✍ राजेन्द्र सिंह बघेल
जीवन के विकास में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान है। नयी जानकारियां हमें हर परिस्थिति में प्राप्त होती है, बस आवश्यकता है हम सजग रहें। ज्ञानार्जन कर उसे हम जीवन में प्रयोग में लाएं तभी शिक्षा की सार्थकता है। हाँ, इसके लिए नियमित अभ्यास की जरूरत है। एक प्रवास के दौरान झारखंड राज्य के विभिन्न जनपदों के जिला केन्द्रों पर स्थित विद्या भारती के विभिन्न संस्थानों के पर्यवेक्षण के समय विद्यार्थियों के मध्य जिन प्रयत्नों व उनके परिणाम का अवलोकन कर जानकारी प्राप्त की उसे पाठकों के मध्य शेयर करना उपयुक्त समझता हूँ।
शारीरिक शिक्षा का प्रभाव
धनबाद स्टेशन पर जो आचार्य मुझे लेने आए थे उनसे परिचय के क्रम में मुझे ज्ञात हुआ कि वह शारीरिक शिक्षा से जुड़े हैं। बात-बात में धनबाद के विद्या मंदिर में छात्रों के शारीरिक स्वास्थ्य और शारीरिक क्षमताओं के विकास के लिए किए जाने वाले प्रयत्नों की जानकारी उन्होंने दी। परिणाम का एक विस्तृत विवरण भी मुझे वहां से चलते समय उपलब्ध कराया। उन्होंने विद्यार्थियों के मध्य उनकी लंबाई व सीना बढ़ाने के लिए जो प्रयत्न किए थे वह इस प्रकार हैं – यह छात्र कक्षा 6 से 10 के मध्य अध्ययन करने वाले तथा आयु 10 से 14 वर्ष तक की थी।
छात्रों ने खिंचाव युक्त व्यायाम (लेग स्ट्रैचिंग) किया। ताड़ासन का अभ्यास नियमित करते रहे, साथ ही जो भी साधन उपलब्ध थे उनके सहारे पुल-अप्स किया। यह प्रयत्न उन सबने नियमित लगभग 6 मास किया। परिणाम स्वरुप उनकी 3 इंच से 5 इंच तक लंबाई बढ़ी। उनके कंधे मजबूत व सबल हुए और सीना चौड़ा हुआ, इससे शरीर की कई सारी मांसपेशियां ट्रेन हुई- जैसे बायसेप्स, बैक मसल्स शोल्डर और चेस्ट आदि।
एक बात और जो सामने आई कि जिन बच्चों की लंबाई क्रमशः बढ़ी थी उनके माता-पिता की लंबाई इन छात्रों से कम थी अर्थात आनुवंशिकता का प्रभाव उन पर नहीं पड़ा। यह प्रयत्न कुछ चुने हुए विद्यार्थियों के मध्य किया गया था। छात्रों के मध्य इस तरह शारीरिक स्वास्थ्य एवं क्षमताओं की विकास से उनके अभिभावक बहुत प्रसन्न थे।
पुस्तकालय से अधिगम
शैक्षणिक संस्थानों में संसाधन की उपलब्धि होना अच्छी बात है पर इन साधनों की सुव्यवस्था तथा इनका अधिकतम उपयोग होना इससे भी ज्यादा अच्छी बात है। धनबाद के राजकमल सरस्वती विद्या मंदिर में एक अच्छा पुस्तकालय है। पर्याप्त पुस्तकें हैं तथा पुस्तकों का व्यवस्थित डिजिटलाइजेशन भी हुआ है। ऐसी व्यवस्था होनी ही चाहिए पर इससे भी अधिक आनंददाई विषय जो मुझे वहां देखने को मिला उसकी जानकारी वहां की वरिष्ठ प्रवक्ता आचार्या ने दी। उनका कहना था कि अनेक विद्यार्थियों को पाठ की विभिन्न विषयवस्तु शिक्षण के समय स्पष्ट नहीं हो पाती। ऐसे छात्र-छात्राओं को विषयवस्तु अधिक समझदारी से जानने व सिखाने का अवसर उन्हें पुस्तकालय में दिया जाता है। उस बहन ने बताया कि आज प्रातः ही कक्षा 12 की 5 छात्राओं ने उनके व्हाट्सएप्प पर यह जानकारी दी कि कॉमर्स विषय के कुछ पाठ उन्हें स्पष्ट नहीं हो पाए हैं। उनकी इस कठिनाई को पुस्तकालय में हल किया जा रहा है। मैंने उनसे प्रत्यक्ष इसे देखने की इच्छा जाहिर की।
हम दोनों पुस्तकालय गए और वहां देखा कि बालिकाओं को संबंधित विषय की स्पष्ट जानकारी के लिए पुस्तकालय की संदर्भित पुस्तक निकालकर उन्हें एक आचार्य जी आवश्यक सहायता कर रहे थे। मेरे पूछने पर बालिकाओं ने बताया कि मुझे बैलेंस शीट बनाने में जो कठिनाइयां आ रही थी उनका हल हो गया है और मैं अब इसे अच्छी तरह समझ चुकी हूँ। उत्सुकता वश मैंने इसी विषय से जुड़ी एक और बात ‘मूल्य ह्रास’ (depreciation) के बारे में भी पूछा। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई कि इसका भी उत्तर बड़े स्पष्ट ढंग से उन सब ने दिया। अध्ययन के समय कठिनाई आना स्वाभाविक है पर उसके निराकरण के लिए कोई संकोच किया तो पूरा परिणाम कैसे आएगा, इसका विचार अवश्य करना।
अनुभव आधारित अधिगम से विज्ञान शिक्षण
प्रवास के क्रम में अगले दिन मैं साहिबगंज जिला केंद्र के विद्या मंदिर में कक्षा 9 में विज्ञान पढ़ने वाले विद्यार्थियों से मिला। टॉपिक था – ‘भौतिक एवं रासायनिक परिवर्तन’। विषय की पूर्णता के पश्चात छात्र-छात्राओं से पाठ के प्रभाव की जानकारी आचार्य द्वारा ली गई। मुश्किल से 20 से 22% बच्चों ने ही अपेक्षित उत्तर दिए। स्वाभाविक है विज्ञान के आचार्य जी का मन प्रसन्न नहीं था। उन्होंने मुझसे अपेक्षित परिणाम कैसे मिले इसकी चर्चा की। संक्षिप्त चर्चा के बाद आचार्य जी ने पुनः एक प्रयत्न किया। इस बार के प्रयत्न में उन्हें जो विशेष प्रक्रिया अपनाई उसका वर्णन निम्नवत है-
आचार्य जी ने पूरी कक्षा के छात्रों को कई समूह में बांट दिया था। समूहों को भौतिक एवं रासायनिक परिवर्तन के अलग-अलग प्रकार के प्रयोग करने को दिया था। समूह का एक प्रमुख छात्र प्रयोग की प्रक्रिया पूरा कर रहा था। समूह के अन्य छात्र भौतिक व रासायनिक परिवर्तन के प्रयोग प्रक्रिया में जो-जो घटित हो रहा था उसका वर्णन बारी-बारी से कर रहे थे। बीच-बीच में आचार्य जी समूह के पास जाकर भौतिक एवं रासायनिक परिवर्तन के मूल तत्वों के बारे में प्रश्न करते थे तो छात्रगण स्पष्ट उत्तर देने में संकोच नहीं कर रहे थे। स्वाभाविक है इस प्रक्रिया में जहाँ छात्रों को स्वयं करके सीखने का अवसर मिला वहीं आत्मविश्वास के साथ उत्तर देने का साहस भी जुटा पाए।
लगभग 20% छात्र जो उत्तर देने में संकोच कर रहे थे वह भी पूर्ण उत्तर तो नहीं दिए पर आज कक्षा में कुछ बोलने व कहने का अवसर प्राप्त कर रहे थे। उनके चेहरे पर प्रसन्नता स्पष्ट दिख रही थी और आचार्य जी भी आज बहुत आनंदित थे।
समूह आधारित स्व-अध्ययन
तीसरे दिन आज मैं दुमका जिला केंद्र के विद्यालय में था, मेरी भेंट वहाँ कक्षा दशम् के विद्यार्थियों से हुई। आज यहां विज्ञान की बेला थी। छात्रों ने बताया कि परिसर में भ्रमण व अवलोकन करके वे सब आए हैं तथा यह जानकारी प्राप्त की है कि कहां-कहां परिसर में विज्ञान व अन्य विषयों से जुड़ी बातें उपलब्ध हैं। विभिन्न समूह के विद्यार्थियों ने जो जानकारी दी वह इस प्रकार है-
पहले समूह ने परिसर में उपलब्ध पेड़ और पौधों का अलग-अलग अध्ययन कर उनमें क्या अंतर है तथा उनसे प्राप्त होने वाली चीजों के बारे में जानकारी दी। दूसरे समूह ने बताया कि पौधों में वृद्धि कैसे होती है? वृद्धि के कारक कौन-कौन से हैं, यह भी बताया। तीसरे समूह ने प्रकाश संश्लेषण की क्रिया का अध्ययन किया था तथा विस्तार से इसकी जानकारी दी। चौथे समूह ने परिसर में हो रहे भवन निर्माण की प्रक्रिया देखी थी, साथ ही निर्माण में प्रयोग होने वाली सामग्री व उसके अनुपात का वर्णन किया।
अध्ययन के साथ मूल तथ्य की स्पष्ट जानकारी व्यावहारिकता के साथ होगी तो परिणाम आना अपरिहार्य है। शिक्षा का परम उद्देश्य भी तो यही है, बस हमें इस दिशा में निरंतर सजगता रखनी है।
(लेखक शिक्षाविद है और विद्या भारती के अखिल भारतीय प्रशिक्षण संयोजक रहे हैं।)
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