✍ विकास चौधरी
माननीय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के भारतीय शिक्षा पर विचारों से अवगत तब हुए, जब 20 अगस्त, 1985 को ससंद के पटल पर ‘नई शिक्षा नीति एक चुनौती’ का प्रारूप रखा गया और देशभर में इसकी चर्चा शुरु हो गई। इसी दौरान ‘भारतीय शिक्षण मण्डल’ उत्तर प्रदेश ने ‘शिक्षा में भारतीयता’ विषय पर एक संगोष्ठी आयोजित की और इसमें माननीय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी को मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित किया। मुख्य वक्ता के रूप में दिए गए भाषण से ही हम ठेंगडी जी के शिक्षा पर विचारों को जान पाए। ठेंगड़ी के विचारों को सुनने के बाद अनुभव किया कि यह चिंतन मौलिक, सामाजिक और हमारी राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप है।
ठेंगडी जी के अनुसार शिक्षा के पीछे दर्शन और पद्धति मौलिक रूप से अवश्य होनी चाहिए। इसके लिए उन्होंने विकास योजना और शिक्षा योजना का सामंजस्य स्थापित करने पर बल दिया, ताकि सभी व्यक्तियों की प्रकृतिगत गुणवत्ता के संपूर्ण विकास का प्रतिफल और हमारी राष्ट्रीय अर्थ-रचना की संपूर्ण आवश्यकताओं का अधिकतम मेल बैठाया जा सके।
दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के अनुसार शिक्षा की भारतीय कल्पना, भारतीय पद्धति तथा भारतीय उद्देश्य का जिक्र यहां किया जाना आवश्यक है। भारत प्राचीनतम सनातन राष्ट्र है, जहाँ विद्या का, संस्कृत का उल्लेखनीय प्रचार था, हम सुसंस्कृत थे, लेकिन सुव्यवस्थित पद्धति के अभाव में बने रहना संभव नहीं था।
जब शिक्षा शास्त्र विकसित हुआ तब शिक्षा तथा संस्कार दोनों का एकत्र परस्पर पूरक विचार यहां हुआ। लेकिन औपचारिक शिक्षा की कल्पना अभारतीय है। औपचारिक शिक्षा तथा संस्कृति का द्विभाजन प्राचीन भारत में नहीं था। उस समय अत्यधिक आग्रह संस्कारों पर था, यहां तक कि संस्कारों की प्रणाली का प्रारंभ व्यक्ति के जन्म के पूर्व से ही होता था तथा यह प्रणाली व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात तक चलती थी। यह संस्कार आज की स्थिति में जैसे के वैसे अनुकरणीय नहीं हो सकते है। किंतु उनके पीछे क्या तत्व थे, वे तत्व किस तरह व्यक्ति-जीवन तथा समाज-जीवन पर परिणाम करते थे और उनमें से अच्छे परिणाम आज भी प्राप्त करने के लिए संस्कारों की पुर्नरचना युग अनुकूल किस तरह करनी चाहिए, यह विचार राष्ट्र-निर्माण के लिए आधारभूत स्वरूप का ही है।
राष्ट्र का सामान्य व्यक्ति जिस तरह का होगा, उसी तरह का राष्ट्र भी रहेगा। इस दृष्टि से जो गहन तथा मौलिक विचार हमारे पूर्वजों ने किया और उसके आधार पर गुरुकुल आदि पद्धतियां स्थापित की, उन सब का अध्ययन करके उसका कितना हिस्सा आज शिक्षा-पद्धति के लिए उपयुक्त बनाया जा सकता है ,यह सोचना आवश्यक है।
ठेंगडी जी के अनुसार भारत गाँव में बसता है। ग्रामीण जीवन की अपनी एक पद्धति होती है उससे मेल खाती विशेष रूप से कृषि कार्य की समय-सारणी वाली पद्धति की आवश्यकता है जो विकास के लिए अनिवार्य है। वन उद्योग तथा वन सेवाओं के लिए वनवासियों को तैयार करना यह शिक्षा का एक अंग होना चाहिए। ग्रामीण जीवन-पद्धति में अपने परंपरागत कौशलों को आधुनिकतम सुधार के साथ सीखने की आवश्यकता है तथा ‘अर्निंग एंड लर्निंग’ के साथ-साथ चल सके, ऐसी योजना बनाने की आवश्यकता पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
भारत की शिक्षा नीति का रोजगारयुक्त होना आवश्यक है अर्थात यह शिक्षा व्यावहारिक स्वरूप में होनी चाहिए, खेतों पर, कारखाने में, फार्मों में और शिक्षा की समाप्ति के पश्चात तुरंत रोजगार मिल जाए इस तरह की व्यवस्था की जानी चाहिए।
स्थानीय विकास की संभावनाएं और रोजगार के संभाव्य अवसर – इन दोनों की पृष्ठभूमि में इस विषय पर विचार करना उपयुक्त रहेगा। इस दृष्टि में विविध उद्योगों में तथा व्यवसाय में आज और निकट भविष्य में मनुष्य-बल की आवश्यकता किस तरह की होगी स्पष्ट होना चाहिए। जिले के स्तर पर उपलब्ध भौतिक संसाधन तथा मनुष्य-बल का सर्वेक्षण होना चाहिए। स्थानीय तथा जिले के विकास की आवश्यकताओं पर समग्र विचार होना चाहिए। जिले के लिए उपयुक्त उद्योग और व्यवसाय, आवश्यक उपभोक्ता वस्तुएं, आवास की आवश्यकताएं, आवश्यक शिक्षण-केंद्र, चिकित्सालय, बांध, नहर, पुल, रास्ते आदि पर विचार होना चाहिए। इसके लिए उचित मापदंड के आधार पर उपयुक्त जिला समिति बनाई जाए, तभी रोजगार को व्यावहारिक रूप दिया जा सकता है। योग्य एप्टीट्यूड टेस्ट के आधार पर प्रशिक्षण के लिए कौन उपयुक्त है यह तय किया जाना चाहिए तथा किस स्तर पर यह एप्टीट्यूड टेस्ट और व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए इसकी स्पष्टता होनी चाहिए।
बेरोजगार से पीड़ित भारत में रोजगार देने वाली शिक्षा का महत्व है। किन्तु इसी को शिक्षा का सर्वोच्च्य उद्देश्य नहीं माना जा सकता। व्यक्ति का सर्वांगीण विकास यही सर्वोच्च सांस्कृतिक उद्देश्य शिक्षा का है। यह सेंस ऑफ प्रमोशन छोड़ने की आवश्यकता इसलिए प्रतीत होती है कि अब तक विचारों में समानता और स्पष्टता नहीं है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मार्गदर्शन में 29 जुलाई 2020 को राष्ट्रीय शिक्षा नीति का अवतरण हुआ है। जो भारतीय ज्ञान परंपरा, सामाजिक न्याय तथा दत्तोपंत ठेंगडी जी के शिक्षा के विचार के अनुरूप ही वर्तमान राष्ट्रीय शिक्षा नीति को काफी हद तक अपनाया गया है। वर्तमान नीति में शिक्षा को लेकर दिए गए विचारों को जो हम देख पाते हैं, उसमें शिक्षा की वैचारिक समक्ष, अनुभवजन्य, बहुभाषावाद, कौशल विकास, व्यवसायिकता, रोजगारपरक, शोध एवं नवाचार के साथ-साथ मानवीय एवं संवैधानिक मूल्यों पर बल, चरित्र निर्माण एवं भावी पीढ़ी के समग्र विकास पर जोर दिया गया है।
(लेखक स्वदेशी जागरण मंच दिल्ली प्रान्त के संयोजक है।)
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