अहिल्याबाई होलकर – पुण्यश्लोक से पूर्णकाम देवी तक

 ✍ शिरोमणि दुबे

कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं जिन्हें हदों-दायरों में समेटना सम्भव नही होता। कुछ ऐसे महामानव होते हैं जिनके जीवन का एक-एक पन्ना, जीवन का एक-एक अध्याय इतना प्रेरक होता है कि आने वाली पीढ़ियों को उससे सीख मिलती है। अनेक ऐसी जीवंत प्रतिमाएं होती हैं जिनकी चमक आज तक मैली नहीं हो सकी। संसार में अनेक विरलतम वीरांगनाओं ने जन्म लिया जिन्हें जीवन की दुश्वारियाँ कभी सेवापथ से डिगा नहीं सकीं। एक ऐसी देवी जिसकी जिंदगी में दर्द की अनगिनत दास्तानें हैं परंतु इसके बाद भी उनकी प्रजा-वत्सलता, देशसेवा की यात्रा प्राणों की अंतिम सीमा तक, सांसों के अंतिम छोर तक न कभी रुका, न कभी ठहरा। 1767 में श्री शंकर के आदेश से सिंहासन पर विराजमान उस देवी अहिल्याबाई होलकर का शब्द-शब्द आज भी कानों में गूंजता है- “विचार बदलेगा, व्यवहार बदलेगा, समाज बदलेगा, संस्कार बदलेंगे, मौसम बदलेगा, जीवन बदलेगा नहीं बदलेगा तो मेरा संकल्प और मेरे तेवर। मेरी निष्ठा नहीं बदलेगी। मालव प्रदेश को सुरक्षित रखना यह मेरा प्रथम और अंतिम कर्तव्य होगा। आज के बाद मेरे रहते मालवा की जनता अनाथ नहीं होगी। एक छोटी सी आहुति बनकर राष्ट्र के हवन कुण्ड में स्वयं को समर्पित करती हूँ।”

लोकमाता अहिल्याबाई का व्यक्तित्व बहुआयामी है। वे जहाँ अपने पति खण्डेराव होलकर की युद्ध में बलिदान के बाद लोक कल्याण के लिए सती होने का प्रण तोड़ देती हैं वहीं दूसरी ओर साम्राज्य के शत्रु राघोवा को राज्य हड़पने की चुनौती देती हैं, अरिदल को ललकारती हैं- “आप मुझे अबला समझकर राज्य हड़पने के लिए यहाँ आये हो लेकिन मेरी शक्ति तो आपको युद्ध क्षेत्र में ज्ञात होगी, जब मेरी भवानी तलवार गरजेगी। मैं अपनी महिला सेना के साथ समरांगण में आपका मुकाबला करुँगी।” उनके व्यक्तित्व में निष्पक्षता, न्यायप्रियता के दर्शन होते हैं। अपने इकलौते अत्यंत लड़ैते पुत्र मालेराव को अपराध के लिए रथ से कुचलकर मार डालने का फरमान सुनाती हैं। देवी अहिल्याबाई के हृदय में अपनी प्रजा के प्रति आत्यंतिक प्रेम तथा करुणा का भाव दिखाई देता है। वे अपने राज्य की समृद्धि के लिए अथक परिश्रम करती हैं। लगभग 30 वर्ष के शासन काल में राजमाता अहिल्याबाई ने एक छोटे से गाँव इन्दौर को एक समृद्ध तथा विकसित शहर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

17वीं शताब्दी में जब महिला एक महीन आवाज होती थी। तब उन्होने अपने साम्राज्य को मुगल आक्रमणकारियों से बचाकर रखा था। देवी अहिल्याबाई ने अपने ससुर मल्हारराव होलकर के साथ रणक्षेत्र को अनेक बार शत्रुओं के शोणित से लाल कर दिया था। तुकोजीराव को उन्होंने अपनी सेना में सेनापति के रूप में नियुक्त किया था। उनके जीवन में धीरोदात्त नायिका के सभी गुण दिखाई देते हैं। महारानी का मानना था कि धन विधाता की दी हुई धरोहर है, जिसकी मैं स्वामी नहीं हो सकती। आज जो कुछ वैभव मेरे पास है वह तो भगवान शिव का ही प्रसाद है।

अपनी प्रजा के सुख-दुख में लोकमाता अहिल्याबाई जनता से सीधे संवाद करती थीं। महारानी के राज्य में कोई छोटा-बड़ा नहीं था। सब अपने थे। माता के महल में समान रूप से सबका आदर होता था। राजमाता अहिल्याबाई समर्पण की साम्राज्ञी थीं। भगवान शिव के प्रति उनके ह्नदय में भक्ति का भाव हिलोरे मारता था। देवी अहिल्याबाई होलकर राजाज्ञा पर हस्ताक्षर करते समय पत्र के नीचे केवल आज्ञा से ‘श्री शंकर’ लिखती थीं। अपने जीवनकाल में ही जनता इन्हें देवी समझने लगी थी। जब चारों ओर व्यवस्थाजन्य निराशा का वातावरण था। प्रजा दीन-हीन होकर सिसक रही थी। न्याय में कोई शक्ति नहीं बची थी और न जनता का विश्वास। ऐसी विकट परिस्थिति में देवी अहिल्याबाई ने लोक कल्याणकारी राज्य के लिए अनेक कार्य किये थे। अपनी प्रजा को रोजगार मिले इसके लिए उन्होंने उद्योगों का निर्माण कराया। अपने राज्य की कर व्यवस्था को दुरुस्त किया। किसानों की खुशहाली के लिए कार्य किये। देवी अहिल्याबाई ने अपने राज्य को सुराज में बदल दिया था।

भारत की नारियों ने अपने कर्तव्यपरायणता का श्रेष्ठतम् उदाहरण दुनियाँ के सामने प्रस्तुत किया है। महारानी अहिल्याबाई होलकर ने प्रजापालन, राज्यसंचालन, सुरक्षा, एकात्मता, अखण्डता, सामाजिक समरसता और सादगीपूर्ण जीवन का जो आदर्श सामने रखा है, वह उन्हें विश्व की श्रेष्ठतम् महिलाओं की पंक्ति में खड़ा करता है। अहिल्याबाई का जन्म चौडीगाँव, जामखेड़, अहमदनगर में मानकोजी शिंदे तथा माता गौतमीबाई के धार्मिक, कृषक परिवार में 31 मई 1725 को हुआ था। अहिल्याबाई का विवाह इन्दौर राज्य के संस्थापक महाराजा मल्हारराव होलकर के पुत्र खण्डेराव के साथ हुआ था। कुछ समय बाद पुत्र मालेराव तथा पुत्री मुक्ताबाई की किलकारियाँ होलकर परिवार के आँगन में गूंजने लगीं। सर्वत्र बधाइयाँ बज रहीं थीं। देवी अहिल्याबाई में आदर्श भारतीय नारी के सभी गुण विद्यमान थे। उनकी सहनशीलता, सेवा, त्याग, विनम्रता, विवेक का ही परिणाम था कि पति खण्डेराव होलकर में आत्मगौरव का बोध तथा वीरभाव जागृत हो रहा था। परंतु 1954 में महाराजा मल्हारराव होलकर के जीवनकाल में ही उनके पुत्र खण्डेराव कुम्भेर के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गये। देवी अहिल्याबाई मात्र 29 वर्ष की उम्र में विधवा हो गईं। कठिनाइयां यहीं नहीं रुकी। होलकर राज्य के संस्थापक मराठा राज्य के भीष्म पितामह मल्हार राव का 1766 में निधन हो गया। मराठा साम्राज्य में पराक्रमी, शक्तिशाली सरदार के जाने से देवी अहिल्याबाई पर कठिनाइयों का पहाड़ टूट पड़ा। उन्होंने अपने पुत्र मालेराव को राजगद्दी पर बिठाया लेकिन कुछ ही समय बाद मानसिक बीमारी के कारण मालेराव भी इस दुनियाँ से चल बसा। इन सभी आघातों ने देवी अहिल्याबाई को गहरे तक झिंझोड़ कर रख दिया। बारी-बारी सब बिछुड़ रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो बासंती-मधुमाती बयारों से जीवन के सभी सुनहरे पात झड़ गये हों। परंतु ‘सर्वजन सुखाय सर्वजन हिताय’ रानी उठ खड़ी हुईं। प्रजा के दुःख-दैन्य-दारिद्रय को दूर करने के लिए उन्होने जीवन का कण-कण, समय का क्षण-क्षण लोककल्याण में खपा दिया। उस देवी का दैदीप्यमान जीवन सूर्य कब अस्त हो गया, पता ही नहीं चला। उनके 70 वर्षों के समर्पण और जनसेवा ने अहिल्याबाई को लोकमाता बना दिया था।

महारानी की कूटनीति के आगे कोई मुस्लिम आक्रांता होलकर साम्राज्य की हदों में कभी प्रवेश नहीं कर सका। उन्होंने राज्य को कुशलतापूर्वक चलाया। उस समय सभी राज्यकर्ताओं से उनके मित्रवत् सम्बन्ध थे। इतना ही नहीं सभी राज्यकर्ता उनको देवी स्वरूपा ही मानते थे। वे कुशल प्रशासक और उत्तम राज्यकर्ता तो थीं हीं आज भी समरनीति और राजनायिक कर्तव्यों में निष्णात प्रशासक के रूप में देवी अहिल्याबाई को याद किया जाता है। उन्होने केवल अपने राज्य की चिंता नहीं की बल्कि सम्पूर्ण देश के किए उनका हृदय स्पन्दित होता था।

मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा तोड़े गये मंदिरों के जीर्णोद्धार का जब भी प्रश्न आता है उसमें धर्मस्वरूपा अहिल्याबाई होलकर का नाम सबसे ऊपर है। भारत के 80% मंदिरों का जीर्णोद्धार उनके शासनकाल में ही हुआ था। इसके अलावा कई घाटों, मंदिरों, धर्मशालाओं का निर्माण उनके शासनकाल में हुआ था। अहिल्याबाई होलकर ने अपने शासनकाल में केदारनाथ से काशी विश्वनाथ तक कई ज्योतिर्लिंगों का पुनर्निर्माण कराया। गुजरात में सोमनाथ, उत्तराखण्ड में बद्रीनाथ, मध्यप्रदेश में ओंकारेश्वर, नासिक में त्रयम्बकेश्वर, तमिलनाडु में रामेश्वरम्, पुणे में भीमाशंकर, उज्जैन में महाकालेश्वर जैसे ज्योतिर्लिंगों का जीर्णोद्धार महारानी अहिल्याबाई की देखरेख में सम्पन्न हुआ।

हम सभी लोकमाता अहिल्याबाई के जीवन से प्रेरणा लेकर उनकी 300वीं जयंती के अवसर पर एक समरस, सुसम्पन्न, एकात्म, अखण्ड, शक्तिशाली भारत का निर्माण करें। अपनी सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्य रखते हुए विश्वकल्याण में भारत अपनी भूमिका का निर्वहन कर सके। लोकमाता को यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

(लेखक सरस्वती विद्या प्रतिष्ठान के प्रादेशिक सचिव हैं।)

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