✍ गोपाल माहेश्वरी
वीर ने जैसे ही दीपक जलाए हवा के झोंके ने बुझा दिए। उसने फिर जलाए, फिर ऐसा ही हुआ। तीसरी चौथी बार भी यही अब वह झुंझला उठा “तो इस बार दीपावली बिना दीयों के ही मनाना होगी क्या?” उसने दियासलाई फेंक दी। तभी माँ का स्नेहभरा हाथ उसके काँधे पर गिरा “नाम है वीर और हार गए दोचार झोंकों से!” “क्या करुँ माँ? दीपक जल ही नहीं पा रहे।” “उन्हें कोई सुरक्षित आड़ दो या थोड़ी देर बाद प्रयास करना?” वे अंदर आ गए।
पिताजी ने पूछा “जला दिए दीए?”
“कहाँ पिताजी! हवा चल रही है। क्या ऐसे भी दीपक होते हैं जो कभी बुझे ही नहीं?” वीर ने पूछा।
“है न ये बिजली के दीए।” पिताजी ने बिजली के रंगबिरंगे बल्बों की लड़ी थमाते हुए कहा। स्टूल पर चढ़कर वीर ने लड़ी लटकाई और स्विच चालू किया कि जगमगाहट फैल गई तभी भक्क से बिजली गुल, फिर अंधेरा। “अभी आ जाएगी चिंता मत करो” पिताजी अंधेरे में ही बोले। मोबाइल की टार्च जला कर सब अंदर पहुँचे। अब बिजली आने तक सब काम रुके ही रहना थे इसलिए बातचीत चल पड़ी। वीर ने पूछा “न हवा रुके न बिजली हो तो अंधेरा ही अंधेरा। कोई दीपक नहीं जो कभी बुझते न हो, आसमान के सूरज चंदा तक जो दिन में रहे रात में गायब, रात में रहे तो दिन में गायब। विज्ञान चाहे जो कहे पर व्यवहार में तो ये भी जलते बुझते आकाश के दीपक ही हुए न?”
“मन का दीया है बेटा! जो सदा जलता रह सकता है बस विचारों की बाती अच्छी हो।” पिताजी बोले।
“विचारों की बाती कैसे अच्छी रहे?” वीर का प्रश्न था।
“पहली बात किसी भी काम से बात से विचार से किसी को दुःख न पहुँचे। हमें सुखी रहने का अधिकार है पर किसी और को दुःख पहुंचाकर नहीं। हाँ यदि दूसरों को सुख देने हेतु हमें कोई कष्ट भी उठाना पड़े तो यह हमें महान बनाता है।”
“यानि महापुरुष होना, ठीक। क्या और भी कुछ बात है पिताजी!”
“हां है न दूसरी बात है किसी की कोई वस्तु उसकी अनुमति के बिना न ली जाए यानि चोरी न की जाए।”
“और कोई उस वस्तु को लेने की अनुमति न दे और वह हमें आवश्यक हो तब?” वीर ने पूछा।
“तब तो हमें संयम बरतते हुए उसको पाने की कामना ही छोड़ना होगी। उसकी इच्छा के विरुद्ध वह वस्तु छल से या बल से लेना उसे कष्ट पहुंचा सकता है और यह पाप होगा। अच्छा होगा हम उस वस्तु का विकल्प खोजें या उसे दे सकने वाला कोई अन्य व्यक्ति।”
“ठीक है पिताजी! बात तो सोचने लायक है।”
“एक बात और किसी भी बात या विचार या काम का आधार सच हो। झूठ के आधार पर किया हर काम पाप ही है।”
“हाँ हमारे आचार्य जी ने एक दोहा सुनाया था –
“सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
आके हिरदे सांच है, वा के हिरदे आप।”
वीर बोला। “पिताजी! आप याने भगवान? क्या वे सबके हृदय में नहीं रहते?”
“होते सबके हृदय में हैं पर दिखते उसे हैं जो सच में ही निष्ठा रखता है। सबमें परमात्मा है इसलिए किसी से झूठा व्यवहार न कर सबको समान देखो सबसे भला व्यवहार करो यही ब्रह्मचर्य भी है। सबको ब्रह्ममय देखना।” पिताजी कहते जा रहे थे वीर ध्यान से सुनता जा रहा था।
उसने पूछा “पिताजी और बताइए विचारों की बाती कैसे ठीक रखी जाए।”
“कई बातें महापुरुष बताते हैं पर दो बातें खास तौर पर और बताता हूँ एक किसी भी वस्तु को अपनी आवश्यकताओं से अधिक इकट्ठा न करना और आवश्यकताएँ सदैव सीमित रखना जिससे दूसरों को भी वे वस्तुएं मिल सके उन्हें उनको पाने के लिए संघर्ष न करना पड़े, हिंसा न करना पड़े, धोखा न देना पड़े।”
“पिताजी! आपकी बातों से मैं जो समझा हूँ वह यह कि यदि हम सबको अपने समान मानने लगें तो न हमें झूठ बोलना पड़े, न किसी का मन दुखाने की आवश्यकता हो, न किसी वस्तु को अपने लिए ही इकट्ठा करना पड़े, न किसी से छीनना छुड़ाना या चुराना पड़े। पर ….पर ये बातें जितनी सरलता से कही सुनी जा सकती है व्यावहारिक तौर पर आचरण में लाना संभव है क्या?”
“नहीं है बेटा! पर जो कठिन काम कर दिखाते हैं वे ही वीर कहलाते हैं और इसके लिए अपने मन को जीतना पड़ता है जो ऐसा कर पाते हैं वे हो जाते हैं महावीर।” पिताजी बोल रहे थे तभी बिजली आ गई। अचानक वीर के मस्तिष्क में कुछ कौंधा। वह बिजली की फुर्ती से गया और बस्ते से एक पुस्तक लेकर लौटा जिसे भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के 2550वां वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में विद्यालय में दी गई थी। पुस्तक में महावीर स्वामी के द्वारा बताए पंचशील अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के बारे में लिखा था। पिताजी को बताते हुए वीर ने कहा “हम अभी यही बात तो कर रहे थे!”
“हाँ कल शाम जब तुम अपनी माँ से बता रहे थे कि ये पंचशील मैंने पुस्तक में पढ़े तो पर ठीक से समझ न आए। तो मैंने सुन लिया था। सोच रहा था कि कैसे कुछ सरल करके समझा सकूं? अचानक बिजली गुल होने से मैंने मौका पाकर बात छेड़ दी।” पिताजी ने रहस्योद्घाटन किया।
माँ बोली “मुझे लगा आप गीता पर कुछ बता रहे हैं पर यह तो जैन दर्शन है!”
“क्या जैन, क्या बौद्ध, क्या सिख या वैष्णव मूल बातें सभी धर्मों की समान ही हैं। सब मनुष्य को अच्छा मनुष्य बनने का ही मार्ग बताते हैं। हैं तो सब हिन्दू ही मत अलग-अलग है ध्येय एक ही है।” पिताजी ने स्पष्ट किया।
वीर बोला “कभी कभी बाहर बिजली गुल होने पर अंदर दीपक जल उठते हैं। है न?”
“हाँ, वीर से महावीर होना हो तो अंदर के दीए ही जलना चाहिए तभी होती है सच्ची दीवाली।” पिताजी ने बात समाप्त की।
“बोलो भगवान महावीर की” वीर के द्वारा लगाए घोष का उत्तर सामूहिक आया “जय”।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)
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