साहसी बालक राजेन्द्र नीलकंठ

✍ गोपाल माहेश्वरी

शेष रहती है लड़ाई वीर की अंतिम क्षणों तक।

देशभक्ति है बसी होती सदा जिनके मनों तक।।

“तो क्या नेताजी के न रहने पर अब हम स्वतंत्र न हो सकेंगे?” आकुल कंठ से अपने अध्यापक के सामने उसकी चिंता फूट पड़ी। आजाद हिन्द फौज के सेनापति सुभाषचन्द्र बसु 18 अगस्त 1945 को एक हवाई दुर्घटना के बाद से अज्ञात थे। आशंका थी कि वे संभवतः जीवित नहीं बचे। जो आजाद हिन्द फौज अंग्रेजों को निरंतर खदेड़ती आगे बढ़ रही हो, जिसके कारण स्वतंत्रता के सिपाहियों का उत्साह एवं मनोबल आसमान छू रहा हो, उसके कर्ताधर्ता का अचानक न रहना सारे राष्ट्र पर वज्रपात ही था।

सुदूर दक्षिणी प्रान्त केरल के तिरुअनन्तपुरम् की एक पाठशाला में ग्यारह वर्षीय राजेन्द्र नीलकंठ का यह प्रश्न था अपने अध्यापक से। उन दिनों केरल त्रावणकोर राज्य में था जिसके स्वतंत्र राजा भी थे। उनकी अपनी सेना भी थी।

अध्यापक समझाने लगे “नेताजी की सक्रियता से बहुत आशा थी लेकिन आजादी तो हमें मिल कर रहेगी। एक लड़ाई महात्मा गाँधी भी तो लड़ रहे हैं अपने प्रकार से आन्दोलन चला कर।”

“तो हम भी ऐसा आन्दोलन चलाएँगे?” राजेन्द्र नीलकंठ पुनः उत्साह से भर गया था।

अध्यापक ने अपने छात्र की पीठ थपथपायी और बताया कैसे स्वदेशी आन्दोलन से अंग्रेजी सरकार घबरायी हुई है। वैसे नीलकंठ के पिता भी गाँधी जी के अनुयायी थे। तिरुअनंतपुरम् में भी खादी भवन था जो आन्दोलन का उर्जा केन्द्र था।

त्रावणकोर राज्य की जनता भी अपने निरंकुश शासक से त्रस्त थी। अपनी मुक्ति के लिए छटपटाती प्रजा ने स्वतंत्रता पाने के लिए प्रत्येक बलिदान देने का मन बना लिया था।

भारत की अंग्रेजों से स्वतंत्रता घोषित हो चुकी थी। यह सशस्त्र क्रांति और अहिंसा सत्याग्रह दोनों का ही परिणाम था। त्रावणकोर की जनता भी यही सर्वथा उचित अवसर मान कर प्रयत्नशील थी।

वह 1947 की 13 जुलाई थी। बड़े से मैदान में विराट जनसभा जुटी हुई थी। अब तेरह वर्ष का हो रहा नीलकंठ भी अपनी टोली के साथ सबसे आगे बैठा था। तभी सभा को भंग करने के आदेश के पालनार्थ राज्य की सेना ने जनता पर गोलियाँ बरसाना आरंभ कर दिया। लोग गोलियाँ सीने पर झेल गए।

सामान्यतः ऐसे वातावरण में बच्चे बड़ों की गोद में दुबक जाते हैं पर राजेन्द्र नीलकंठ तो उठकर खड़ा हो गया। सन्न से आई एक गोली ने उसे घायल कर दिया। उसे चिकित्सालय में भर्ती करवाया गया। 15 अगस्त 1947 को देश की स्वतंत्रता का समाचार उसने जीवन-मृत्यु के बीच झूलते हुए ही सुना। 26 सितम्बर को उसने अपनी आँखें सदा के लिए मूंद लीं।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

और पढ़ें : आजादी का उत्सव मनाने का अपराध

Facebook Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *