भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात-119  (भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु परिवर्तन के बिंदु-1)

 – वासुदेव प्रजापति

हम भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा चाहते हैं। भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा तभी संभव है जब आज की व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन किया जाए। यह परिवर्तन स्थाई हो और सर्वजन हिताय हो, तभी इसकी सार्थकता है। परिवर्तन संसार का नियम है, यह बात हम भली भांति जानते हैं। परंतु आज की शिक्षा में जो परिवर्तन अपेक्षित है वह छोटा-मोटा अथवा काल के प्रवाह में होने वाला परिवर्तन नहीं है। यह परिवर्तन भारतीय चिंतन व दर्शन के अनुसार होना चाहिए। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था को समग्रता में देखकर शिक्षा के संपूर्ण तंत्र-मंत्र और यंत्र को परिवर्तित करने की आवश्यकता है। समग्रता में परिवर्तन किए बिना हम शिक्षा की जिन समस्याओं से जूझ रहे हैं उनका निराकरण होना संभव नहीं है।

समग्र परिवर्तन करना होगा

हमें छोटे-छोटे परिवर्तनों की बात तुरंत समझ में आ जाती है। जैसे की हम पाठ योजना में नवाचार की बात करते हैं और पाठ्य पुस्तकों में समय-समय पर परिवर्तन करते रहते हैं। कभी कुछ नए विषय जोड़ते हैं तो कभी पुराने विषयों को हटा देते हैं। पाठ्यक्रमों में परिवर्तन करते हैं, परीक्षा की पद्धतियों में नई-नई बातें जोड़ते हैं, इत्यादि। अब तो संस्कारों की शिक्षा जैसी बातें भी आग्रह पूर्वक जोड़ने लगे हैं। फिर भी हम शिक्षा के वर्तमान स्वरूप से संतुष्ट नहीं हैं, क्योंकि मूल बातों पर विचार किए बिना हम ऊपर-ऊपर के परिवर्तनों में ही लगे रहते हैं। भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु शिक्षा के सभी पहलुओं का समग्रता में विचार करने की आवश्यकता है।

परिवर्तन करने के लिए हमें सबसे पहले अपना चिंतन बदलने की आवश्यकता है, क्योंकि चिंतन ही शेष सभी बातों का आधार है। आधार होने के बाद भी चिंतन केवल प्रथम चरण है, वह केवल नींव है। नींव मजबूत होनी चाहिए यह भी सत्य है, नींव शुद्ध होनी चाहिए यह भी सत्य है, परंतु केवल नींव से भवन नहीं होता यह भी उतना ही सत्य है। इसलिए केवल चिंतन नहीं, व्यवहार की बात होना भी आवश्यक है। अतः चिंतन के बाद, चिंतन के साथ, चिंतन के अनुरूप क्रियान्वयन की बात भी होनी चाहिए। जब हम व्यवहार के स्तर पर परिवर्तन की बात करते हैं तब अनेक बातों का विचार करना आवश्यक है। क्रियान्वयन के लिए एक रचना चाहिए, रणनीति चाहिए, ठोस योजना भी चाहिए। इन सबके लिए हमारी क्षमताओं और व्यापक मानसिकता का विचार करना होगा। हमारी तत्काल और दूरगामी आवश्यकताओं का तथा संसाधनों की उपलब्धता का विचार करना होगा। हमें एक संपूर्ण प्रतिमान का, एक संपूर्ण ढांचे का विचार करना होगा। भले ही समय लगे हमें पूरा एक साथ समग्रता में विचार किए बिना परिवर्तन का प्रारंभ नहीं करना चाहिए।

अपने अतीत का स्मरण करना होगा

हमें अपने संदर्भ और अपनी पृष्ठभूमि पर विचार करना होगा। हम तात्विक रूप से और भावात्मक रूप से अपने अतीत से जुड़े हैं। हमें उपनिषदों का तत्वज्ञान सही लगता है। हम आत्मतत्व की एकात्मता की बात करते हैं। हमें ऐसे मूल्य अच्छे और सही लगते हैं, जिनका अधिष्ठान आध्यात्मिक है। हम त्याग, समर्पण, सेवा और निष्ठा आदि बातों की सृष्टि में विहार करना पसंद करते हैं। हमारे राष्ट्रीय आदर्श भी त्यागी, बलिदानी, सेवाभावी और लोक कल्याण हेतु जीवन देने वाले महापुरुषों के हैं। जहां-जहां हमें इन आदर्शों के अनुरूप उदाहरण देखने को मिलते हैं, हमें प्रसन्नता होती है। परंतु हमारा आसन्न भूतकाल ध्यान में लेने की आवश्यकता है। विगत 200 वर्षों की घटनाएं हमारी वर्तमान समस्याओं की जड़ है। यह 200 वर्ष हमारे चिंतन और रचना के परिवर्तन का काल है। व्यवहार के जितने भी पक्ष होते हैं उन सब में परिवर्तन हुआ है। इन 200 वर्षों में एक पूर्ण रूप से अभारतीय प्रतिमान को हमारे मन-मस्तिष्क में बिठाने का अंग्रेजी प्रयास हुआ है। अंग्रेजी शिक्षा की सहायता से उनका यह प्रयास अप्रत्याशित रूप से सफल एवं यशस्वी भी हुआ है।

यह केवल शिक्षा क्षेत्र का परिवर्तन नहीं है अपितु संपूर्ण जीवन रचना का परिवर्तन है। अंग्रेजों के द्वारा लादे गए इस अभारतीय ढांचे का प्रभाव इतना गहरा है कि स्वतंत्रता के बाद भी हमने उस ढांचे को आधुनिक और अनिवार्य समझ कर अपना लिया है। इसलिए परिवर्तन करते समय हमें वर्तमान वैचारिक, मानसिक और व्यावहारिक संदर्भों को ध्यान में लेना पड़ेगा। इन सभी संदर्भों को लेकर हम शिक्षा क्षेत्र का विचार करेंगे तो हमें कुछ समस्याओं का निराकरण प्राप्त होगा।

हमें अंग्रेजी व्यवस्थाओं को छोड़ना होगा

हमने अंग्रेजी शिक्षा पद्धति की कुछ व्यवस्थाओं को मन से स्वीकार कर लिया है, हम उन्हें गृहीत मानकर चलते हैं। जैसे शिक्षा संस्थान चलाने के लिए शासन की मान्यता अनिवार्य है। यह बात आज जन-मन में इतनी गहरी बैठ गई है कि शिक्षा के लिए शासन की मान्यता अनिवार्य है। जबकि भारत में केवल 150 वर्ष पहले शासन का कोई शिक्षा विभाग ही नहीं था। शिक्षा के संबंध में आज जो कानून और नियम हैं, जो विभिन्न प्रकार के नियंत्रणों की व्यवस्था है, पाठ्यक्रम निर्माण, पाठ्यपुस्तक निर्माण, परीक्षा, प्रवेश और अनुदान आदि का जो तंत्र है उसका सर्वथा अभाव था। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि यह सारी बातें हमारे यहां नहीं थी। शिक्षा विषयक ये सारी बातें हमारे यहां भी थीं किन्तु उनका नियंत्रण शासन का न होकर शिक्षकों का था और शिक्षक शासन के प्रति उत्तरदायी न होकर समाज के प्रति उत्तरदायी था।

इस भारतीय व्यवस्था के अनेक सुपरिणाम थे। विद्या और विद्यावान सत्ता और अर्थ के अधीन न होकर उसके मार्गदर्शक, निर्देशक और आवश्यकता पड़ने पर नियंत्रक के रूप में काम कर सकते थे। शिक्षा ज्ञान सत्ता का एक हिस्सा थी जो धर्म सत्ता के रूप में व्यवहार करती थी। इस व्यवस्था के बदलने के फलस्वरूप अनेक दुष्परिणाम हुए। शासन के नियंत्रण में आते ही शिक्षा ने अपना गौरव और गुरुता खो दी। ज्ञान सत्ता के ऊपर अर्थ और शासन का प्रभुत्व हो जाने से समाज सही मार्गदर्शन से वंचित हो गया। साथ ही अर्थ सत्ता और राज्य सत्ता बिना मार्गदर्शन के सही रास्ते से भटकने लगे और बिना नियंत्रण के निरंकुश होकर शासन में परिणत हो गए।

दूसरा दुष्परिणाम यह हुआ कि शिक्षक स्वयं गुरु न रहकर लघु बन गया, कर्मचारी बन गया और राष्ट्र निर्माण के अपने दायित्व से विमुख हो गया। शिक्षा में सभी गैर शैक्षिक नियंत्रण बढ़ गए। सारे तंत्र में एक प्रकार की व्यक्ति निरपेक्षता समा गई, जहां किसी की जिम्मेदारी निश्चित करना कठिन हो गया। तंत्र का चेहरा निर्जीव बन गया और प्रेम, आनंद, रस, कृतज्ञता जैसे तत्वों का अभाव हो गया। हम आचार्य चाणक्य का स्मरण करते हुए कहते हैं कि “शिक्षक राष्ट्र का निर्माता होता है”, परंतु वर्तमान स्थिति में न तो शिक्षा राष्ट्र निर्माणकारी हो सकती है और न शिक्षक राष्ट्र निर्माता बन सकता है। अतः परिवर्तन का यह एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है जिसकी हमें चिंता करनी होगी। शिक्षा में स्वायत्तता का संपूर्ण विचार करते हुए, शासन का नियंत्रण कैसे दूर किया जाए, इसका विचार हो। स्वायत्तता का यह विचार और प्रयास स्वयं शिक्षकों की और से होना चाहिए।

आज शिक्षा अप्रत्याशित रूप से संस्थागत बन गई है। इसलिए संस्था को आर्थिक दृष्टि से और प्रशासनिक दृष्टि से शासन की मान्यता चाहिए। संस्था किसी न किसी रूप में पंजीकृत हुए बिना चल नहीं सकती, और पंजीकृत होते ही उसमें वस्तुनिष्ठता आ जाती है। वस्तुनिष्ठता का अर्थ हम पक्षपात रहित लगाते हैं परंतु व्यवहार में वस्तुनिष्ठता यांत्रिकता बन जाती है। आज वस्तुनिष्ठता,मूल्यांकन, प्रमाण पत्र, पदवी आदि का महत्व इतना बढ़ गया है कि विद्यालय नामक संस्था से बाहर बिना परीक्षा उत्तीर्ण किए, बिना प्रमाण पत्र प्राप्त किए भी शिक्षा हो सकती है, इस बात को हम भूल गए हैं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि अब प्रमाण पत्र भी अर्थार्जन का साधन है, ज्ञानवान होने का प्रमाण नहीं। शिक्षा अपने स्वभाव से ही इतनी अधिक संस्थागत नहीं हो सकती, क्योंकि वह जन्म से पहले ही शुरु हो जाती है। शिक्षा घर में, आंगन में, खेल के मैदान में, मंदिर में, बाजार में अर्थात सर्वत्र होती है, वह जीवन क्रम के साथ जुड़ी हुई रहती है और जीवन के हर पहलू में समा जाती है। संस्थागत स्वरूप तो उसके पूर्ण स्वरूप का एक छोटा सा भाग है, वह भी हमेशा अनिवार्य नहीं होता। वर्तमान में हमने शिक्षा के केवल संस्थागत स्वरूप को मान्यता देकर अपने आप को संकट में डाल दिया है। अतः परिवर्तन का हमारा दूसरा प्रयास शिक्षा को इस संस्थाकरण से मुक्त करवाना है।

आधुनिकता व वैश्विकता को सही अर्थ में समझना

आधुनिकता व वैश्विकता ने हमें गहरे संकट में डाल दिया है। इन दोनों शब्दों के सही अर्थ को छोड़कर हमने इनका पाश्चात्य अर्थ ले लिया है। आधुनिक  संस्कृत शब्द ‘अधुना’ से बना है। अधुना का अर्थ है ‘अब’ या ‘अभी’ अर्थात वर्तमान। शाश्वत सिद्धांतों का वर्तमान स्वरूप कैसा होता है, इसका चिंतन भारत में प्राचीन काल से अर्थात जब से चिंतन शुरू हुआ है, तब से होता रहा है। इसी प्रक्रिया में हमारे स्मृति साहित्य की रचना हुई है, जिसे हम युगानुकूल चिंतन कहते हैं। युगानुकूल का अर्थ आधुनिकता है। आधुनिकता भारतीय भी हो सकती है और पाश्चात्य भी। इसलिए परिवर्तन का विचार करते समय हमें पाश्चात्य ही आधुनिक है, इस धारणा से मुक्त होना होगा। इससे मुक्त होकर ही हम पाश्चात्यीकरण से मुक्त हो पाएंगे। हमें इस बात से भी स्पष्ट होना होगा कि भारतीयता और वैश्विकता में कोई अंतर नहीं है। भारत ने हमेशा वैश्विक संदर्भ में ही विचार और व्यवहार किया है। भारत की आकांक्षा “सर्वे भवंतु सुखिन:” की रही है। भारत हमेशा मानव धर्म के संदर्भ में ही विचार करता है। अपने ध्येय को भारत “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” कह कर ही प्रस्तुत करता है। अत: भारत के लिए वैश्विकता नई बात नहीं है। वैश्विकता का संबंध केवल पाश्चात्य के साथ नहीं है, भारत के साथ भी है।

शिक्षा के परिवर्तन का विचार करते समय हमें भारतीय अध्यात्म का विचार करना होगा। आज हमारा सारा चिंतन बुद्धिनिष्ठ हो गया है, बुद्धिनिष्ठ चिंतन के आधार पर देश की सारी व्यवस्थाएं और व्यवहार की रचना हुई है। परंतु भारतीय चिंतन बुद्धिनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ है। श्रीमद् भागवत गीता में भगवान से कृष्ण कहते हैं

इंद्रियाणिपराण्याहु: इंद्रियेभ्य: परं मन:।

मनसस्तु परा बुद्धि: यो बुद्धे: परतस्तु स:।

अर्थात इन्द्रियां विषयों से परे हैं, मन इंद्रियों से परे है, मन से परे बुद्धि है और बुद्धि से परे जो है, वह आत्मतत्व है,परमात्मा है।

अनेक लोग समझते हैं कि अध्यात्म और भौतिकता में अंतर है, इनमें परस्पर विरोध है। भौतिक अथवा दैनन्दिन व्यवहारों में आध्यात्मिकता बाधा बनती है। यदि आध्यात्मिक बनना है तो भौतिकता छोड़नी पड़ती है। वास्तव में इस प्रकार का विभाजन ही ठीक नहीं है। आध्यात्मिकता का अधिष्ठान लेकर भौतिक जीवन की रचना करना भारतीय जीवन रचना का विशिष्टय रहा है। अतः अध्यात्म विचार को समझना और उसे शिक्षा का अधिष्ठान बनाना, भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु हमारे लिए प्रथम करणीय कार्य है। शेष अगले अध्याय में……

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

और पढ़ें : भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 118 (भारतीय ज्ञान की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु करणीय उपाय)

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