भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात-120 (भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु परिवर्तन के बिन्दु-2)

 – वासुदेव प्रजापति

शिक्षा में परिवर्तन करने से पूर्व हमें एक और सूत्र को ध्यान में रखने की आवश्यकता है। ‘शिक्षा व्यक्तिगत नहीं होती राष्ट्रीय होती है।’ व्यक्ति कभी अकेला नहीं जी सकता, बिना समाज के और बिना सृष्टि के उसका जीवन संभव ही नहीं है। व्यष्टि, समष्टि और सृष्टि में जीवन एक और अखंड है। इस अखंड जीवन में आत्मतत्व अनुस्यूत है। भारतीय समाज जीवन की रचना इस सूत्र के आधार पर हुई है। शिक्षा के माध्यम से इस सूत्र को विचार और व्यवहार में, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने की व्यवस्था की गई है। शिक्षा का वर्तमान स्वरूप इस सूत्र के अनुरूप नहीं है। वर्तमान शिक्षा व्यक्ति का लाभ और उस लाभ के लिए अन्यों का उपयोग कैसे हो, यह सिखाती है। इस प्रकार की शिक्षा न तो व्यक्ति के लिए और न समाज के लिए लाभकारी होती है। कुछ लाभ यदि दिखाई देता भी है तो वह बहुत कम और बहुत अल्पकालिक होता है। ऐसी शिक्षा राष्ट्र को समृद्ध, सुसंस्कृत, ज्ञानवान और पराक्रमी नहीं बना सकती। परिवर्तन की योजना करते समय हमें व्यक्तिगत संदर्भ को छोड़कर राष्ट्रीय संदर्भ स्वीकार करना होगा। व्यावहारिक चिंतन के इतने पहलू देखने के बाद हमें प्रत्यक्ष योजना पर विचार करना है। योजना करते समय हमें निम्नलिखित बिन्दुओं पर विचार करना होगा।

परिवर्तन का ज्ञानात्मक पक्ष

हमें सर्वप्रथम परिवर्तन का ज्ञानात्मक पक्ष ध्यान में रखना होगा। विद्यालयों, महाविद्यालय में जो पढ़ाया जाता है उसका स्वरूप भारतीय नहीं है। सामाजिक शास्त्र ग्रंथों के सिद्धांत, प्राकृतिक विज्ञानों की दृष्टि, व्यक्तिगत विकास की संकल्पना, जीवन रचना और सृष्टि रचना की समझ आदि बातें जडवादी और अनात्मवादी जीवन दृष्टि के आधार पर विकसित हुई हैं। इन्हें हम विगत आठ-दस पीढ़ियों से पढ़ते आए हैं। हमारा अनुभव कहता है कि छोटी आयु में जो पढ़ाया जाता है, उसके अनुसार ही मानस बनता है, विचार और व्यवहार बनते हैं। ऐसा मानस फिर व्यक्तिगत और सामुदायिक जीवन की व्यवस्थाएं बनाते हैं। देश इसी आधार पर चलता है। धीरे-धीरे देश की जीवन रचना में परिवर्तन होने लगता है, यह परिवर्तन जब पूर्ण हो जाता है तब देश का चरित्र पूर्ण रूप से बदल जाता है। जब तक यह परिवर्तन पूर्ण नहीं होता तब तक देश की मूल जीवन रचना और शिक्षा के माध्यम से बदलने वाली नई रचना में संघर्ष होता रहता है। देश की मूल रचना अपने आप को बचाने के लिए प्रयास करती रहती है। वह सरलता से स्वयं को हारने नहीं देती। हमारे देश की जितनी भी अधिकृत ताकते हैं वे सब विपरीत दिशा की शिक्षा के पक्ष में हैं। परंतु हमारे पूर्वजों की महान तपश्चर्या, जीवन रचना और जीवन दृष्टि की आंतरिक ताकत के बल पर हम इतने शतकों में भी नष्ट नहीं हुए हैं। हम क्षीणप्राण अवश्य हुए हैं परंतु गतप्राण नहीं हुए हैं। हम गतप्राण न हों, इसलिए हमें अपना ध्यान कक्षाकक्ष में पढ़ाए जाने वाले विषयों के विषयवस्तु की ओर केंद्रित करना होगा। हमें विषयों की संकल्पनाएं बदलनी होगी, आधारभूत परिभाषाएं बदलनी होगी, पाठ्यक्रम बदलने होंगे, पठन-पाठन की पद्धति बदलनी होगी। इन सब के लिए हमें अपने अध्ययन-अनुसंधान और अध्ययन की पद्धतियों को भी बदलना होगा। यह एक महान शैक्षिक प्रयास होगा। इसे सबसे पहले करना होगा क्योंकि इसके बिना शेष सारे परिवर्तन पाश्चात्य ढांचे को ही मजबूत बनाने वाले सिद्ध होंगे। आज लगभग वही हो रहा है, इसलिए प्रयास तो हम बहुत कर रहे हैं परंतु रचना नहीं बदल रही है।

स्वतंत्र और स्वायत्त रचना का निर्माण

हमें वर्तमान रचना के समानांतर एक स्वतंत्र और स्वायत्त रचना का निर्माण करना होगा। अध्ययन और अनुसंधान करने वाले बुद्धिमान और राष्ट्रभक्त तरूणों को ज्ञान साधना करने हेतु आवाह्न करना होगा यह कार्य सरल नहीं है क्योंकि वर्तमान स्थिति में पद-प्रतिष्ठा और धन छोड़कर ही ज्ञान साधना हो सकती है। दूसरी और ज्ञान साधना करने वालों का पूर्ण सम्मान करना होगा और उनकी सुरक्षा, प्रतिष्ठा व आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके ऐसे धनवान लोगों का भी सहयोग लेना होगा। ‘अर्थ से विद्याश्रेष्ठ है’ इस सूत्र को स्वीकृत बनाने से ही यह कार्य संभव हो सकेगा। नए पाठ्यक्रमों के लिए हमें नई अध्ययन सामग्री तैयार करनी होगी। हमारे शाश्वत सिद्धांत को समाहित करने वाले शास्त्र ग्रन्थों का अध्ययन कर उनके आधार पर वर्तमान युग के अनुरूप साहित्य का निर्माण करना होगा। वर्तमान विश्व के ज्ञान प्रवाहों से अवगत होते हुए उनका समायोजन हमारी ज्ञान धारा से कर उसे समृद्ध भी बनाना होगा। संक्षेप में कहें तो विपुल मात्रा में साहित्य निर्माण करना हमारा दूसरा कार्य होगा।

हमें शिक्षा को स्वायत्त बनाने की दिशा में मजबूत प्रयास करने की आवश्यकता है। शासन निरपेक्ष शिक्षा व्यवस्था ही समाज का सही मार्गदर्शन कर सकती है। शिक्षा शिक्षकों के बल पर चलनी चाहिए, जहां शिक्षक कर्मचारी होते हैं वहां वे गुरु नहीं बन सकते, गुरुत्व एक मानसिकता होती है। जब शिक्षक अपने आप को गुरु मानता है तब वह दायित्वबोध से युक्त होता है। ऐसा शिक्षक यदि छात्र का चरित्र अच्छा नहीं है, समाज सुसंस्कृत नहीं है तो वह अपने आप को इन सबका जिम्मेदार मानता है। समाज यदि शिक्षक को गुरु मानता है तो उसे धनवानों से और सत्तावानों  से अधिक आदर देता है। ऐसा समाज शिक्षक को कभी भी दीन-हीन नहीं रहने देता। जब समाज शिक्षक को गुरु मानकर उनका सम्मान करता है परंतु शिक्षक अपने आप को गुरु नहीं मानता तब वह समाज को गलत रास्ते पर ले जाकर भटका देता है और उसकी हानि करता है। यदि शिक्षक अपने आप को गुरु मानता है परंतु समाज उसे गुरु नहीं मानता तो शिक्षक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और अवमानना भी सहनी पड़ती है। ऐसी स्थिति में विरले शिक्षक ही अपना गुरुत्व बनाए रख पाते हैं, अधिकांश शिक्षक तो कर्मचारी बन जाते हैं। तब ज्ञान की, शिक्षक की और समाज की क्षति होती है। जब समाज और शिक्षक दोनों ही शिक्षक को गुरु नहीं मानते तब समाज की अधोगति की कोई रोक नहीं सकता। ऐसा समाज सुसंस्कृत नहीं रह पाता, प्रथम तो वह पशु प्रवृत्ति की ओर बढ़ता है, फिर पशु से भी नीचे गिरकर विकृति की ओर गति करता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि आज हम ऐसी ही स्थिति में जी रहे हैं।

इस स्थिति से ऊपर उठने के लिए हमें शिक्षा को स्वायत्त बनाने की दिशा में गंभीर रूप से प्रयास करने होंगे। यह कार्य कोई भी व्यक्ति या संस्था अकेले नहीं कर सकते, इसके लिए अनिवार्य रूप से संगठन चाहिए। व्यक्ति या संस्था शैक्षिक कार्य कर सकते हैं। देश में अनेक व्यक्ति और संस्थाएं आज भी मूल्यवान शैक्षिक कार्य कर रहे हैं। परंतु समाज के मानस को बदलना और शासन को प्रभावित करने का कार्य संगठित शक्ति ही कर सकती है। संगठित शक्ति भी दो प्रकार की है, एक तो शिक्षा के ही क्षेत्र में कार्यरत संगठन की शक्ति और दूसरे धर्म सत्ता की नैतिक शक्ति। वास्तव में शिक्षा धर्म सत्ता का ही प्रतिनिधित्व करती है। समाज को शिक्षित करने का कार्य धर्म सत्ता का होता है। यह शिक्षा धर्म की शिक्षा नहीं होती अपितु धर्म आधारित शिक्षा होती है। अतः धर्म की नैतिक शक्ति और शैक्षिक संगठनों की संगठित शक्ति ही समाज के मानस को बदलकर शासन को प्रभावित कर सकती है, तथा शिक्षा को स्वायत्त बना सकती है। आज देश में ऐसे संगठन अस्तित्व में हैं और धर्म सत्ता भी है,बस उन्हें इस कार्य को अपनी वरीयता सूची में लाने की आवश्यकता है।

शिक्षा के स्थापित ढांचे से बाहर निकलना

तनिक विचार करने पर ध्यान में आता है कि हमें शिक्षा के स्थापित ढांचे से बाहर निकलना होगा। बात व्यक्ति विकास की हो या राष्ट्र निर्माण की, चरित्र निर्माण की हो या कौशल विकास की, अर्थार्जन के लायक बनाने की हो या व्यवहार ज्ञान की, ऐसी सभी प्रकार की शिक्षा परिवार में होती है। चरित्र निर्माण की शिक्षा तो गर्भावस्था और शिशु अवस्था में ही हो जाती है। इस शिक्षा को देने वाले माता और पिता होते हैं। हमारे शास्त्र, हमारी परंपरा, हमारा अनुभव और हमारी सामान्य बुद्धि कहती है कि माता बालक की प्रथम गुरु है, दूसरा स्थान पिता का है और शिक्षक का स्थान तीसरा है। अधिकांश शिक्षा घर में ही, शिशु अवस्था में मिलने वाले संस्कारों के माध्यम से होती है। यह परिवार का एक बड़ा महत्वपूर्ण योगदान है। वंश परंपरा के माध्यम से और भी अनेक प्रकार की परंपराएं बनाए रखने का कार्य भी परिवार में ही होता है। अतः परिवार संस्कृति रक्षा व संस्कृति संवर्धन का प्रमुख केंद्र है। परिवार व्यवस्था विश्व के समाज जीवन को भारत की दी हुई अनुपम देन है। जीवन का समग्रता में आकलन करने वाली भारतीय बुद्धि की देन यह परिवार व्यवस्था है। हमारे पूर्वजों का मानना है कि माता-पिता का स्थान शिक्षक नहीं ले सकता और घर का स्थान विद्यालय नहीं ले सकता। इस सूत्र की पालना करते हुए वर्तमान समय में ऐसे अनेक माता-पिता हैं जो अपने बालकों को विद्यालय न भेजकर घर में ही पढ़ाते हैं। ‘घर ही विद्यालय’ इस संकल्पना को साकार बनाने वाले अभिभावक अपनी सन्तानों को संस्कारों के साथ साथ जीवन जीना सिखाते हैं। क्या पढ़ाना और क्या नहीं पढ़ाना, कब पढ़ाना, कितना पढ़ाना और उनका सतत मूल्यांकन कैसे करना, इन सभी बातों का निर्णय वे स्वयं ही करते हैं। इन्हें न सरकारी मान्यता चाहिए और न प्रमाणपत्र चाहिए। घर ही विद्यालय का यह प्रयोग सही अर्थ में स्वतंत्र व स्वायत्त शिक्षा का नमूना है। भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा की ओर बढ़ने वाला एक कदम है।

आज परिवार व्यवस्था कुछ शिथिल पड़ गई है और परिवार में मिलने वाली शिक्षा भी प्रभावी नहीं है। इसलिए हमें परिवार व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने की योजना शिक्षा के माध्यम से करनी होगी। परिवार भारतीय समाज रचना की मूल इकाई है, अतः परिवार के सुदृढ़ीकरण से राष्ट्र जीवन भी सुव्यवस्थित होगा। राष्ट्रीय शिक्षा पर आधारित ऐसे नए विद्यालय भी हमें प्रारंभ करने होंगे जहां हम पूर्ण रूप से भारतीय ज्ञान धारा पर आधारित शिक्षा दे सकें। ऐसे विद्यालय चलाने के लिए संस्था संचालक, शिक्षक और अभिभावकों का परस्पर अनुकूल मानस वाला एक समूह होना आवश्यक है। ऐसे विद्यालय प्रथम तो प्रयोग के रूप में ही चलेंगे परंतु समाज स्वीकृत होने के उपरांत स्थान स्थान पर ऐसे नए विद्यालय स्थापित करने होंगे, जो अनेक लोगों के द्वारा, अनेक स्थानों पर विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों में भी चलाएं जा सकें। ऐसे विद्यालय व्यावहारिक और लचीलापन लिए तथा सर्व सामान्य और सर्व स्वीकृत होने की क्षमता वाले होने चाहिए।

अब तक हम यह मानकर कर चल रहे हैं कि सरकारी मान्यता प्राप्त विद्यालय में ही शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। शिक्षा का यह वर्तमान ढ़ांचा समाज स्वीकृत हो चुका है। सामान्य व्यक्ति क्या बड़े बड़े शिक्षाविद् भी इससे बाहर निकलकर शिक्षा में परिवर्तन का विचार ही नहीं करते। जब तक हम इस वर्तमान ढ़ांचे से चिपके रहेंगे, तब तक भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा सम्भव नहीं होगी। अतः वर्तमान अंग्रेजी ढांचे से बाहर निकलकर परिवर्तन तो करना ही होगा।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

और पढ़ें : भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात-119 (भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु परिवर्तन के बिंदु-1)

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