राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी के विजयादशमी उद्बोधन (सन् २०१४-२०२०) में शिक्षा विषयक का सम्पादित अंश
विजयादशमी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्थापना दिवस तथा वर्ष में मनाये जाने वाले संघ के छह उत्सवों में से एक है। प्रतिवर्ष नागपुर में विजयादशमी उत्सव में पू० सरसंघचालक जी का उद्बोधन होता है। यह उद्बोधन देश की परिस्थितियों के संदर्भ में संघ के दृष्टिकोण एवं आगामी योजना की ओर संकेत करता है।
विजयादशमी उत्सव 2014 – 3 अक्तूबर 2014, नागपुर
वातावरण के परिवर्तन को लाने में शासन की भी भूमिका है यह सब जानते है। शिक्षा सर्वसुलभ, संस्कार प्रदान करने वाली व्यवस्थित हों, जीवन संघर्ष में स्वाभिमान से खड़ा रहने का सामर्थ्य व साहस देने वाली हों यह शिक्षा विभाग को देखना चाहिये। जनता को जानकारी देना व उनका प्रबोधन करना यह जिनका कर्तव्य है उन दृश्यश्रव्य तथा पाठ्य् माध्यमों (Visual and Print media) के द्वारा संस्कार बिगाड़ने वाले कार्यक्रम व विज्ञापन न परोसे जाये ऐसा नियंत्रण रखने का काम भी सरकार के सूचना व प्रसारण विभाग का है ही। परंतु समाज इन कार्यों के शासन के द्वारा होने की बाट जोहते रुका रहे इसकी आवश्यकता नहीं। हमारा अपना परिवार भी समाज का एक छोटा रूप है। कुटुंब समाज की परिपूर्ण ईकाई के रूप में आज भी हमारी जीवनव्यवस्था में चल रहा है। उसमें हम विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रम नहीं पढ़ा सकेंगे, परंतु जीवन में मनुष्यता का संस्कार भरने वाला, कर्तव्या-कर्तव्य का विवेक सिखाने वाला, साहस से जीवन का सामना करने की शक्ति व धैर्य देने वाला प्रशिक्षण तो अपने घर के वातावरण में ही मिलता है। इस दृष्टि से अपने कुटुंब के बड़े व सन्मान्य व्यक्तियों का व्यवहार, कुल परंपरा की इस दृष्टि से उपयुक्त रक्षणीय बातें तथा तदनुरूप व्यवहार व संवाद का चलन बनाना तो पूर्णतया अपने ही हाथ में है। प्रत्येक घर में यह होना आज आवश्यक हो गया है।
विजयादशमी उत्सव 2015 -22 अक्तुबर 2015, नागपुर
परिवर्तन के लिए समाज में एक महत्वपूर्ण साधन होता है शिक्षा की व्यवस्था। हाल के वर्षों में वह व्यापार का साधन बनती जा रही है। इसीलिए वह महंगी होकर सर्वसामान्य व्यक्ति की पहुँच के बाहर भी होती जा रही है। स्वाभाविक ही शिक्षा के उद्देश्य पूरे होते हुए समाज में दिखाई नहीं दे रहे हैं। शिक्षा का उद्देश्य विद्यादान के साथ-साथ, विवेक, आत्मभान व आत्मगौरव से परिपूर्ण, संवेदनशील, सक्षम, सुसंस्कृत मनुष्य का निर्माण यह होना चाहिए। इस दृष्टि से समग्रता के साथ शिक्षा पद्धति के अनेक प्रयोग विश्व में व देश में भी चल रहे हैं। उन सारे प्रयोगों का ठीक से संज्ञान लेना चाहिए। उनके निष्कर्ष व अब तक शिक्षा के बारे में अनेक तज्ञों, संगठनों तथा आयोगों के द्वारा दिये गये उपयुक्त सुझावों का अध्ययन कर, पाठ्यक्रमों से लेकर शिक्षा संचालन, शुल्क व्यवस्था आदि शिक्षा पद्धति के सब अंगों तक में कुछ मूलभूत परिवर्तन लाने का विचार करना होगा। शिक्षा समाजाधारित होनी चाहिए। शिक्षा की दिशा उसके उद्देश्य व आज के समय की आवश्यकता दोनों की पूर्ति करने वाली हो, इतनी परिधि में पद्धति की स्वतन्त्रता भी देनी चाहिए। शिक्षा व्यापारीकृत न हो इसलिए शासन को भी सभी स्तरों पर शिक्षा संस्थान अच्छी तरह चलाने चाहिए। सारी प्रक्रिया का प्रारम्भ शिक्षकों के स्तर की तथा उनमें दायित्व बोध की चिन्ता, उनके परिणामकारक प्रशिक्षण तथा मानकीकरण के द्वारा करने से होना पड़ेगा।
परन्तु इन सबके साथ-साथ हम अभिभावकों, यानी समाज का भी दायित्व, इस प्रक्रिया में बहुत महत्व रखता है। क्या हम अपने घर के बालकों को अपने उदाहरण से व संवाद से यह सिखाते हैं कि जीवन में सफलता के साथ, किंबहुना उससे अधिक, महत्त्व सार्थकता का है? क्या हम अपने आचरण से सत्य, न्याय, करुणा, त्याग, संयम, सदाचार आदि का महत्व नई पीढ़ी के मन में उतारने में सफल हो रहे हैं? क्या हमारी पीढ़ी इस प्रकार के व्यवहार का आचरण हमारे सामाजिक व व्यावसायिक क्रियाकलापों में छोटे-मोटे लाभ-हानि की परवाह किये बिना आग्रहपूर्वक व सजगता के साथ कर रही है? हमारे करने, बोलने, लिखने से समाज विशेषकर नई पीढ़ी एकात्मता, समरसता व नैतिकता की ओर बढ़ रही है या नहीं इसका भान, हम समाज का प्रबोधन करने वाला नेतृवर्ग तथा माध्यम रख रहे हैं क्या?
विजयादशमी उत्सव 2016 – 11 अक्टूबर, 2016, नागपुर
अनेक वर्षों से देश की शिक्षा व्यवस्था – जिससे देश व समाज के साथ एकात्म, सक्षम व दायित्ववान मनुष्यों का निर्माण होना चाहिए – पर चली चर्चा इस परिप्रेक्ष्य में ही अत्यंत महत्वपूर्ण है। उस चर्चा के निष्कर्ष के रूप में एक सामान्य सहमति भी उभरकर आती हुई दिखाई देती है कि शिक्षा सर्वसामान्य व्यक्तियों की पहुंच में सुलभ, सस्ती रहे। शिक्षित व्यक्ति रोजगार योग्य हों, स्वावलंबी, स्वाभिमानी बन सकें व जीवनयापन के संबंध में उनके मन में आत्मविश्वास हो। वह ज्ञानी बनने, सुविद्य बनने के साथ-साथ दायित्व बोधयुक्त समंजस नागरिक तथा मूल्यों का निर्वहन करने वाला अच्छा मनुष्य बने। शिक्षा की व्यवस्था इस उद्देश्य को साकार करने वाली हो। पाठ्यक्रम इन्हीं बातों की शिक्षा देने वाला हो। शिक्षकों का प्रशिक्षण व योगक्षेम की चिन्ता इस प्रकार हो कि विद्यादान के इस व्रत को निभाने के लिए वे योग्य व समर्थ हों। शासन व समाज दोनों का सहभाग शिक्षा क्षेत्र में हो तथा दोनों मिलकर शिक्षा का व्यापारीकरण न होने दें।
नयी सरकार आने के बाद इस दिशा में एक समिति बनाकर प्रयास किया गया, उसका प्रतिवेदन भी आ गया है। शिक्षा क्षेत्र के उपरोक्त दिशा में कार्य करने वाले बंधु तथा शिक्षाविदों की राय में उस प्रतिवेदन की संस्तुतियां इस दिशा में शिक्षा पद्धति को रूपांतरित करेंगी कि नहीं, यह देखना पड़ेगा। दिशागत परिवर्तन के लिए उपयुक्त ढ़ांचा बनाने की रूपरेखा तभी प्राप्त होगी, अन्यथा उपरोक्त सहमति प्रतीक्षा की अवस्था में ही रहेगी।
परंतु नई पीढ़ी के शिक्षित होने के स्थानों में विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विद्यापीठों के साथ-साथ कुटुंब व पर्व उत्सवों से लेकर समाज की सभी गतिविधियां व उपक्रमों से निर्माण होने वाला वातावरण भी है। अपने कुटुंब में नई व पुरानी पीढ़ी का आत्मीय संवाद होता है क्या? उस संवाद में से उनमें शनै:-शनै: समाज के प्रति दायित्वबोध, व्यक्तिगत व राष्ट्रीय चारित्र्य के सद्गुण, मूल्य श्रद्धा, श्रम श्रद्धा, आत्मीयता तथा बुराइयों के आकर्षण से दूर रहने की प्रवृत्ति का निर्माण होता है क्या? वे ऐसे बनें इसलिए घर के बड़ों का व्यवहार उदाहरण बनता है क्या? इन प्रश्नों के उत्तर अपने-अपने कुटुंब के लिए हम ही को देने होंगे। घर से उचित स्वभाव, लक्ष्य तथा प्रवृत्ति प्राप्त हो तो ही शिक्षा प्राप्ति का परिश्रम तथा उसके उचित उपयोग का विवेक बालक दिखाता है यह भी हम सभी का अनुभव है। कुटुंब में यह संवाद प्रारम्भ हो व चलता रहे यह प्रयास अनेक संत, सज्जन तथा संगठन कर रहे हैं। संघ के स्वयंसेवकों में भी एक गतिविधि कुटुंब प्रबोधन के ही कार्य को लेकर चली है, बढ़ रही है। किसी के माध्यम से हमारे पास यह कार्य पहुंचे इसकी प्रतीक्षा किए बिना हम इसे अपने घर से प्रारम्भ कर ही सकते है।
विजयादशमी उत्सव 2017 – 30 सितम्बर 2017, नागपुर
राष्ट्र के नवोत्थान में शासन, प्रशासन के द्वारा किये गये प्रयासों से अधिक भूमिका समाज के सामूहिक प्रयासों की होती है। इस दृष्टि से शिक्षा व्यवस्था महत्वपूर्ण है। भारतीय समाज के मानस में आत्महीनता का भाव व्याप्त हो इसलिये शिक्षा व्यवस्था की रचनाओं में, पाठ्यक्रम में व संचालन में अनेक अनिष्टकारी परिवर्तन विदेशी शासकों के द्वारा पारतंत्र्यकाल में लाये गये। उन सब प्रभावों से शिक्षा को मुक्त होना पड़ेगा।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति की रचना हमारे देश के सुदूर वनों में, ग्रामों में बसने वाले बालक-तरुण भी शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे उतनी सस्ती व सुलभ करनी पड़ेगी। उसके पाठ्यक्रम मतवादों के प्रभाव से मुक्त रहकर सत्य का ही ज्ञान कराने वाले, राष्ट्रीयता व राष्ट्र गौरव का बोध जागृत कराने वाले तथा प्रत्येक छात्र में आत्मविश्वास, उत्कृष्टता की चाह, जिज्ञासा, अध्ययन व परिश्रम की प्रवृत्ति जगाने के साथ-साथ शील, विनय, संवेदना, विवेक व दायित्वबोध जगाने वाले करने पड़ेगे। शिक्षकों को छात्रों का आत्मीय बनकर स्वयं के उदाहरण से यह बोध कराना पड़ेगा। शिक्षा परिसरों का वातावरण तदनुकूल बनाना पड़ेगा। उचित प्रकार के भवन, उपकरण, वाचनालयों से व प्रयोगशालाओं से सुसज्जित करने पड़ेगे। शिक्षा का बाजारीकरण समाप्त हो इसलिये शासकीय विद्यालयों, महाविद्यालयों को भी व्यवस्थित कर स्तरवान बनाना पड़ेगा। इस दिशा में समाज में भी अनेक सफल प्रयोग चल रहे हैं उनके अनुभवों का भी संज्ञान लेना पड़ेगा। शिक्षकों के योगक्षेम की उचित व्यवस्था करनी पडे़गी।
यह पुनरुक्ति इस आशा में, कि इन अपेक्षाओं को पूर्ण करनेवाली बहुप्रतीक्षित, आमूलाग्र परिवर्तनकारी शिक्षा नीति शीघ्र ही देश के सामने रखी जायेगी, मैं कर रहा हूँ।
परंतु क्या शिक्षा केवल विद्यालयीन शिक्षा होती है? क्या अपने स्वयं के घर परिवार, अपने माता-पिता, घर के ज्येष्ठ, अड़ोस-पड़ोस के वरिष्ठों के कथनी व करनी से उनको आचरण के प्रामाणिकता व भद्रता की, संस्कारों से युक्त मनुष्यता के व्यवहार, करुणा व सहसंवेदना की सीख नहीं मिलती? क्या समाज में चलने वाले उत्सव, पर्वों सहित सभी उपक्रमों, अभियानों, आंदोलनों से मन, वचन, कर्म के संस्कार उन्हें नहीं मिलते? क्या माध्यमों के द्वारा, विशेषकर अंतरताने पर चलने वाले सूचना प्रसारण के द्वारा उनके चिन्तन व व्यवहार पर परिणाम नहीं होता? ब्लू व्हेल खेल इसका ही उदाहरण है। इस खेल के कुचक्रों से अबोध बालकों को निकालने के लिये शीघ्र ही परिवार, समाज एवं शासन द्वारा प्रभावी कदम उठाने होंगे।
विजयादशमी उत्सव 2018 – 18 अक्तूबर 2018, नागपुर
देश की राजनीति, कार्यपालिका, न्यायपालिका, स्थानीय प्रशासन, संगठन, संस्थाएँ, विशेष व्यक्ति व जनता इन सबकी इसके बारे में एक व पक्की सहमति तथा समाज की आत्मीय एकात्मता की भावना ही देश में स्थिरता, विकास व सुरक्षा की गारण्टी है। यह संस्कार नई पीढ़ी को भी शैशवकाल से ही घर में, शिक्षा में तथा समाज के क्रियाकलापों में से प्राप्त होने चाहिए। घर से नई पीढ़ी में मनुष्य के मनुष्यत्व व सद्चारित्र्य की नींव रूप सुसंस्कारों का मिलना आज के समय में बहुत अधिक महत्त्व का हो गया है। समाज के वातावरण तथा शिक्षा के पाठ्यक्रमों में आजकल इन बातों का अभाव सा हो गया है।
शिक्षा की नयी नीति प्रत्यक्ष लागू होने की प्रतीक्षा में समय हाथ से निकलता जा रहा है। यद्यपि इन दोनों परिवर्तनों के लिए अनेक व्यक्ति व संगठनों के प्रयास शासकीय व सामाजिक ऐसे दोनों स्तरों पर बढ़ रहे हैं, तथापि हमारे हाथ में सर्वथा हमारा अपना घर व हमारा अपना परिवार तो है ही। उसमें हमारी स्वाभाविक आत्मीयता, पारिवारिक व सामाजिक दायित्व बोध, स्वविवेक का निर्माण आदि संस्कारों को अंकित करने वाला अनौपचारिक शुचितामय प्रसन्न वातावरण अपने उदाहरण सहित देते रहने का अपना नई पीढ़ी के प्रति दायित्व ठीक से निभा रहे हैं यह सजगता से देखने की आवश्यकता है।
बदला हुआ समय, उसमें बढ़ा हुआ प्रसार माध्यमों का व्यापक प्रसार व प्रभाव, नई तकनीकी के माध्यम से व्यक्ति को अधिक आत्मकेन्द्रित बनाने वाले तथा व्यक्ति के विवेकबुद्धि को समझे बिना विश्व की सारी सही-गलत सूचनाओं व ज्ञान को उससे साक्षात् कराने वाले साधन, इसमें बहुत सावधानी बरतने की आवश्यकता विश्व में सभी को प्रतीत हो रही है। ऐसे समय में परिवार की स्वपरंपरा के सुसंस्कार मिलते रहे। नई दुनिया में जो भद्र है उसे खुले मन से आत्मसात करते हुए भी अपने मूल्यबोध के आधार पर अभद्र से बचने-बचाने का नीर-क्षीर विवेक, उदाहरण व आत्मीयता से नयी पीढ़ी में भरना ही होगा।
देश में पारिवारिक क्लेश, ऋणग्रस्तता, निकट के ही व्यक्तियों द्वारा बलात्कार-व्यभिचार, आत्महत्यायें तथा जातीय संघर्ष व भेदभाव की घटनाओं के समाचार निश्चित ही पीड़ादायक व चिंताजनक है। इन समस्याओं का समाधान भी अंततोगत्वा स्नेह व आत्मीयपूर्ण पारिवारिक वातावरण एवं सामाजिक सद्भाव निर्माण करने में ही है। इस दृष्टि से समाज के सुधी वर्ग एवं प्रमुख प्रबुद्धजनों सहित संपूर्ण समाज को इस दिशा में कर्तव्यरत होना पड़ेगा।
विजयादशमी उत्सव 2019 – 25 अक्तूबर 2019, नागपुर
स्व का विचार कर सकने में हम लोग स्वतंत्रता के इतने दशकों बाद भी कम पड़ रहे, इसके मूल में, योजनापूर्वक हम को गुलाम बनाने वाली शिक्षा का, जो प्रवर्तन गुलामी के काल में भारत में किया गया तथा स्वतंत्रता के बाद भी अभी तक हमने उसको जारी रखा है, यह बात ही कारण है। हमको अपने शिक्षा की रचना भी भारतीय दृष्टि से करनी पड़ेगी। विश्व में शिक्षा क्षेत्र में उत्कृष्ट गिने जाने वाले देशों की शिक्षा पद्धतियों का हम अध्ययन करते हैं, तो वहां भी इसी प्रकार से स्व आधारित शिक्षा ही उन-उन देशों की शैक्षिक उन्नति का कारण है, यह स्पष्ट दिखाई देता है। स्वभाषा, स्वभूषा, स्वसंस्कृति का सम्यक् परिचय तथा उसके बारे में गौरव प्रदान करने वाली काल सुसंगत, तर्क शुद्ध सत्यनिष्ठा, कर्तव्य बोध तथा विश्व के प्रति आत्मीय दृष्टिकोण व जीवों के प्रति करुणा की भावना देने वाली शिक्षा पद्धति हमको चाहिए। पाठ्यक्रम से लेकर तो शिक्षकों के प्रशिक्षण तक सब बातों में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता लगती है। केवल ढांचागत परिवर्तनों से काम बनने वाला नहीं है।
शिक्षा में इन सब बातों के अभाव के साथ हमारे देश में परिवारों में होने वाला संस्कारों का क्षरण व सामाजिक जीवन में मूल्य निष्ठा विरहित आचरण यह समाज जीवन में दो बहुत बड़ी समस्याएं उत्पन्न करने के लिए कारण बनता है। जिस देश में यह मातृवत्परदारेषु की भावना थी, महिलाओं के सम्मान की रक्षा के लिए रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्यों का विषय बनने वाले भीषण संग्राम हुए, स्वयं की मान रक्षा हेतु जौहर जैसे बलिदान हुए, उस देश में आज हमारी माता-बहने न समाज में सुरक्षित न परिवार में सुरक्षित इस प्रकार की स्थिति का संकेत देने वाली घटनाएं घट रही है, यह हम सबको लज्जा का अनुभव करा देने वाली बात है। अपनी मातृशक्ति को हमको प्रबुद्ध, स्वावलंबनक्षम, स्वसंरक्षणक्षम बनाना ही होगा। महिलाओं को देखने की पुरुषों की दृष्टि में हमारे संस्कृति के पवित्रता व शालीनता के संस्कार भरने ही पड़ेंगे।
विजयादशमी उत्सव 2020 – 25 अक्तूबर 2020, नागपुर
शिक्षा संस्थान फिर से प्रारम्भ करना, शिक्षकों को वेतन देना, अपने पाल्यों को विद्यालय-महाविद्यालयों का शुल्क देते हुए फिर से पढ़ाई के लिए भेजना इस समय समस्या का रूप ले सकता है। कोरोना के कारण जिन विद्यालयों को शुल्क नहीं मिला, उन विद्यालयों के पास वेतन देने के लिए पैसा नहीं है। जिन अभिभावकों के काम बंद हो जाने के कारण बच्चों के विद्यालयों का शुल्क भरने के लिए धन नहीं है, वे लोग समस्या में पड़ गए हैं। इसलिए विद्यालयों का प्रारम्भ, शिक्षकों के वेतन तथा बच्चों की शिक्षा के लिए कुछ सेवा सहायता करनी पड़ेगी।
अर्थ, कृषि, श्रम, उद्योग तथा शिक्षा नीति में स्व को लाने की इच्छा रख कर कुछ आशा जगाने वाले कदम अवश्य उठाए गए हैं। व्यापक संवाद के आधार पर एक नई शिक्षा नीति घोषित हुई है। उसका संपूर्ण शिक्षा जगत से स्वागत हुआ है, हमने भी उसका स्वागत किया है।
(भारतीय शिक्षा दृष्टि – डॉ. मोहन भागवत, पुस्तक से साभार।)