✍ दिलीप बेतकेकर
अनावश्यक भय हमारा कैसे नुकसान करता है यह हमने पूर्व में ही देखा। इच्छा शक्ति के अभाव से भी प्रगति में कैसे बाधा पहुंचती है यह भी ध्यान में आया। अब और कारणों पर विचार करते हैं –
३. कम क्षमता आंकना – हम स्वयं की ओर किस प्रकार से देखते हैं, अपने स्वयं को कैसा आंकते हैं? इसे ‘स्व-प्रतिमा’ अर्थात स्वयं की प्रतिमा कहते हैं। स्वयं की उचित पहचान सही आंकलन न होने से हम क्या कर सकते हैं इस संबंध में हम असमंजस में रहते हैं। एक प्रयोग हम बच्चों से करवाते हैं। सभी कर सकते हैं। एक मिनिट में हम कितने शून्य एक कागज में लिख सकते हैं, इसका अनुमान करना, कल्पना करना, और उस संख्या को कागज पर लिखना। फिर प्रत्यक्ष एक कागज पर शून्य लिखना, और घड़ी में समय मापन कर, एक मिनिट में कितने शून्य लिखे इसकी गणना करना। अनुभव ऐसा पाया गया कि अनुमान पचास साठ शून्य का था और वास्तव में सौ-सवा सौ शून्य लिखे गए। इस प्रयोग से क्या समझ में आता है?
स्वयं को अपनी क्षमता, शक्ति का अंदाजा नहीं होता है। मुझे ज्यादा करना संभव नहीं लगता, मेरे से फलां कार्य नहीं बनेगा, ऐसी धारणा बन जाती है। इसी को कम क्षमता आंकना कहते हैं। गणित एक कठिन विषय है। मुझे वह समझ में नहीं आएगा, मुझमें इतनी बुद्धिमत्ता नहीं है इस प्रकार की भावना, धारणा हम अनावश्यक ही अपने आप में पाले हुए हैं। स्वयं ही अपने हाथों पैरों में बेड़ियां पहना रहे हैं।
आत्म सम्मान (self-esteem) जब कमजोर होगा तो हम कमजोर ही रहेंगे। बलवान नहीं होंगे। इसीलिए कहते हैं-मन की कमजोरी को झटक कर फेंक दें। कुछ पर कम क्षमता हावी है तो कुछ पर अहम भाव हावी होता है। दोनों ही घातक हैं! दोनों ही नुकसानदायक हैं! इसलिए दोनों को त्यागना पड़ेगा।
मैं क्षुद्र हूँ, ‘नगण्य हूँ’ ऐसी भी धारणा न रखें, और ‘मै सर्वज्ञ हूँ’ ‘सर्वश्रेष्ठ हूँ’ ऐसा गर्व का अनुभव भी न करें।
४. तनाव – ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं होगा जिसे बिल्कुल तनाव न हो। तनाव होना चाहिए अथवा नहीं इस पर सदैव वाद विवाद होते रहते हैं। तनाव रहित होने पर भी कार्य क्षमता पर परिणाम होता है और अधिक तनाव से भी क्षमता प्रभावित होती है। सीमित, मर्यादा में तनाव रहना सर्वोत्तम! परन्तु सामान्यतः ऐसा होता नहीं, कुछ बच्चे पढ़ाई के कारण अत्यंत तनाव ग्रस्त रहते हैं। उन्हे तनावग्रस्त न रहने के लिए कहना पड़ता है। उसके विपरीत कुछ बच्चे इतने बेफिक्र, मस्तमौला, मनमौजी होते हैं कि उन्हें अभ्यास, परीक्षा और अन्य किसी भी बात की चिंता नहीं रहती, वे तनाव रहित रहते हैं। कुछ लोग अति तनाव के कारण दबे रहते हैं तो कुछ तनाव रहित होने से कहीं भी हवा में भी उड़ने समान रहते हैं।
तनाव दूर करने के अनेक मार्ग हैं। ध्यान, योग, प्राणायाम ये तो है ही, परन्तु इनके अतिरिक्त शिथिलीकरण की कुछ छोटी छोटी क्रियाएं है। इस संबंध में अलग से विचार करेंगे, तब विस्तृत विचार होगा।
५. आलस्य, टालमटोल, सुस्ती – आलस्य यह मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। यह वाक्य हमने कई बार पढ़ा-सुना है, इसीलिए इसकी गंभीरता अब महत्त्वपूर्ण नहीं लगती। ईश्वर द्वारा शरीर प्रदत्त है, जीवन प्रदत्त है, किन्तु उसका मोल अनजाना हो जाता है। इसका कारण आलस्य आकर वह अनुपयोगी हो जाते हैं। समर्थ रामदास कहते हैं-
करंटया आळस आवडे! येत्न कदापि नावडे,
(करंटा = आलसी व्यक्ति)
अर्थात आलसी व्यक्ति को सावधान करते हैं और सुझाव देते हैं –
म्हणोंनि आलस सोड़ावा। येले साक्षेपें जोड़ावा।
किसी ने मजाक में ही कहा है कि – Doing nothing is a tiresome job because it’s impossible to stop and take a rest. यशस्वी व्यक्ति की विशेषता यह होती है कि उसे ढिलाई, टालमटोल बिल्कुल पसंद नहीं। सामान्य व्यक्ति आज का कार्य कल के लिए टाल देते हैं। ‘काल करे सो आज कर, आज करे तो अब’ ये कहना आसान है परन्तु आचरण में लाना उतना ही कठिन। कहते हैं न ढिलाई एक समय चुराने वाला चोर है।
Procrastination is the thief of time.
आलसी, सुस्त, टालमटोल करने वाले व्यक्ति कभी ऊंचे सपने नहीं देखते।
कष्टाविण फळ ना मिळते, तुज कळते परि ना वळते
(कष्ट के बिना फल नहीं मिलता।)
ये सारा संसार समझता है, परंतु करता कोई नहीं। और कहते हैं – असेल माझा हरि तर देइल खाटल्यावरी (अर्थात, मेरा ईश्वर मेरा ध्यान रखेगा, तो मुझे खटिया पर बैठे बैठे सब कुछ दे देगा)
इस प्रवृति से जीवन में कुछ प्राप्त नहीं हो सकेगा।
सुचेना सुखाहुन काहि आम्हाला, हवे सौख्य ते देह कष्टा विना।
न तारा ही छेडावया हात हाले, कशी झंकृति गोड देईल वीणा।।
अर्थात, सुख के अतिरिक्त हमें कुछ चाह नहीं, बगैर कष्ट किए सुख चाहिए, वीणा के तारों को हाथ न लगाते हुए, उसमें से मधुर झनकार की अपेक्षा करना व्यर्थ है।
(लेखक शिक्षाविद, स्वतंत्र लेखक, चिन्तक व विचारक है।)
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