1857 की क्रांति का शंखनाद

 – रवि कुमार

देश की स्वतंत्रता के लिए एक साथ, एक समय प्रारम्भ होने वाली क्रांति का शंखनाद कैसे हुआ होगा? 31 मई 1857 के दिन सर्वत्र अंग्रेजों को खदेड़ दिया जाएगा, यह पूर्व निश्चित होने पर भी इतिहास के वर्णन में क्रांति का प्रारम्भ 10 मई 1857 क्यों आता है? चर्बी वाले कारतूस से भारतीय सैनिकों के मन में उठा विद्रोह देशभर में स्वतंत्रता संग्राम का रूप कैसे ले लेता है? ऐसे कई प्रश्न 1857 की क्रांति के विषय में आज की पीढ़ी के मन में हो सकते हैं। आइए इन प्रश्नों के उत्तर खोजते हुए इस स्वातंत्र्य समर के शंखनाद को भी जानने का प्रयास करते है।

1854 से प्रारम्भ हुई क्रांति की योजना पूरे देश में बन चुकी थी और आमजन के मन में स्वातंत्र्य की दृढ़ इच्छा 31 मई 1857 की भोर की प्रतीक्षा कर रही थी। यह योजना इतनी गुप्त थी कि अंग्रेजों को कानोकान भी इसकी कोई सूचना नहीं थी। 1857 की फरवरी में अंग्रेजी पत्र एवं अंग्रेजी सरकारी रिपोर्ट कहती है – “सम्पूर्ण देश पूर्ण रूपेण शांत है।” – चार्ल्स बाल कृत ‘इंडियन म्युटिनी’

चर्बी से चिकने किए कारतूसों के विषय में मेडली ने अपनी पुस्तक में लिखा है – “वस्तुतः चर्बी से चिकने किए गए कारतूसों की बात ने तो केवल उस सुरंग में अंगार मात्र ही लगाया था जिसका निर्माण अनेक कारणों द्वारा किया गया था।” श्री डिजराइली ने तो स्पष्ट शब्दों में इस धारणा को अस्वीकार किया था कि “चिकने कारतूस ही इस विद्रोह का मूल कारण थे।” – चार्ल्स बाल कृत ‘इंडियन म्युटिनी’, खंड १, पृष्ठ ६२९

1857 के स्वातंत्र्य समर का प्रथम बलिदानी मंगल पांडेय सेना की 19वीं पलटन का सैनिक था। इस 19वीं पलटन का केंद्र बैरकपुर (बंगाल) था। मार्च के प्रारम्भ में फिरंगी पलटन कलकत्ता आई और 19वीं पलटन को निशस्त्र कर काम से हटाने का आदेश जारी हुआ। इस आदेश पर कार्यवाही बैरकपुर की जाए, ऐसा निश्चित किया गया। यह चर्चा सभी सैनिकों में फैली। अपने बंधुओं को अपनी आंखों के सामने दंडित किया जाएगा, यह सुनकर शांत रहने वाला बैरकपुर नहीं था। वहां स्वतंत्रता की ज्वाला हर तलवार में जलने लग गई थी।

क्रांति नेताओं का मत था कि अभी एक माह और प्रतीक्षा की जाए। परंतु मंगल पांडेय की तलवार को कौन धीरज बंधाएँ? मंगल पांडेय के पवित्र रक्त में देश के स्वातंत्र्य की विद्युत चेतना प्रवेश कर गई थी। फिर उसकी तलवार कैसे धीरज रखे? शहीदों की तलवार को कभी धैर्य रहता है क्या! 29 मार्च 1857, आज ही विद्रोह किया जाए ऐसा मंगल पांडेय सभी से आग्रह कर रहे थे। गुप्त समिति के नेता इसकी अनुमति नहीं दे रहे हैं, ऐसा ज्ञात होते ही उस जवान का रुकना दुष्कर हो गया। मंगल पांडेय ने अपनी बंदूक उठाई और ‘मर्द हो वो उठो’ ऐसी गर्जना करते हुए परेड मैदान में कूद पड़ा। “अरे अब क्यों पीछे रहते हो? भाइयों, आओ, टूट पड़ो। तुम्हे तुम्हारे धर्म की सौंगन्ध है – चलो अपनी स्वतंत्रता के लिए शत्रु पर टूट पड़ो।” यह देखते ही सार्जेंट मेजर ह्यूसन ने सिपाहियों को पकड़ने का आदेश दिया परंतु इस आदेश का असर किसी सिपाही पर नहीं हुआ। इधर, मंगल पांडेय की बंदूक से निकली गोली ने ह्यूसन का शव तत्काल भूमि पर पटक दिया। लेफ्टिनेंट बॉ को अपनी तलवार से मंगल पांडेय ने परलोक पहुंचा दिया।

जनरल हिर्से को यह समाचार मिलते ही कुछ यूरोपियन सैनिकों को लेकर मंगल पांडेय को पकड़ने के लिए वह आगे बढ़ा। शत्रु के हाथ मेरा जीवित शरीर न लगे, इसलिए बंदूक अपनी ओर करके गोली दाग दी और अपना शरीर घायल कर लिया। इस नवयुवक को अस्पताल ले जाया गया। मंगल पांडेय का कोर्ट मार्शल कर जांच पड़ताल हुई।

8 अप्रैल 1857 की प्रातः फांसी स्थल पर स्वतंत्रता की बलि वेदी पर मंगल पांडेय चढ़ गया। मंगल पांडेय ने 1857 के क्रांति युद्ध में अपना रक्त दिया। उस कांति में जो जो स्वदेश और स्वधर्म के लिए लड़े उन सबको ‘पांडेय’ उपाधि लगाने का प्रचलन शुरू हो गया।

स्वतंत्रता सेनानी मंगल पांडेय के बलिदान से 1857 की क्रांति का बीज जमते ही उसे अंकुरित होने में देरी क्यों? उत्तर प्रदेश में जन्में मंगल पांडेय का रक्त बंगाल में ही नहीं अन्यों स्थानों पर भी क्रांति प्रारंभ करने की प्रेरणा दे रहा था। अम्बाला अंग्रेजी सेना का प्रमुख केंद्र था। वहां पर सेना अधिकारी कमांडर-इन-चीफ अन्सन रहता था। अम्बाला के सैनिकों ने नई तरकीब अपना रखी थी। वः तरकीब थी- जो भी अधिकारी उनके विरुद्ध हो जाए, उसका घर-बार जलाकर भस्म कर देना। अनेक देशद्रोहियों और फिरंगियों के घर जलने लगे। घर जलाने वालों का पता बताने वालों को हजारों रुपयों का ईनाम दिया जाता था परन्तु जलाने वालों का कोई नाम बताता ही नहीं था। अंत में परेशान होकर कमांडर-इन-चीफ अन्सन गवर्नर जनरल को पत्र लिखता है –

“It is really strange that the incendiaries should never be detected. Everyone is on the alert here, but still there is no clue to trace the offenders.” फिर अप्रैल के अंत में वह लिखता है – “We have not been able to detect any of the incendiaries at Ambala.”

इस प्रकार की आग हिन्दुस्थान में सब स्थानों पर फैलने लगी। अंतिम विशाल आग से पूर्व स्थान-स्थान पर चिंगारियां लगना स्वाभाविक थी। नाना साहब पेशवा के लखनऊ प्रवास के बाद वहां भी कुछ न कुछ होने लगा। यद्यपि गुप्त समिति के नेता 31 मई के दिवस एक साथ क्रांति के लिए सहमत थे परन्तु युवाओं के रक्त में और प्रतीक्षा कहाँ! 3 मई को चार सैनिक बलपूर्वक लेफ्टिनेंट मेशम के तंबू में घुसे और बोले, “आपसे यद्यपि हमारा कोई व्यक्तिगत द्वेष नहीं है, फिर भी चूँकि आप फिरंगी है, इसलिए आपको मरना होगा।” इस घटना के बाद वहां की पलटन को धोखे से नि:शस्त्र कर दिया गया।

19वीं व 34वीं पलटन को अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र के लिए दोषी ठहरा दिया गया और इन दोनों पलटनों के सैनिकों को निशस्त्र कर नौकरी से निकाल दिया गया। यह सब घटनाक्रम पलटन के सैनिकों के लिए सम्मान जैसा था। बाकि स्थानों पर बनी छावनियों में संकल्पबद्ध सैनिकों में मंगल पांडेय के बलिदान की चर्चा आग की तरह फ़ैल रही थी। यह किसे पता था कि यह बड़ी विशाल आग को आह्वान कर रही है। इधर फिरंगी सरकार भी सेना की छावनियों पर नजर रखे हुए थी।

9 मई 1857 को एक घटनाक्रम मेरठ छावनी में होता है। यूरोपियन कंपनी और तोपखाने की मार के पहरे में 85 भारतीय सैनिकों को खड़ा कर उनके कपडे उतरवाए गए, नि:शस्त्र किया गया, लोहे की भारी-भारी बेडियां उनके हाथों और पैरों में ठोक दी गई। यह सारा दृश्य दिखाने के लिए शेष भारतीय सैनिकों को जान-बुझकर बुलाया गया। इन 85 सैनिकों को 10 वर्ष का कठोर कारावास दंड सुनाकर जेल में बंद कर दिया गया।

यह घटना प्रातःकाल की है। फिरंगियों द्वारा अपने साथियों का ऐसा अपमान अपनी आखों से देखकर सैनिकों का धीरज टूटने लगा। दिन में सैनिक शहर के बाजार में गए। वहां की महिलाएं उनका तिरस्कार कर कहने लगी – “तुम्हारे बाप कारावास में भेजे गए हैं और तुम यहाँ मक्खियाँ मरते फिर रहे हो। थू तुम्हारी जिन्दगी पर!! मर्द हो तो कारागृह से वीरों को छुड़ाकर लाओ।” पहले से गुस्से से पगलाए सैनिकों को यह कैसे सहन होता। उस दिन रात में सैनिकों की गुप्त बैठकें होती रहीं। क्या अब भी 31 मई तक रुकना है? नहीं-नहीं, कल ही रविवार है। कल का नारायण अस्तमान होने से पूर्व स्वदेश जननी की बेड़ियाँ टूटनी ही चाहिए। तत्काल दिल्ली सन्देश भेजे गए – “हम तारीख 11 या 12 को वहां आ रहे हैं; सारी तैयारी करके रखो।”

10 मई 1857 का रवि उदय हुआ। 20वीं पलटन और तीसरी घुड़सवार पलटन के सैनिक बोले – चर्च में फिरंगियों के जाते ही ‘हर हर महादेव’ बोलो। मेरठ के आस-पड़ोस के गावों से भी टूटे-फूटे शस्त्र हाथों में लिए ग्रामीण नगर में एकत्र आ रहे थे और मेरठ शहर के नागरिक भी सुसज्ज हो रहे थे। सैनिक लाइन में एक ही गर्जना उठ रही थी – ‘मारो फिरंगी को’। धीरे धीरे सारा मेरठ शहर क्रांति के रंग में रंग गया। कारागृह से अपने धर्मवीरों को मुक्त करके, अंग्रेजों के रक्त के नाले बहाकर वे दो हजार सैनिक गोर रक्त से रंगी अपनी तलवारें ऊँची उठाकर गर्जना करने लगे – ‘दिल्ली ! दिल्ली ! चलो दिल्ली !!

बैरकपुर, अम्बाला, लखनऊ की घटना ने चिंगारी का कार्य किया परन्तु स्वतंत्रता के लिए बने इस ज्वालामुखी में सुनियोजित विस्फोट मेरठ में हुआ। 31 मई को सारे हिन्दुस्थान भर में ‘हर-हर महादेव’ एक साथ गूंज उठा होता तो सच में अंग्रेजी साम्राज्य की इतिश्री होने और स्वतंत्रता की विजय दुदुंभि बजाने के लिए इतिहास को अधिक देर ठहरना न पड़ता।

(लेखक विद्या भारती हरियाणा प्रान्त के संगठन मंत्री है और विद्या भारती प्रचार विभाग की केन्द्रीय टोली के सदस्य है।)

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