भारतीय भाषाओं (तमिल और तेलुगु) का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान – 1

 – डॉ. कुलदीप मेहंदीरत्ता

भारत विविधताओं से भरा एक विशाल राष्ट्र है जहाँ भले ही भौगोलिक अथवा प्रयोज्य क्षेत्र के आधार पर शाब्दिक तथा भाषिक प्रवृतियों के निर्वाह का क्रम बदलता हो, परन्तु इन भाषाओं में विभिन्नता होते हुए भी इनकी भावभूमि तथा विचारभूमि प्राय: एक ही रही है। इसलिए पाश्चात्य दृष्टि से देखे जाने पर विभिन्न राष्ट्रों का समूह प्रतीत होने पर भी भारतीय दृष्टि से यह देश एक ही राष्ट्र ‘भारत’ रहा है। अलग-अलग नाम व रूप वाली विभिन्न भाषाओं में एक समानता है, और वह है हजारों सालों से भारतीय संस्कृति का निरंतर, अविरल और अविच्छिन्न प्रवाहमान रहना।

डॉ नगेन्द्र ने लिखा कि ‘जिस प्रकार अनेक धर्मों, विचारधाराओं, और जीवन प्रणालियों के रहते हुए भी भारतीय संस्कृति की एकता असंदिग्ध है, इसी प्रकार और इसी कारण से अनेक भाषाओं और अभिव्यंजना पद्धतियों के रहते हुए भी भारतीय साहित्य की एकता का अनुसन्धान भी सहज एवं सम्भव है। भारतीय साहित्य का प्राचुर्य और वैविध्य तो अपूर्व है ही, उसकी यह मौलिकता एवं एकता और भी अधिक रमणीय है’।

ऐसा माना जाता है कि भारतीय भाषाओं में केवल तमिल को छोड़कर प्राय सभी भाषाओं का विकास लगभग एक कालक्रम में हुआ। कुछेक अपवाद के साथ विद्वानों में इस बात की लगभग सहमति दिखाई पड़ती है कि इन सभी भाषाओं के साहित्यिक विकास का पहला चरण दसवीं सदी से चौदहवीं सदी, दूसरा चरण पन्द्रहवीं से अठारहवीं सदी और तीसरा चरण अर्थात आधुनिक काल उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ से माना जाता है।

भावगत तथा साहित्यिक प्रवृतियों की आधारभूत एकसमानता ने इन विभिन्न भाषाओं के एक रूप ‘भारतीय साहित्य’ के स्वरूप को विकसित किया। डॉ. बी. के. गर्ग के अनुसार ‘सभी भारतीय भाषाओं के आदिकालीन साहित्य में यदि नाथ, सिद्ध, वीरकाव्य एवं श्रृंगार या लौकिक काव्य का प्राधान्य रहा तो मध्य काल में सभी भाषाओं में संत, भक्ति, सूफी, वैष्णव साहित्य की प्रधानता देखी जा सकती है। इसके बाद आधुनिक काल में अर्थात उन्नीसवीं सदी के मध्य से ही भारतीय साहित्य में राष्ट्रीय चेतना (नवजागरण तथा १८५७ के आसपास का समय) का स्फुरण प्रारम्भ हो जाता है’।

भाषाई तथा शिल्पगत प्रवृतियों में भी सभी भारतीय भाषाओं पर संस्कृत तथा परवर्ती काव्य-शैलियों का प्रभाव दिखाई पड़ता है। महाकाव्य, खंडकाव्य तथा मुक्तक काव्य के साथ परसर्गों का प्रयोग, वाक्य संरचना, सहायक क्रियाओं का प्रयोग तथा दोहा, चौपाई आदि छंदों का प्रयोग प्राय: इन सभी भाषाओं में किया गया है। शब्दावली के स्तर पर भी संस्कृत के शब्दों का तत्सम और तद्भव रूप प्राय: सभी भाषाओं में पाया जाता है।

वर्ष 1857 और उसके आसपास का समय भारतीय इतिहास की दृष्टि और साहित्यिक तथा सामाजिक पुनर्जागरण की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। अंग्रेजों के शोषणकारी और अत्याचारी शासन के विरुद्ध वर्ष १८५७ में भारत की जनता की प्रतिक्रिया को पहला स्वतन्त्रता संग्राम माना जाता है। इस समय के आसपास रचा गया साहित्य भारतीय संघर्ष चेतना का प्रेरक भी था और अनुशीलन भी। यह वही समय है जब सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य में ‘भारत’ एक सम्पूर्ण राष्ट्र और सभी भारतियों की ‘सांस्कृतिक और भावनात्मक एकता’ के रूप में परिलक्षित होता है।

जनजागरण और राष्ट्रीय चेतना के प्रवाह का अभूतपूर्व प्रदर्शन भारतीय भाषाओं के तत्कालीन गद्य और पद्य रूप में दिखाई पड़ता है। गुजरात, बंगाल, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश  महाराष्ट्र, ओड़िया, उत्तर प्रदेश तथा बिहार आदि – सब प्रकार के भौगोलिक बन्धनों का अतिक्रमण करते हुए सभी भाषाओं के लेखकों और कवियों ने भारत माता की स्वतन्त्रता का एकसमान स्वप्न देखा और राष्ट्रीय चेतना के जागरण के लिए साहित्य रच अपने दायित्व का निर्वहन किया। स्वतन्त्रता संग्राम में इन भारतीय भाषाओं के साहित्य की समाज जागरण और स्वतन्त्रता में भूमिका का अध्ययन प्रत्येक प्रबुद्ध व्यक्ति से अपेक्षित है। हिंदी भाषी क्षेत्रों के लिए इन भाषाओं का अध्ययन और विवेचन और भी आवश्यक है  क्योंकि हमारी शिक्षा प्रणाली की यह विडम्बना रही है कि हम हिंदी से इतर भारतीय भाषाओं और उनके साहित्यकारों को कम जानते हैं और विदेशी साहित्यकारों को अधिक। इन भाषाओं को जानने और इनका अध्ययन करने से हमारी एकता की भावना और भारतीयता की अनुभूति और तीव्र होगी। इस दृष्टि से कुछ प्रमुख भाषाओं और उनके साहित्य का संक्षिप्त विवेचन सुधी पाठकों के लिए प्रस्तुत है।

तमिल भाषा का योगदान

देश के स्वाधीनता आंदोलन ने भारतीय भाषाओं में रचे जाने वाले साहित्य को अत्यंत प्रभावित किया। सांस्कृतिक जागरण के इस महाअभियान से तमिल साहित्य भला अछूता कैसे रह सकता था। तमिल में  रामलिंगम पिल्लई, देशिकम विनायक पिल्लई, तिरु. वी. कल्याण सुन्दरानर, पावलार, रा. कृष्णमूर्ति कल्कि आदि ने स्वाधीनता संग्राम के लिए जागरण के स्वर रचे। तात्कालिक युगनायक महात्मा गांधी का सकारात्मक प्रभाव इन पर स्पष्ट दिखाई पड़ता है। महाकवि भरतियार के नाम से प्रसिद्ध सुब्रह्मण्यम भारती ने देशभक्ति, बन्धुत्व और राष्ट्रीयता का जो स्वर गुणगुनाया, उसने ‘भारती’ को एक राष्ट्रीय व्यक्तित्व के रूप में स्थापित कर दिया। सुब्रह्मण्यम भारती के गीत शक्तिगीत के नाम से प्रसिद्ध हुए। इसी परंपरा में विनायकम् पिल्लई और भारतीदामन के नाम उल्लेखनीय है। शुद्धानंद की रचना ‘भारत भूमि’ राष्ट्रीय जागरण की महाकाव्यात्मक अभिव्यक्ति है।

कृष्णमूर्ति कल्कि का तमिल भाषा में लिखा उपन्यास ‘अलै ओसै’ स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि के बारे में बताता है, इस उपन्यास की महत्ता के लिए कल्कि को १९५६ में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इसी प्रकार कल्कि का अन्य उपन्यास ‘त्याग भूमि’ नमक सत्याग्रह की पृष्ठभूमि पर आधारित राष्ट्रीय चेतना विकसित करने का अनुपम प्रयास था। नारायण दुरे कण्णन द्वारा रचित ‘त्याग तलुम्बू’ स्वतन्त्रता संग्राम की पृष्ठभूमि पर लिखा गया औदात्यपूर्ण उपन्यास है। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और उनकी आजाद हिन्द फ़ौज के संघर्ष को उकेरते हुए अखिलन ने ‘नेंजिन अलैकल’ की रचना की।

तमिल भाषा में कहानी लेखन का प्रादुर्भाव पाश्चात्य कहानियों के अनुवाद से हुआ। क्रांति कवि सुब्रह्मण्यम भारती कविता के साथ-साथ निबन्ध, कहानी आदि विधाओं के सृजक रहे हैं। सुब्रह्मण्यम भारती के कृतित्व से प्रभावित वराहनेरि वेंकटेश सुब्रह्मण्यम अय्यर ने अपने अनुवाद तथा लेखन से तमिल भाषी समाज में राष्ट्रीय चेतना के प्रचार-प्रसार का कार्य किया । इस प्रकार तमिल भाषा के कहानीकारों पुदौमैपित्तन, कु.प.राजगोपालन, रामैया आदि ने भी सामाजिक धार्मिक कुरीतियों पर प्रहार कर समाज को आत्म परिश्रम के लिए प्रेरित किया। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की कहानियों ‘अन्नेयुम पितावुम’ तथा ‘देवाने’ कहानियां प्रसिद्ध हैं। राजगोपालाचारी की तुलना प्रेमचंद की कहानियों से की जाती है क्योकि इनका लक्ष्य भी समाज सुधार, जनजागरण और राष्ट्रीय चेतना का प्रसार करना था। पावलार ने नाट्य विधा में राष्ट्रीय चेतना से परिपूर्ण ‘खदरिन वेदी’ नाटक को अभिनीत कर समाज जागरण में अपना योगदान किया। कृष्णमूर्ति का नाटक ‘अंडमान कैदी’ राष्ट्रीय जागरण की भावना में जागरण को समर्पित है।

तेलुगु भाषा का योगदान

स्वतंत्रता संग्राम में उठते जनजागरण और राष्ट्रीय चेतना के ज्वर से भला तेलुगु भाषा और साहित्य कैसे बचे रह सकते थे। नवीन सामाजिक – सांस्कृतिक तथा राजनीतिक आंदोलनों ने भारतीयों को कला-संस्कृति, साहित्य, धर्म, दर्शन आदि क्षेत्रों में आत्मावलोकन और आत्मसुधार का जो अवसर दिया, उसका प्रभाव तेलुगु भाषी क्षेत्रों पर भी पडा। तेलुगु के ‘अवधानों’ ने जनता में नई चेतना को जगाने का काम किया। तेलुगु के वीरेशलिंगम् को ‘भारतीय नवजागरण का सशक्त स्वर’ कहा जाता है। लोकसाहित्य की पंरपरा को जीवित करने वाले कवि जी. वी अप्पाराव ने जाति-पाति को चुनौती देते हुए राष्ट्रीय एकता को तेलुगु में नए स्वर प्रदान किए। गाँधी जी के दर्शन से प्रभावित विश्वनाथ सत्यनारायण, अडिडिवा पुराज, लक्ष्मीनारायण तथा कृष्णराव आदि कवियों ने राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना के गीत लिखकर तेलुगु भाषी जनता को संघर्ष के लिए प्रेरित किया।

आंध्र में नाटक-विधा के  पितामह कहे जाने वाले कृष्णमाचार्य ने पौराणिक कथाओं को आधार बनाकर स्वतन्त्रता की प्रेरणा देने वाले नाटक ‘निषाद सारंगधर’ ‘पांचाली परिणयम् ‘प्रहलाद’, ‘उषा परिणयम’ आदि लिखे। इतिहास को आधार बनाकर अंग्रेजी शासन के प्रतिरोध को तीव्र बनाने का कार्य श्रीनिवास राव, श्रीपादकृष्णमूर्ति शास्त्री तथा वेंकट सुब्बाराव आदि नाटककारों ने किया।

बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के बंगला में लिखित उपन्यासों ‘आनंदमठ’ और ‘कपालकुंडला का अनुवाद ओ. वाई. दुरैस्वामी द्वारा तेलुगु भाषा में किया गया। राष्ट्रीयता से ओतप्रोत इन अनुवादों ने जनता को जगाने का कार्य किया। समाज सुधार और जाति पाति पर कठोर प्रहम करते हुए नाटक ‘माल-पल्ली’ की रचना लक्ष्मीनारायण द्वारा की गई। इस प्रकार तेलुगु भाषा और साहित्य के साधकों ने स्वतंत्रता संग्राम और जनजागरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।

(लेखक चौधरी बंसीलाल विश्वविद्यालय, भिवानी (हरियाणा) में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष है।)

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