मलयालम भाषा का योगदान
१८५७ का स्वतंत्रता संग्राम कई संदर्भों में अद्भुत है। यह वास्तव में भारत की जनता के विरोध की भावाभिव्यक्ति थी जिसमें यह संदेश निहित था कि स्वतंत्रता की जो अग्नि भारत के विभिन्न भागों में भारतीय के हृदय में प्रज्वलित हुई, उसे अंग्रेज ज्यादा लंबे समय तक नहीं दबा सकते। स्वतंत्रता की इस चेतना का सामाजिक-सांस्कृतिक नवजागरण की बेला में केरल प्रदेश में मलयालम भाषा के प्रसिद्ध कवि और साहित्यकार वल्लातोल ने जगाया। इसके अतिरिक्त मलयालम में उल्लूर एस. परमेश्वर अय्यर, कुमारान असान् आदि कवियों का नाम उल्लेखनीय है। उल्लूर रचित महाकाव्य ‘उमाकेरलम्’ में स्वतंत्रता संग्राम की चेतना स्पष्ट परिलक्षित होता है।
स्वतंत्रता संग्राम में गांधी जी के अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही है उनके प्रभाव से देश का प्रत्येक भौगोलिक और सांस्कृतिक भाग, स्वतंत्रता की चेतना से ओतप्रोत हुआ। जी. शंकर कुरुप्प, जिन्हें महाकवि जी के उपनाम से जाना जाता है, मलयालम साहित्य के कवि, निबंधकार और आलोचक के रूप में विख्यात हैं। उनके साहित्य रचाव पर गांधी जी का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। स्वदेशी सामाजिक सुधार, राजनीतिक जागरण के विषयों पर केरल वर्मा, वेंमणि तथा ए. आर राजवर्मा ने मलयालम साहित्य रचा। अतीत के गौरव को आधार बनाकर कुमारान आसन ने सामाजिक जागरण का कार्य किया। केरल वर्मा और राजराजा वर्मा जैसे साहित्यकारों ने मलयालम में राष्ट्रीय पुनर्जागरण का मार्ग प्रशस्त किया।
केरल वर्मा की ‘मयूर संदेश’, के. वी. माप्पिला की ‘मलयालम मनोरमा’, सी.पी. अच्युत मेनन की ‘विद्याविनोदिनी’ आदि पत्रिकाएँ राष्ट्रीय जागरण में अपनी भूमिका निभाने के कारण उल्लेखनीय हैं। सरदार के नाम से विख्यात के. एम पणिक्कर की प्रसिद्धि कवि, उपन्यासकार, नाटककार, आलोचक तथा राजनीतिक कूटनीतिज्ञ के नाते है। साहित्य सर्जक पणिक्कर ने अपनी रचनाओं के माध्यम से केरल क्षेत्र में सामाजिक-राजनीतिक जागरण का कार्य किया।
मलयालम में लोकनाट्य परंपरा का प्रारंभ संगीत नाटक के रचाव से हुआ। संगीतज्ञ तथा कवि के. सी केशव पिल्ले का ‘सदरमा’, ग्राम्य जीवन पर आधारित तोप्पिल भासी के संगीत नाटकों ने समाज जागरण का कार्य किया, तत्वकालीन मलयालम नाटकों की भावभूमि में समाज सुधार और राष्ट्रप्रेम के तत्व सर्वोपरि हैं। भट्टतिरिप्पाद, दामोदरन, गोविंदन, के. टी. मोहम्मद, सुरेंद्रन आदि ने दहेज, जाति प्रथा, सामाजिक सुधार को मलयालम भाषा में स्वर दिया।
उपन्यास के क्षेत्र में मलयालम का पहला उपन्यास ‘इंदुलेखा’ को माना जाता है जिसमें लेखक ओ चंदू मेनन थे। इंदुलेखा को तात्कालिक सामाजिक कुरीतियों, विशेषकर महिला सशक्तिकरण के संदर्भ में समाज के जागरण का एक स्रोत माना जाता है। पोत्तेरेकार कृत उपन्यास ‘मुतुपतय’ देश विभाजन की कथा है जिसमें स्वतंत्रता संग्राम की सफलता और विभाजन के रूप में असफलता के कारणों का विवेचन है। सी.वी रमन पिल्लई ने ट्रावनकोर के राजा धर्मराज पर ‘रामराजा बहादुर’ तथा मार्तण्ड वर्मा के राज्यकाल पर ‘मार्तण्ड वर्मा’ नामक उपन्यासों की रचना की। स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक परिष्कार के तत्व इन उपन्यासों में प्राथमिकता से देखने को मिलते हैं। ‘कल्याणमल’ और ‘केरल सिंह’ में केरल के लोगों द्वारा अंग्रेजों के प्रति किए गए विरोध का वर्णन है।
यह भी पढ़ें : भारतीय भाषाओं (तमिल और तेलुगु) का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान – 1
मराठी भाषा का योगदान
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध का काल सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से नवजागरण को काल है जिसमें भारत की विभिन्न भाषाओं में राष्ट्रीय चेतना का प्रसार करने वाला साहित्य प्रचुर मात्रा में रचा गया। मराठी में केशवसुत सामाजिक सुधार आंदोलन के प्रमुख नेता थे, उनकी रचनाओं ‘तुतारी’ और ‘नव-सिपाही’ हिंदू-मुस्लिम एकता का स्वर स्पष्ट सुनाई पड़ता है। मराठी भाषा के युगपुरुष कहे जाने वाले विष्णुशास्त्री चिपलूणकर १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के समय केवल सात वर्ष के थे परंतु प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम से प्रभावित होकर बालक विष्णु ने विदेशी राज को उखाड़ने की प्रतिज्ञा कर डाली। हिंदी के भारतेंदु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित साहित्य से चिपलूणकर की रचनाधार्मिता की तुलना की जाती है।
मराठी में गोपाल गणेश आगरकर ने ‘केसरी’ नामक प्रसिद्ध समाचार पत्र के प्रथम संपादक के रूप में कार्य किया। आगरकर ने राष्ट्रीय और सामाजिक चेतना को समाज में पुनर्स्थापित करने का अथक प्रयास किया। राष्ट्रीय चेतना के प्रसार के लिए नारायण वामन तिलक, कारन्दिकर, भास्कर रामचंद्र तांबे, वासुदेव गोविंद मदेव आदि कवियों ने गुलामी की बेड़ियां तोड़कर जनता की खुली हवा में सांस लेने के लिए प्रेरणा दी। संत तुकाराम, संत एकनाथ, संत नामदेव, संत रामदेव, संत रामदास, ज्योतिबा फुले, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद अरविंद घोष के विचारों से अनुप्राणित मराठी साहित्य में भारतीय इतिहास और मराठी वीर परंपरा चेतना के नए स्वर फूटे।
लोकमान्य के नाम से सुविख्यात बाल गंगाधर तिलक मराठी जागरण के स्वतंत्रता संघर्ष के सबतलम हस्ताक्षर हैं। ‘केसरी’ और ‘मराठा’ में तिलक, आगरकर और चिपलूणकर की लेखनियों ने वह आग उगली कि अंग्रेजी सरकार ने क्रांति की धार को कम करने के लिए तिलक को छह साल के लिए मांडले जेल में भेज दिया। ऊर्जा के अदम्य स्त्रोत तिलक ने अपनी जेलयात्रा का सदुपयोग करते हुए ‘गीता रहस्य’ जैसा सुंदर ग्रंथ रचा। गीतारहस्य का महत्व इसलिए विशिष्ट है कि धर्म और अध्यात्म के दायरे से बाहर जाकर तिलक ने स्वदेश, स्वभाषा, स्वगौरव तथा स्व-संस्कृति के पक्षों को गीता से जोड़कर न केवल गीता को एक नया अर्थ दिया बल्कि मराठी भाषा में आध्यात्मिकता और राष्ट्रीयता का अद्भुत समन्वय सबके सामने प्रस्तुत किया। जिसका प्रभाव समकालीन और बाद के मराठी साहित्यकारों पर स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है।
ऊपरलिखित पुरुष साहित्यकारों के अतिरिक्त महिला साहित्यकारों की एक पूरी श्रृंखला मराठी साहित्य में उपस्थित है जिसने महाराष्ट्र की वीर परंपरा को आधार बनाकर शिवाजी के ओजस्वी और वीर व्यक्तित्व से प्रेरणा लेकर भारत केंद्रित जागरण और स्वतंत्रता का साहित्य रचा। इनमें श्रीमती सुमन, शारदाबाई परांजपे, लक्ष्मीतन्यता और सिंधुसुता के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति की आकांक्षा में मराठी सहित सभी भाषाओं में साहित्यकारों के लिए अखंड भारत की संकल्पना ने भी प्रेरणा और आत्म गौरव के स्वरों को भावाभिव्यक्ति दी है। बापूजी ठोमरे की रचनाओं यथा अरुण, धर्मवीर तथा संजयतारिका में समर्थ और सक्षम युवा वर्ग का आह्वान है कि वे स्वतंत्रता की संघर्षयात्रा में मराठी और भारतीय नवचेतना के वाहक बने। विनायक कारन्दिकर ने पन्ना धाय के बलिदान, दुर्गावती की वीरता और परमिनी के त्याग को आधार बनाकर महिलाओं का स्वतंत्रता संग्राम में अपनी महती भूमिका निभाने के लिए प्रेरित किया।
हरिनारायण आप्टे का १८९५-९७ में प्रकाशित उपन्यास ‘उषाकाल’ और तत्पश्चात प्रकाशित ‘सूर्योदय’, ‘सूर्य ग्रहण’, ‘वज्राघात’, ‘मध्याह्न’ आदि उपन्यास, इतिहास और सामाजिक दृष्टि का समन्वय है जिन्होंने समाज को प्रेरणा देने का कार्य किया। इसी प्रकार शांताबाई ने ‘हाथ का धर्म’ उपन्यास में सामाजिक कुरीतियों को उद्घाटित किया। वि.स. खांडेकर ने ‘कंचनमृग’ उपन्यास की रचना की जिसे प्रेमचंद की रचनाओं के समक्ष रखा जाता है। साने गुरुजी के नाम से विख्यात पांडुरंग सदाशिव साने (मराठी, शिक्षक, लेखक व स्वतंत्रता सेनानी) ने अपनी कृतियों ‘क्रांति’ तथा ‘श्यामची आई’ में पश्चिम के नकारात्मक प्रभावों जैसे सामाजिक टूटन और बिखराव का चित्रण करते हुए भारतीय मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास किया है। महात्मा गांधी जी का प्रभाव मराठी साहित्य की लगभग प्रत्येक विधा पर स्पष्ट दिखाई पड़ता है। उपन्यास विधा में भार्गवराम बिट्ठल वरेरकर ने न केवल ‘आनंदमठ’ जैसी कृतियों का मराठी अनुवाद किया बल्कि राष्ट्रीय चेतना पर आधारित कई उपन्यासों की रचना भी की।
(लेखक चौधरी बंसीलाल विश्वविद्यालय, भिवानी (हरियाणा) में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष है।)
और पढ़ें : भारतीय भाषाओं (कन्नड़, बंगला, ओड़िया और असमिया) का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान – 2