‘वर्तमान परिदृश्य एवं हमारी भूमिका’ विषय पर प.पू. सरसंघचालक डॉ० मोहन भागवत जी का बौद्धिक वर्ग – 26 अप्रैल 2020

माननीय महानगर संघचालक जी, संघ के अधिकारीगण, आत्मीय स्वयंसेवक बंधु, सज्जनवृंद माता, भगिनी।

एक विशिष्ट परिस्थिति में आधुनिक तकनीकी का उपयोग करके पर्दे पर हमारी ये भेंट हो रही है। कोरोना की महामारी से आज सारी दुनिया जूझ रही है और उस बीमारी के साथ लड़ाई का एक अनिवार्य अंग है घर में बंद रहना। सारे काम-धाम बंद करके बैठे रहना। घर में बंद रहकर जितना हो सकता है उतना कार्य करना। हमारे संघ के बहुत से स्वयंसेवकों को लगता होगा कि हमारी शाखायें अभी मैदान पर लगना बंद हैं, कार्यक्रम बंद है। संघ शिक्षावर्ग बंद हैं। जैसे लॉकडाउन में जीवन चल रहा है, वैसे ही संघ का कार्य भी चल रहा है। नित्य के कार्यक्रम बंद हैं, दूसरे कार्यक्रमों ने उसकी जगह ले ली है। यह संघ के लिये भी और हम सबके व्यक्तिगत जीवन के लिये भी सत्य हैं।

मनुष्य जीवन की कल्पना क्या है? सारी दुनिया मानती है और संघ में हम लोग भी यही मानते हैं कि “हम स्वयं अच्छे बनें और अपनी अच्छाई का उपयोग करके जग को अच्छा बनायें”। जो व्यक्ति स्वयं अच्छा हैं और दुनिया के लिये कुछ नहीं करता, उसको अच्छा नहीं कहते। दुनिया के लिये गलती से अच्छा कर भी दिया लेकिन स्वयं के जीवन में अच्छाई का अंश नहीं, उसको भी दुनिया अच्छा नहीं कहती। जीवन के अथवा संघ कार्य के, ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

हमारी परम्परा में ऐसा कहा जाता है कि “एकान्त में आत्म साधना और लोकान्त में परोपकार”। यही जीवन का स्वरूप है और यही संघ कार्य का स्वरूप है। अपने स्वयंसेवक रोज प्रार्थना कर रहे हैं। मैदान में एकत्र आकर नहीं कर रहे, अपने घर में अपने परिवार के साथ कर रहे हैं। लेकिन प्रार्थना करने का उनका समय निश्चित है। अनेक स्वयंसेवक प्रतिदिन अपनी प्रतिज्ञा का भी स्मरण करते होंगे। नित्य शाखा के कार्यक्रमों में अभी जितना करना संभव है, उतना कर रहे हैं। बाकी कार्यक्रमों का स्वरूप बदल गया है। आज सेवा का कार्य मुख्य है। प्रचंड प्रमाण में जो सेवा चल रही है, उसको सब लोग देख रहे हैं और सारा समाज हमको प्रोत्साहन भी दे रहा है। परन्तु हमें ध्यान रखना चाहिए और यह नहीं मानना चाहिए कि यही अपना कार्य है। केवल कार्यक्रम करते रहना अपना कार्य नहीं है। बल्कि अपना कार्य, इन कार्यक्रमों से स्वयं अच्छा बनना और दुनिया को अपने प्रयास से अच्छा बनाना है।

चीन देश में भारत से एक भिक्षु गए, तथागत के धम्म का प्रचार करने के लिए। कुछ वर्षों के बाद काम करके उनको ऐसा लगा कि चीनी भाषा में तथागत का चरित्र लिखा जाए, वहां की जनता के लाभ के लिये। चरित्र लिख कर तो तैयार हो गया लेकिन उसको छापना है। इसके लिए वे वहां अपने सम्पर्क के लोगों से मिले, उनसे धन इकट्ठा किया। उन्हें बताया कि इस धन से तथागत का चरित्र छापेंगे। पर्याप्त धन इकट्ठा होने के बाद हस्तलिपि को छापेखाने में देने की तैयारी हो गई। लेकिन उसी रात बड़ा भूचाल आ गया और बहुत से देहात एवं शहर तहस-नहस हो गये। तुरंत सेवा कार्य में सब लोग लग गये।

पुस्तक के लिये जो धन एकत्र हुआ था उसका स्वाभाविक उपयोग लोगों की राहत के लिये हो गया। राहत कार्य में वह धन समाप्त हो गया। सारा राहत कार्य पूरा होने के बाद फिर से भिक्षू ने सबको बताया कि आपने जो धन दिया था वह सब राहत कार्य में खर्च हो गया। एक बार फिर धन संकलन हुआ, जब पुन: पुस्तक को छपने के लिए जाना था तो उसके कुछ दिन पहले एक बड़ी बाढ़ आ गई। राहत कार्य करना पड़ा। सारा संकलित धन उसमें व्यय हो गया। फिर लोगों को समझाया गया, लोग भी समझ गये। तीसरी बार धन संकलन हुआ। इस बार कोई आपत्ति नहीं आई। हस्तलिपि छापेखाने में गई। मुद्रित हो पुस्तक तैयार हुई। पुस्तक का धूमधाम से प्रकाशन हुआ।

लोगों ने उस पुस्तक को बड़ी श्रद्धा से खरीदा और पढ़ने के लिये अपने-अपने घर में जब लोगों ने उसको खोला तो पहले पन्ने पर लिखा था कि यह चीनी भाषा में तथागत की जीवनी की तीसरी आवृत्ति है। अर्थात् लिखित चरित्र एक स्वरूप है, परन्तु उस चरित्र का जो संदेश है, दुनिया की दुःख से मुक्ति, उसे आचरण में दो बार करके दिखाया गया। इसलिए वे भी पुस्तक की ही आवृत्ति थीं। ऐसे ही हम आज जो कर रहे हैं वह भी कार्यक्रम बदलकर संघ का ही कार्य कर रहे हैं। यह भावना मन में रही तो स्वाभाविक केवल संघ के लोगों के लिये ही नहीं अपितु सभी के लिये कुछ बातें स्पष्ट हो जाएँगी।

एक तो हम यह सेवा क्यों कर रहे हैं? उसकी प्रेरणा हमारी स्वार्थ की नहीं है। हमें अपने अहंकार की तृप्ति और अपनी कीर्ति-प्रसिद्धि के लिये ये सेवा-कार्य नहीं करना है। जो लोग सहयोगी बनना चाहते हैं उनको समुचित जानकारी हो इसलिये कुछ प्रसिद्धि भी करनी पड़ती है। अपने कार्य की रचना में हम सबको सविस्तार वृत्त ठीक-ठीक पता चले, इसलिये उसको प्रकाशित करना पड़ता है। लोगों को प्रेरणा मिले इसलिये भी ऐसे कार्य में आने वाले अनुभवों का लेखन-प्रकाशन करना पड़ता है। परन्तु अपना डंका बजाने के लिये हम ये काम नहीं कर रहे हैं। यह अपना समाज है, अपना देश है, इसलिए हम कार्य कर रहे हैं।

स्वार्थ, भय, मजबूरी, प्रतिक्रिया या अहंकार, इन सब बातों से रहित आत्मीय वृत्ति का परिणाम है ये सेवा। और इसलिये इस सेवा में हम लोगों को निरंतर लगे रहना है। निरहंकार वृत्ति से लगना है तथा श्रेय दूसरों को देना है। अभी ये जो विशिष्ट आपत्ति चल रही है उसमें जो सेवा करनी है उसमें साथ ही लोगों का प्रबोधन भी करना पड़ता है। कई बातें बतानी पड़ती हैं। बताने का परिणाम तभी होता है जब हम उसका पालन स्वयं करते हैं। इसलिये कोराना की महामारी के समय में अपने स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने के जो-जो नियम विदित हैं, अन्य लोगों को उन्हें बताने से पहले, हमें स्वयं उनका पालन करना है। नियमों का पालन करते हुये हमको काम करना है। घर के बाहर निकलना पड़ेगा, लेकिन नियम बनाये हैं कि उसके लिये अनुमति चाहिए। लॉकडाउन है तो अनुमति मिलने के बाद ही काम करना है। फिजिकल डिस्टेंस रखना है, परस्पर अंतर रखना है। अंतर रखकर ही काम करना पड़ेगा। छोटी-छोटी बातों के लिए भी सहज रहकर स्वयं उसके पालन का उदाहरण बनकर हमको शेष लोगों को बताना है और यह हम कर सकते हैं।

महामारी नये प्रकार की है, उसने कहर मचाया है लेकिन उससे डर जाने की आवश्यकता नहीं है। डरने से काम नहीं होता है। डरने से संकट का बल ज्यादा बढ़ता है। अपना संतुलन कायम रखते हुये मन में भय का लवलेश न रखते हुये ठंडे दिमाग से कौन-कौन से उपाय करने हैं, कैसे इनको करना पड़ेगा, क्या-क्या करना पड़ेगा, इसकी योजना बनाकर हम काम करते हैं तो अपना काम यशस्वी होता है। आत्मविश्वास युक्त ऐसा अपना सुनियोजित प्रयास करना है। भय से रहित होकर सातत्यपूर्वक प्रयास करना है। यह बीमारी नयी है,  इसमें निश्चित क्या-क्या हो सकता है, इसके अनुमान लगते हैं। जैसे-जैसे अनुभव आता है, वैसे-वैसे ही यह स्पष्ट होगा। इसलिये अब ये कितना चलेगा, ये पता नहीं, लेकिन जल्दी से जल्दी समाप्त हो ये पूरा प्रयास सबका है। लेकिन जितने दिन चलेगा, उतने दिन पीड़ित लोगों को राहत देने के और यह बीमारी न फैले, उसके प्रयास जारी रखने पड़ेंगे। बीच में ही छोड़ दिया तो यशस्वी नहीं होंगे।

एक आदमी सब तरफ से कंगाल हो गया, निराश हो गया। उसने सोचा कि अब हम आत्महत्या करेंगे। लेकिन उसकी जेब में कुछ पैसा शेष था। कुछ दिन जीने के लिए आवश्यक सामान उसके पास था। उसने सोचा कि इस धन को भी खर्च कर देते हैं और बिल्कुल ही कंगाल होकर मर जायेंगे। यह सोच कर वो एक बड़े शहर में गया कि वहाँ पर जुआ खेलेंगे और ये सारा धन उड़ा देंगे और फिर बाद में मर जायेंगे। लेकिन वहाँ जाकर उसको पता चला कि उस शहर के पास एक बहुत लम्बी चौड़ी जमीन थी। उस भूमि में मैगनीज मिलेगा इस संभावना से एक बड़ी माइनिंग कम्पनी ने वहाँ आकर खुदाई की। वे 250 फीट नीचे गये लेकिन मैगनीज नहीं मिला तो वे निराश हो गये। इसलिये वे उस भूमि की नीलामी करने वाले थे। उसको लगा कि यह भी एक जुआ है। चलो जाकर बोली लगायेंगे। अब इतना धन तो उसकी जेब में नहीं था कि इतनी बड़ी जमीन खरीद सके। लेकिन वह केवल एक बड़ी जमीन नहीं थी अपितु वहाँ 250 फीट का गहरा गड्ढा बन गया था। उसको कौन खरीदेगा? उस नीलामी में अन्य कोई आया ही नहीं। यही अकेला पहुँचा। इसकी जेब में जितने पैसे थे उतने में ही उसको वह जमीन मिल गई।

अब जो मजदूर वहाँ पर काम कर रहे थे उनको उस दिन की मजदूरी कंपनी ने पहले ही दे दी थी। उन्होंने आकर पूछा कि अभी क्या करें, काम बंद कर दें या सायं पांच बजे तक कार्य करें। उसने कहा कि आप लोगों ने पैसे लिये हुए हैं तो पाँच बजे तक काम करो। उन्होंने पाँच बजे तक खुदाई की। तीन फीट और खोदा उसमें से जो नमूने मिले, उसमें मैगनीज मिल गया। कंगाल बना हुआ वह आदमी मैगनीज की खदानों का मालिक बन गया। बाद में वह एक रेलवे कम्पनी का मालिक भी बना। फिर से उसका जीवन समृद्ध बन गया। उसने लेख लिखा। रीडर्स डायजेस्ट में वह लेख मैंने पढ़ा था। कहानी अमेरिका की है, उसका शीर्षक था “डिफरेंस विटवीन द सक्सेस एंड फैलियर इज थ्री फीट”। तीन फीट के अंतर के लिये अपना सातत्य खदान मालिकों ने छोड़ दिया तो वे वंचित रह गये और तीन फीट अधिक खोदने का दम इसने दिखाया तो इसको वैभव मिल गया। ऐसा सातत्य अपने प्रयासों में चलना चाहिये, ऊबना नहीं चाहिये, थकना नहीं चाहिये, करते रहना चाहिये।

सबके लिये काम करना है और उनमें कोई भेद नहीं करना है। जो-जो पीड़ित हैं वो सब हमारे अपने हैं। भारत ने जिन दवाईयों के निर्यात पर प्रतिबन्ध लगाया हुआ था, दुनिया के हित के लिए उस प्रतिबंध को हटाकर और स्वयं थोडा नुकसान सह कर भी हमने दूसरे देशों को दवाइयाँ भेजी हैं। जो माँगेंगे, उनको देंगें क्योंकि यह हमारा स्वभाव है। हम मनुष्यों में भेद नहीं करते और ऐसे प्रसंगों में तो बिल्कुल नहीं करते। सब अपने हैं। जो-जो पीड़ित हैं और जिस-जिस को आवश्यकता है उन सबकी सेवा हम करेंगे। जितनी अपनी शक्ति है उतनी सेवा करेंगे। और ये सेवा करते समय कोई स्पर्धा तो है नहीं। अपनी कीर्ति दुनिया में फहराने के लिये हम काम नहीं कर रहे हैं। यह ध्यान में रखकर जो इस काम में लगे हुए हैं उन सबको साथ लेकर और उन सबके साथ मिलकर काम करना है। सामूहिकता से काम करना है। इस प्रकार से हम सेवा करेंगे तथा लोगों को जो बताना है वो बतायेंगे, लोगों से जो करवाना है वो करवायेंगे।

अपने कार्य का आधार है – अपनत्व की भावना। स्नेह और प्रेम अपने व्यवहार में दिखना चाहिये। काम अच्छा होना चाहिये। सेवा का काम किसी पर उपकार तो नहीं है। हम अपने लोगों का काम कर रहे हैं  इसलिये वह उत्तम होना चाहिये तथा प्रेमपूर्वक होना चाहिए। हनुमान जी के चरित्र के बारे में, वाल्मीकि रामायण में एक प्रसंग पर देवों ने उनकी स्तुति की। उसमें उनके चार विशिष्ट गुणों का उल्लेख किया – धृति, दृष्टि, मति और दाक्ष्य (रक्षण/सावधानी)।

हम जो काम करेंगे उसमें सावधानी आवश्यक है। हम काम करते रहें और काम करते-करते बीमार न हो जायें, इसलिये आयुष मंत्रालय के द्वारा बताया गया एक काढ़ा है उसका हम सेवन करें। कार्य करते हुए मास्क लगाना, अंतर रखना, हाथ धोना, स्वच्छता रखना, इस सबका पालन करें। हम स्वयं चिंता करें कि हम काम करने लायक रहें। अपनी मदद की जिनको वास्तविक आवश्यकता है उन तक पहुँचे। दुनिया में धूर्त लोग भी रहते हैं, वो हमारी मदद लेकर न चलें जाएँ। इसलिये बहुत सावधानीपूर्वक सजगता से काम करना पड़ेगा। जिनको आवश्यकता है उन सबके पास मदद पहुँचे, कोई छूट न जाये इस प्रकार से हमको काम करना पड़ेगा।

बुद्धि ठीक रखनी पड़ेगी। किसको किस बात की आवश्यकता है सामान्य सूचनायें सबके लिये दी जाती हैं। लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियां भी रहती हैं, उसमें उस प्रकार की छूट मिले ऐसा प्रयत्न करना पड़ता है। इसलिये लीक में चलते हुये भी, लीक के बारे में विचार कर चलना पड़ता है। अनुशासन में चलते हुये भी अनुशासन इतना लचीला होना पड़ता है कि अपने सेवा के दायरे में सेवा के लाभ लेने वालों में जिनको भी आवश्यकता है वे सब लोग आ जाएँ।

फिर दृष्टि की बात है। हम सब बातें बतायेंगे और साथ ही करवायेंगे भी ताकि लोगों की आदतें ठीक रहें। आदतें ठीक न रखने के कारण भी ये बीमारियां आती हैं, यह अनुभव लोग ले रहे हैं। अब उनकी मनोभूमिका तैयार है। हमने अच्छाई का प्रचार-प्रसार भी लगे हाथ करते रहना चाहिये। ये केवल कार्यक्रम नहीं है इस प्रकार हम लोगों के जीवन को सुरक्षित कर रहे हैं और उनके जीवन को गढ़ भी रहे हैं। अपने पवित्र समाज का संरक्षण और सर्वांगीण उन्नति ये हमारी प्रतिज्ञा है। इसलिए उस दृष्टि को ध्यान में रखकर हमको धैर्यपूर्वक काम करना है। कितने दिन अभी और काम करना होगा, ऐसा सोच करके कार्य नहीं होगा। जब तक काम पूरा नहीं होता तब तक सतत करते रहना है। ऐसा करते रहना और ऐसा करते हुए हनुमान जी के गुणों का स्मरण भी करते रहना है।

विदुर नीति में एक बात बताई गई है, दोषों को टालने की –

षड् दोषा: पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छिता।

निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता।।

जिस पुरुष को अपना वैभव चाहिये अपनी विजय व अपना प्रभाव चाहिए, अपनी खुशहाली चाहिये उसको इन छ: दोषों का हनन करना पड़ता है, इन दोषों से दूर रहना पड़ता है। ये छ: गुण कौन से हैं – निद्रा, तंद्रा, भय, क्रोध, आलस्य, दीर्घसूत्रता।

आलस्य और दीर्घसूत्रता जीवन में नहीं चाहिए। तत्परता चाहिये। भारत का इस सारी बीमारी के दौर में कार्य जो अभी तक बहुत अच्छा हो रहा है, उसका पहला कारण है कि यहाँ के शासन-प्रशासन ने तत्परतापूर्वक सारी उपाय-योजनायें लागू कीं और उतनी ही तत्परतापूर्वक समाज के एक बहुत बड़े अंश ने उसको स्वभाव में लाया। आलस्य नहीं किया। दीर्घसूत्रता नहीं दिखाई। इसको ध्यान में रखना चाहिये। यह अपनी तत्परता हमें कायम रखनी होगी।

निद्रा-तंद्रा यानी असावधानी। काम करते-करते धुन लग जाती है उसको तंद्रा कहते हैं। धुन लगना अच्छा है लेकिन तंद्रा अच्छी नहीं है, उसमें विचार नष्ट होता है। सोच समझकर सजग रहकर एक-एक कदम डालते हुये काम करना है। भय और क्रोध को टालना। लोगों को भय लगता है कि हमको क्वारंटाइन में डाल देंगे। छुपने का प्रयास करते हैं। लोगों को कुछ नियमों में बाँध दिया तो लोगों की ऐसी भावना होती है कि हम पर किसी भी तरह के प्रतिबंध न रहें। संघ ने मार्च में ही तय करके जून अंत तक के अपने सारे कार्यक्रम बंद कर दिये। लेकिन किसी-किसी को लग भी सकता है कि सरकार हमारे कार्यक्रमों को प्रतिबंधित कर रही है। भड़काने वाले लोगों की कमी नहीं है। उसके कारण क्रोध पैदा होता है। क्रोध के कारण अविवेक होता है। फिर अतिवादी कृत्य होते हैं। हम जानते हैं कि इसका लाभ लेने वाली ताकते हैं और वो प्रयासरत हैं। कोरोना की इस बीमारी का फैलाव अपने देश में जिस प्रकार से हुआ है, उसमें एक कारण यह भी है।

दो बातें सदैव ध्यान में रखनी चाहिये। सभी प्रतिबंधों का पालन सकारात्मक भाव से करना, इन पर क्रोध नहीं करना, इनसे मन में डर नहीं रखना। दूसरा अगर किसी ने भयवश या क्रोधवश कुछ उल्टा-सीधा कर भी दिया तो उस वर्ग के सारे समूह को एक ही माप में लपेटकर उससे दूरी बनाना ये भी ठीक नहीं है। सर्वत्र दोष रखने वाले लोग होते हैं। सामान्य लोगों के मन में कुछ आ सकता है। सभी लोगों ने यह सावधानी रखनी होगी कि यह अपने देश एवं देश हित का विषय है और इसमें हमारी भूमिका सहयोग की ही होगी, कभी भी विरोध की नहीं होगी। मन में किंतु-परंतु है, उसका लाभ लेकर द्वेष व क्रोध को भड़काने वाले लोग हैं। उनके खेल चल रहे हैं। स्वार्थ के कारण ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ ऐसे कुविचार रखने के कारण बहुत सारे लोग ऐसा प्रयास करते हैं। राजनीति भी बीच में आ जाती है। ये जिनको करना है व जिनका इसी से चलता है, वे चलायेंगे परंतु हमें इससे बचना। ये लोग हमारा कुछ बिगाड़ न सकें इतनी सावधानी और इतना बल सजग जागृत रखना। लेकिन हमारे मन में इसके कारण प्रतिक्रियावश कोई खुन्नस या कोई दुश्मनी नहीं होनी चाहिये।

भारत का 130 करोड़ का समाज भारत माता का पुत्र है, अपना बंधु है। इस बात को ध्यान में रखना चाहिये। भय और क्रोध दोनों तरफ से नहीं करना चाहिये। जो-जो अपने समूह के समझदार लोग हैं, उन्हें अपने-अपने समूह के लोगों को इससे बचाना चाहिये और भय या क्रोधवश होने वाले ऐसे कृत्यों में हम लोगों को शामिल नहीं रहना चाहिये, यह अपने-अपने समाज को सिखाना भी चाहिये। अगर ऐसा नहीं करते तो क्या होता है?

भारत के समाज के अत्याधिक वंदनीय ऐसे दो संन्यासियों की हत्या, यहाँ महाराष्ट्र में हुई। अब उसको लेकर बयानबाजी चलती है, उसको एक बाजू में रख दिया जाए। परन्तु क्या यह कृत्य होना चाहिये? क्या कानून व्यवस्था को हाथ में लेना चाहिये? ऐसा जब होता है तो पुलिस ने क्या करना चाहिये? इन सब बातों के बारे में सोचना होगा। ऐसे संकट की घड़ी में मन में कुछ किंतु-परन्तु रहते हैं, रह भी सकते हैं। वे अपेक्षित नहीं हैं लेकिन स्वाभाविक ही आते हैं। परंतु उनकी चपेट में न आकर हम लोगों को सभी भेद और स्वार्थ की प्रवृत्तियों को अलग रखकर, उनसे बचते हुये, उनको उभरने न देते हुए, देश हित में सकारात्मक व्यवहार करते हुए ही आगे बढ़ना चाहिये।

भय और क्रोध, ये दो दोष हैं, उनको टालना चाहिये। पूज्य संन्यासियों की हत्या हुई। उन्हें पीट-पीटकर मारा गया। ये संत निरुपद्रवी  लोग थे। सन्यासियों ने किसी का कोई अपराध किया नहीं था। वे तो धर्म का आचरण करने वाले और धर्म का आचरण फैलाने वाले थे। मानव पर उपकार करने वाले ये लोग थे। उनकी हत्या का दु:ख सबके मन में है। 28 तारीख को उनको श्रंद्धाजलि देने के लिये हिन्दू धर्म आचार्य सभा ने आह्वान भी किया है और विश्व हिंदू परिषद ने इसके लिए कुछ कार्यक्रम भी दिया है, उसका हम सब लोग पालन करेंगे। उनकी स्मृति में श्रद्धांजलि व्यक्त करता हुआ मैं इस विषय में आगे बढ़ता हूँ।

धैर्य रखकर सारी बातें करनी चाहिये। जैसे ही यह बीमारी जायेगी तब लॉकडाउन की आवश्यकता नहीं रहेगी। लेकिन जो अस्त-व्यस्त हो गया, उसको ठीक करने में समय लगेगा। हमने देखा है कि कहीं-कहीं ऐसा हुआ भी है कि थोड़े से बंधन छोड़ने पर भीड़ हो गयी, फिर उनको तितर-बितर करना पड़ा। ये अविवेक हो सकता है समाज में। सामान्य व्यक्ति को ऐसे समय में दिशा देने वाले लोगों की आवश्यकता रहती है। अब विद्यालय खुलेंगे तो कई दिन तक फिजिकल डिस्टेंस बना कर रखना पड़ेगा। उसकी व्यवस्था कैसे होगी? यह बताना भी पड़ेगा और समाज के लोगों को इकट्ठा करके यह सोचना भी पडेगा। विद्यालय के परिसर में छोटी-छोटी संख्या में कक्षायें लग सकती हैं क्या अथवा क्या ई-क्लासेस लगा सकते हैं। विद्यालय की शिक्षा भी शुरू करनी होगी और ये डिस्टेंस बनाकर भी रखना होगा। बाजार शुरू होंगे लेकिन लोग इस अंतर को कायम रखने के नियम का पालन करेंगे। फैक्टरियां शुरू होंगी परंतु तब भी भीड़ नहीं होगी। अंतर रखकर अनुशासन से लोग चलेंगे। इसके लिये चिंता करने की आवश्यकता है। यानी राहत पहुंचाने का काम शायद कम हो सकता है। परन्तु फिर से ये बीमारी न आये, लोग उतावले न हो, इसके लिये समाज को दिशा देने का काम हम लोगों को करते रहना पड़ेगा।

अगर ये सारे काम होने हैं तो समाज में सद्भाव, सदाचार, सहयोग का वातावरण बनना चाहिये। समाज के सारे गणमान्य लोगों को एकत्र कर उनके द्वारा ये बात करवानी पड़ेगी। समाज में संवाद करना पड़ेगा। अनुशासन पालन के बारे में स्वयं का उदाहरण और उपदेश उन लोगों को करना होगा। समाज में सामान्य लोगों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़े, इसके लिए भी सुझाव देने पड़ेंगे। इसके लिए आयुर्वेदिक उपाय हैं, योग है, व्यायाम हैं, प्राणायाम है। अनेक उपाय स्वास्थ्य मंत्रालय भी बता रहा है और स्थान-स्थान पर चिकित्सक भी बता रहे हैं। लेकिन उनका नित्य नियमित आचरण करने का एक क्रम कुटुम्ब में चलना चाहिये। कुटुम्ब में संस्कार का वातावरण होना चाहिये। शांत दिमाग से किसी भी भय या आतंक की चपेट में न आते हुये जो करना है वह कर्तव्य ठीक से करना। इस तरह का स्वभाव बनाने के लिये भी कुटुम्ब में उसी तरह के संस्कार का वातावरण बनना चाहिये। इसके लिए हमको प्रयास करने पड़ेंगे और प्रयास में वही क्रम रहेगा। हमको उदाहरण बनना पड़ेगा। हमको समुपदेशन करना पड़ेगा। उसके बाद अपनी सेवा से सबको जोड़ना और फिर सबका सहयोग जुटाना पड़ेगा।

सारी दुनिया में एक साथ, इस प्रकार की ये बीमारी पहली बार आई है। शायद पिछले कुछ शतकों के इतिहास में विश्व पहली बार ऐसे संकट का सामना कर रहा है। इस संकट से हम लड़ भी रहे हैं लेकिन साथ ही यह संकट हमें कुछ सिखा भी रहा है। जैसे प्रधानमंत्री जी ने ही पिछले दिनों सरपंचों को कहा कि यह संकट हमको स्वावलंबन की सीख दे रहा है। ये संकट जाएगा तो जो अस्त-व्यस्त हो गया उसको यथावकाश हम ठीक कर लेंगे। लेकिन इस संकट के अनुभवों से कुछ सत्य फिर एक बार उजागर होकर हमारे सामने आयें हैं। उनसे पाठ-बोध लेकर अपने जीवन की रचना को उसके अनुसार परिवर्तित करने का एक बड़ा काम है। यह एक तरह से राष्ट्र पुनर्निर्माण का जो कार्य है उसका अगला चरण, उसको परिणाम में लाना पड़ेगा। बहुत से लोग शहरों से चले गये अपने-अपने गाँव में, क्या वे सब वापस आयेंगे? जो गाँव में रह जायेंगे, उनके रोजगार की क्या व्यवस्था होगी? जो वापस अपने काम पर आयेंगे क्या उन सबको काम देने की उद्योगों की या उनके मालिकों की स्थिति होगी! क्योंकि उनके भी सारे काम ठप्प पड़े हैं। ऐसी अवस्था में उनका रोजगार भी कायम रहे और उस समय के सीमित साधनों में सब चल सके इसके लिये सबको कुछ न कुछ छोड़ना पड़ेगा। उसके लिये मन की तैयारी करनी पड़ेगी। समझदारी बरतनी पड़ेगी। उसका भी उपदेश करना पडेगा। सबको समझाना भी पड़ेगा।

और अगर स्वावलंबन इस आपत्ति का संदेश है तो स्वावलंबन में अपना ‘स्व’ क्या है? उस स्व आधारित तंत्र का अवलम्बन हमको करना पड़ेगा। कम उर्जा खाने वाला, रोजगारमूलक, पर्यावरण को न बिगाड़ने वाला, ऐसा विचार हमारे ही पास है। उसके आधार पर एक युगानुकूल रचना अपनी अर्थ नीति की, अपनी विकास नीति की, अपनी तांत्रिकी की, हमको करनी पड़ेगी। आधुनिक विज्ञान के आधार पर, परंपरा के आधार पर जो आज सुसंदर्भित है, इस संकट के कारण फिर से हमको एक बार याद आ रहा है। उन दोनों को मिलाते हुये हमको एक नये विकास के मॉडल का निर्माण करना पड़ेगा। हमको करना पड़ेगा यानी कौन करेगा? शासन को विचार करना पड़ेगा। प्रशासन को विचार करना पड़ेगा। मात्र इन दोनों के करने से कुछ नहीं होता। समाज को भी इसमें कुछ करना होता है।

समाज को ‘स्व’ का अवलम्बन करना पड़ेगा। यहां की बनी हुई वस्तुयें, जहाँ तक संभव है, उन्हीं का उपयोग करेंगे। यहाँ जो बनता नहीं, उसके बिना जीवन चलता है, तो जीवन चलायेंगे। जीवन के लिये आवश्यक है तो अपनी शर्तों पर बाहर से लेंगे। कम से कम उपयोग पर जीवन चलायेंगे। ऐसी बहुत सी बातें अपने नित्य व्यवहार में लानी पड़ेगी। अपने-अपने व्यक्तिगत और परिवार के व्यवहार में हम लोगों को स्वदेशी का आचरण करना पड़ेगा। स्वदेशी का आचरण करने के लिये स्वदेशी के उत्पादन उपलब्ध करने पड़ेंगे। स्वदेशी के उत्पादन उत्कृष्टता के मामले में बिल्कुल उन्नीस ना हो, ऐसी गुणवत्ता उत्पन्न करनी पड़ेगी। उद्योजक, निर्माता, कारीगर सभी को इसके बारे में सोचना पड़ेगा और समाज को स्वदेशी पर दृढ़ होना पड़ेगा। विदेशों के ऊपर अवलम्बन नहीं होना चाहिये। ऐसा हमको सामर्थ्य बनाना पड़ेगा।

उसी प्रकार का एक और अनुभव हम सब ने किया है। जिन्होंने प्रत्यक्ष नदियों को देखा है वे बताते हैं और हवा का तो हम सब लोग स्वयं अनुभव कर रहे हैं कि पर्यावरण बहुत मात्रा में शुद्ध हो गया है। यह शुद्ध क्यों हो गया, क्योंकि कुछ क्रियाकलाप बंद हुए जो पर्यावरण को दूषित करते थे। अब फिर से हम अपना जीवन नियमित करेंगे तो कौन कौन से ऐसे क्रियाकलाप हम कम से कम कर सकते हैं या बिना उनके काम नहीं चल सकता है, इसका विचार हमको करना पड़ेगा। पानी का उपयोग ठीक से करते हुए उसका संवर्धन-संरक्षण, वृक्षों का संवर्धन-संरक्षण और प्लास्टिक से मुक्ति, स्वच्छता का पालन। परंपरागत पद्धतियों पर बल देकर गौपालन, जैविक खेती आदि के आधार पर अपना जीवन चलाने का हमको अभ्यास करना पडे़गा। अभी जो हमारा अभ्यास रासायनिक खेती का है उसको बदलना पड़ेगा। उसके लिये सारे समाज का मन बनाना पड़ेगा। शासन की नीति वैसी बनेगी। लेकिन जब तक समाज उस प्रकार चलता नहीं, तब तक उसका परिणाम नहीं होता। कुटुम्ब में भी हमको इसी प्रकार के संस्कार करने पड़ेंगे।

बहुत दिनों के बाद जो भागदौड़ चल रही थी, वह बंद हो गई तो अपने घर में रहने का, सतत रहने का अनुभव बहुत लोगों को मिला। परिवार को भी अच्छा लगा और हमको भी अच्छा लगा। इसके बहुत अच्छे परिणाम होते हैं। संवाद बढ़ते हैं, समझदारी बढ़ती है। सामंजस्य बढ़ता है। कुटुम्ब में उपरोक्त सारे विषयों की चर्चा और उसके आधार पर व्यवहार कैसा हो, ऐसा संवाद चलना चाहिए । जैसा अपना कुटुम्ब है, वैसे ही समाज के भी कुटुम्ब हैं। समाज के विचार करने वाले लोगों में तथा समाज का नेतृत्व करने वाले लोगों में, इस प्रकार की चर्चाओं का चलना तथा संस्कारों और नियमितता का व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन में प्रभाव होना, इसके लिए चिंता और प्रयास हमको करने पड़ेंगे।

नागरिक अनुशासन के पालन में हम सबको तत्पर होना पड़ेगा। जहाँ-जहाँ उस अनुशासन का पालन लोग कर रहे हैं वहाँ कोरोना का उपद्रव कम है। देश के कुछ भूभाग, जहाँ इस अनुशासन की आदत न होने के कारण गड़बड़ हो रही है, वे अभी भी कोरोना की चपेट में हैं। इसलिये उस अनुशासन का पालन करना हमारा स्वभाव बनना चाहिए। भगिनी निवेदिता ने भी कहा है कि देशभक्ति का स्वतंत्र देश में स्वरुप है कि समाज में इतनी समझदारी हो कि “नागरिक अनुशासन का स्वयं होकर सारे नागरिक पालन करें”। डॉ आम्बेडकर साहब ने भी संविधान निर्माण करते समय जो भाषण संविधान सभा में दिये थे उनमें भी कानून व्यवस्था नियम आदि का पालन करने पर बहुत जोर दिया था। हमको अपनी इस आदत को और पक्का और धार वाला करना पड़ेगा। उसी प्रकार समाज में सद्भाव का वातावरण, सहयोग का वातावरण, शांति का वातावरण बनाना पड़ेगा। शासन तो संस्कारमूलक शिक्षा नीति जल्दी लायेगा और उनको लानी पड़ेगी।

उपरोक्त सारे काम शासन एवं प्रशासन की योग्य नीति तथा उनके द्वारा समाज को अपना मान कर इन नीतियों को क्रियान्वित करने का स्वभाव और समाज का अपने आचरण से सहयोग इन तीनों बातों के एकत्र आने के बाद ही संभव होता है। शासन जैसे जैसे अपने प्रशासन को समाजोन्मुख करेगा, राजनीतिक लोग अपनी राजनीति को स्वार्थमूलक से हटाकर देशहित मूलक बनायेंगे, शिक्षा समाज को संस्कार देने वाली बनेगी तथा हम सब लोगों का आचरण- व्यवहार भी तदनुरुप होना पड़ेगा। भविष्य के लिये भी यह संकट बहुत कुछ बता कर जा रहा है। उसका विचार करते हुए, हमको अपने जीवन के इस नये मानस का विचार करते हुये उसको आचरण में लाना पड़ेगा।

हम सब लोग मिलकर, आत्मविश्वास के साथ, अपने देश और अपने समाज के प्रति अपनत्व को मन में रखते हुए, अपने देश को इस वर्तमान संकट से बाहर निकालकर सारे विश्व की मानवता का नेतृत्व करने वाला देश बनाने के लिये निश्चयपूर्वक प्रयत्नों एवं परिश्रमों का सातत्य अपने करसूत्रों में रखकर फिर एक बार सक्रिय हों, यह आज की आवश्यकता है।  विश्व में और अपने देश में आज हमारी भूमिका यही है कि इस संकट को अवसर बनाकर हम एक नये भारत का उत्थान करें। और इसके लिए हम सब अपनी अपनी भूमिका निभायें। मेरे विचार में जो बातें मुझे आवश्यक लगती थीं वह मैंने आपके सामने रख दी हैं। संघ के सारे स्वयंसेवक ऐसा सोचते हैं और ऐसा करेंगे ही परन्तु सम्पूर्ण समाज को भी ऐसा होने की आवश्यकता है। इतना अनुरोध आप सबके सम्मुख रख मैं अपना यह निवेदन पूर्ण करता हूँ।

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