डॉ. भगवानदास का शिक्षा-दर्शन

✍ डॉ. विकास कुमार पाठक

शिक्षा, दर्शन, आध्यात्म और संस्कृति की नगरी काशी अनेक विभूतियों की धरती रही है। इसी धरती पर जन्में काशी के प्रथम भारत रत्न डॉ. भगवान दास को विभिन्न भाषाओं के प्रकांड पंडित, स्वतंत्रता सेनानी, समाज सेवी और शिक्षाशास्त्री के रूप में, देश की भाषा, संस्कृति को सुदृढ़ बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले, स्वतंत्र और शिक्षित भारत के मुख्य संस्थापकों में गिना जाता है। वे एक दार्शनिक, उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष व्यक्तित्व थे, जो समावेशिता में विश्वास करते थे। डॉ. भगवानदास उच्च शिक्षा को ब्रिटिश प्रभाव से मुक्त कराना और भारत को उच्च शिक्षा में आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे। यही कारण है कि सेंट्रल हिंदू कॉलेज में पहले अवैतनिक सचिव के रूप में जुड़े फिर काशी विद्यापीठ के संस्थापक सदस्य और प्रथम कुलपति बने।

उनकी प्रारम्भिक शिक्षा वाराणसी में ही हुई। उस समय अंग्रेज़ी, शिक्षा, भाषा और संस्कृति का बहुत प्रसार था किंतु डॉ. भगवान दास ने अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिन्दी, अरबी, उर्दू, संस्कृत व फ़ारसी भाषाओं का भी गहन अध्ययन किया। शेख सादी द्वारा रची गयीं ‘बोस्तां’ और ‘गुलिस्तां’ इन्हें बहुत ही प्रिय थीं। बचपन से ही डॉ. भगवान दास बहुत ही कुशाग्र बुद्धि थे। वे पढ़ने-लिखने में बहुत तेज़ थे। डॉ. भगवान दास ने 12 वर्ष की आयु में ही हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। इसके पश्चात् वाराणसी के ही ‘क्वींस कॉलेज’ से इण्टरमीडिएट और बी.ए. की परीक्षा संस्कृत, दर्शन शास्त्र, मनोविज्ञान और अंग्रेज़ी विषयों के साथ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसके बाद आगे की शिक्षा प्राप्त करने के लिए उन्हें कलकत्ता भेजा गया। वहाँ से उन्होंने दर्शन शास्त्र में एम.ए. किया। सन् 1887 में उन्होंने 18 वर्ष की अवस्था में ही पाश्चात्य दर्शन में एम.ए. की उपाधि प्राप्त कर ली थी। एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करके पिता के कहने से उन्होंने अनिच्छा पूर्वक डिप्टी कलेक्टर के पद पर सरकारी नौकरी की। नौकरी करते हुए भी उनका ध्यान अध्ययन और लेखन कार्य में ही लगा रहा। वर्ष 1890 में वे तहसीलदार के पद पर सरकारी कर्मचारी बन गये, उसके तुरंत बाद 4 वर्ष में पदोन्नति द्वारा डिप्टी कलेक्टर एवं मजिस्ट्रेट बन गये। इसके तुरंत बाद 1898 में उन्होंने सरकारी सेवाओं से त्याग-पत्र दे दिया और स्थायी रूप से काशी चले गये।

23-24 वर्ष की आयु में ही उन्होंने ‘साइंस ऑफ पीस’ और ‘साइंस ऑफ इमोशन’ नामक पुस्तकों की रचना कर ली थी। लगभग 8-10 वर्ष तक उन्होंने सरकारी नौकरी की और पिता की मृत्यु होने पर नौकरी छोड़ दी। इस समय एक ओर देश की स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन हो रहे थे, वहीं दूसरी ओर अंग्रेज़ों के शासन के कारण भारतीय भाषा, सभ्यता और संस्कृति नष्ट-भ्रष्ट हो रही थी और उसे बचाने के गंभीर प्रयास किये जा रहे थे। प्रसिद्ध समाज सेविका एनी बेसेंट ऐसे ही प्रयासों के अंतर्गत वाराणसी में कॉलेज की स्थापना करना चाह रही थीं। वह ऐसा कॉलेज स्थापित करना चाहतीं थीं जो अंग्रेज़ी प्रभाव से पूर्णतया मुक्त हो।

जैसे ही डॉ. भगवान दास को इसका पता चला उन्होंने तन-मन-धन से इस महान् उद्देश्य पूरा करने का प्रयत्न किया। उन्हीं के सार्थक प्रयासों के फलस्वरूप वाराणसी में ‘सैंट्रल हिन्दू कॉलेज’ की स्थापना की जा सकी। इसके बाद पं. मदनमोहन मालवीय ने वाराणसी में ‘हिन्दू विश्वविद्यालय’ स्थापित करने का विचार किया, तब डॉ. भगवान दास ने उनके साथ मिलकर ‘काशी हिन्दू विद्यापीठ’ की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया और पूर्व में स्थापित ‘सैंट्रल हिन्दू कॉलेज’ का उसमें विलय कर दिया। डॉ. भगवान दास काशी विद्यापीठ के संस्थापक सदस्य ही नहीं, उसके प्रथम कुलपति भी बने। उन्हें 1929 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) और 1937 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया था।

अपने जीवनकाल में ही अपार धन और सम्मान पाने के बाद भी डॉ. भगवान दास का जीवन भारतीय संस्कृति और महर्षियों की परम्परा का ही प्रतिनिधित्व करता है। वह गृहस्थ थे, फिर भी वह सन्यासियों की भांति साधारण खान-पान और वेशभूषा में रहते थे। वह आजीवन प्रत्येक स्तर पर प्राचीन भारतीय संस्कृति के पुरोधा बने। सन् 1947 में जब देश स्वतंत्र हुआ, तब डॉ. भगवान दास की देशसेवा और विद्वत्ता को देखते हुए उनसे सरकार में महत्त्वपूर्ण पद संभालने का अनुरोध किया गया, किंतु प्रबल गाँधीवादी विचारों के डॉ. भगवान दास ने विनयपूर्वक अस्वीकार कर दर्शन, धर्म और शिक्षा के क्षेत्र को ही प्राथमिकता दी और वह आजीवन इसी क्षेत्र में सक्रिय रहे।

डॉ. भगवान दास ने कई पुस्तकों और प्रकाशनों का लेखन और सह-लेखन किया, जिनमें ‘सनातन धर्म: हिंदू धर्म और नैतिकता की एक उन्नत पाठ्यपुस्तक’, ‘भगवद गीता’, ‘स्वराज की एक रूपरेखा योजना’, ‘सभी धर्मों की आवश्यक एकता’, ‘आधुनिक समस्याओं के लिए प्राचीन समाधान’, और ‘आधुनिक समाजों का सामाजिक पुनर्निर्माण’ शामिल हैं। वह हिंदुस्तानी कल्चर सोसाइटी के एक सक्रिय सदस्य भी थे और हिंदी व संस्कृत भाषाओं को लोकप्रिय बनाने की समर्थन करते थे। उन्होंने हिन्दी और संस्कृत में 30 से भी अधिक पुस्तकों की रचना की है। साथ ही वह अध्ययन और अध्यापन कार्य से भी जुड़े रहे, विशेष रूप से हिन्दी भाषा के उत्थान और विकास में उनका योगदान उल्लेखनीय है। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने महत्त्वपूर्ण कार्य किये।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने 1920 के अंत में शुरू किए असहयोग आंदोलन में सरकारी सहायता से चलने वाली शिक्षण संस्थाओं को छोड़ने वाले आचार्यों में से एक भगवानदास भी शामिल रहे। भारत रत्न प्राप्त करने वाले भगवान दास के कार्यकाल को लोग आज भी याद करते रहते हैं। छात्र-छात्राओं सहित सभी को इसकी याद रहे इसके लिए विश्वविद्यालय के केंद्रीय पुस्तकालय का नाम उनके नाम पर रखा गया है। साथ ही बीएचयू में इनके नाम पर छात्रावास भी है।

अतः भारत रत्न डॉ. भगवानदास का शिक्षा के क्षेत्र में अहम योगदान रहा है, जिसे भुलाया नहीं जा सकता। महामना ने बीएचयू की स्थापना की तो भगवान दास ने विद्यापीठ की। ये दोनों संस्थाएं न सिर्फ काशी में शिक्षा की अलख जगाई बल्कि संपूर्ण विश्व में उत्कृष्ट शिक्षण संस्थान के रूप में ख्यातिलब्ध हैं। उस समय देश एक नई जागृति करवट ले रहा था, और डॉ. भगवानदास ने एक नई चेतना का संचार किया था, पूरा देश उनसे प्रभावित प्रबुद्ध लोग यह अनुभव करने लगे थे, कि देश की संस्कृति भाषा इतिहास के साथ देश की आम जनता में स्वभाव, मान-स्वाभिमान की भावना भरना जरूरी है, वे इसके लिए सरकार के प्रभाव से मुक्त शिक्षण संस्थाएं खोलना जरूरी समझते थे। उनके संयत जीवन, कर्म निष्ठा और उदारता का छात्रों पर गहरा प्रभाव पड़ा, वे मानवता के पुजारी थे। सभी धर्मों में उनके समान आस्था थी, उनमें राष्ट्रप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी।

(लेखक शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार की भारतीय भाषा समिति के शैक्षिक सलाहकार है।)

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