआ। भारत के नवयुग का अग्रदूत चला गया इसलिए देश का शिक्षित वर्ग शोकाकुल हुआ। तब भारत के समाचार-पत्रों में उनके विषय में प्रकाशित श्रद्धांजलि लेखों में उनकी महानता का गुणगान किया गया। लोकमान्य तिलक ने लिखे श्रद्धांजलि लेख में ऐसा लिखा है कि शीतल हुआ महाराष्ट्र प्राणपण से परिश्रम करके पुनः जीवंत करने का कार्य सर्वप्रथम न्या. रानडे ने किया। ऐसे महान समाज सुधारक और विचारक को मेरा सादर प्रणाम।

(लेखक लातूर, महाराष्ट्र के राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त शिक्षक हैं।)

 

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