– निखिलेश महेश्वरी
भारतीय सनातन संस्कृति अनादि, अनंत और चिर पुरातन है। अपनी सनातन संकृति ने अनेक उतार चढाव, संघर्ष के साथ अपने को सुरक्षित और जीवित रखा। सनातन संस्कृति के अनंत प्रवाह के बीच अनेक आयातित बुराइयां भी पनपी। पर जैसे नदी के प्रवाह में कोई गंदगी आती है तो उसे स्वच्छ करने का प्रयत्न भी होता हैं। उसीप्रकार सनातन हिन्दू संस्कृति में आयातित बुराइयां को दूर करने का भी निरंतर प्रयत्न हुआ हैं। गत दो हजार वर्षो में शक, हूण, यवन, मुस्लिम और अंग्रेजों के आक्रमण से अनेक कुरीतियों ने इस सनातन संस्कृति को ग्रसित करने का प्रयास किया। लेकिन इन कुरीतियों से निजात दिलाने के लिए अनेक महापुरुषों ने इस भू-धरा पर जन्म लेकर उसको निर्दोष करने के निरंतर प्रयत्न किए। बाल विवाह, नारी शिक्षा निषेध, सतीप्रथा, पर्दा प्रथा, समुद्र पार नहीं जाना, अशिक्षा, अंधविश्वास और अस्पृश्यता, भेदभाव जैसी कुरीतियों ने समाज में असमानता का वातावरण निर्मित किया। लेकिन इन सब से मुक्ति दिलाने के लिए शंकराचार्य, गौतम बुद्ध, भगवान महावीर, गुरू नानक, संत रामनंद, कबीर, महर्षि दयानंद, राजाराम मोहन राय, ज्योतिबा फूले, महात्मा गाँधी, डॉक्टर हेडगेवार और डाक्टर आंबेडकर आदि ने अपना संपूर्ण जीवन समर्पित किया।
समाज में निर्मित कुरीतियों में सबसे बड़ा अभिशाप सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता हैं। इस अस्पृश्यता नाम की महामारी को दूर करने का प्रयास संत रामानंद, वीर सावरकर, महात्मा गाँधी एवं डाक्टर हेडगेवार आदि ने किया। यह सब महापुरुष सामान्य वर्ग से रहे लेकिन जिनके साथ भेदभाव हुआ उनमें से किसी व्यक्ति ने उसका पुरजोर विरोध कर कथाकथित अस्पृश्य समाज को सम्मान से जीने का अधिकार दिलाया तो वह है डाक्टर भीमराव रामजी आंबेडकर हैं।
इस आधुनिक भारत के दधीची, आधुनिक मनु या कहे स्वतंत्रता, समानता और बन्धुता के पुरोधा डॉक्टर भीमराव रामजी आंबेडकर भारतीय मनो की आसंदी पर विराज कर भारतीय समाज के हृदय पर निर्बाध शासन कर रहे हैं। आज जब समरस समाज के निर्माण की बात चलती हैं तो स्वभाविक रूप से आंबेडकर जी का नाम सबसे ऊपर आता है, उनका जीवन प्रेरक है लेकिन कुछ लोग उन्हें केवल एक वर्ग तक सीमित कर देते है जो उस महान विभूति का अपमान है। उनका जीवन तो संपूर्ण मानव जाति पर उपकार है। आंबेडकर जी के कार्यों के लिए संपूर्ण राष्ट्र ने उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए।
डॉक्टर भीमराव रामजी आंबेडकर के बारे में निष्कर्ष रूप में कहा जाए तो वह सर्वांग पुरुष थे। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिकसभी दृष्टि से एक उच्च कोटि के कृतित्व और व्यक्तित्व थे। साहित्य की दृष्टि से देखा जाए तो उनका लिखा साहित्य आज प्रचूर मात्रा में है, आंबेडकर जी एक उच्च कोटी के संपादक थे उन्होंने मूकनायक, बहिष्कृत भारत, प्रबुद्ध भारत जैसे समाचार पत्रों का कुशलता पूर्वक संपादन किया। राजनीतिक दृष्टिकोण से वह ‘शेड्यूल कास्ट फेडरेशन’नाम का दल बनाते और बाद में उसका नाम बदलकर रिपब्लिक पार्टी कर देते है। अपने समाज को राजनीतिक अधिकारों के लिए जागृत करते हैं।आंबेडकर जी मूलरूप से अर्थशास्त्री थे। उनके विचार के अनुसार ही अपने देश में भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना की गई। आंबेडकर जी हिन्दू धर्म की कुरीतियों से देश को मुक्त करना चाहते थे। वह हिन्दु धर्म के नहीं बल्कि उसकी कुरीतियों के विरूद्ध लड़े इसलिए उन्होंनें 1935 में घोषणा की – “मैं हिन्दू के रूप में जन्मा हूँ, मगर मरूँगा नहीं।” यह घोषणा एक चुनौती थी। उनको लगता था इस घोषणा के पश्चात शायद हिन्दु धर्म का नेतृत्व हिन्दु धर्म की कुरीतियों को हटाने का प्रयत्न करेगा और वह समरस समाज के निर्माण में उनके विचार को मान्यता देगा।
लेकिन दुर्भाग्य ही कहेंगे इस घोषणा के पश्चात हिन्दु समाज का नेतृत्व आंबेडकर जी के अनुरूप समाज को उचित सम्मान न दिला सका, इसके विपरित मुस्लिम उलेमा एवं इसाई पादरियो ने उनसे संपर्क करना प्रारंभ किया, कई स्थानों पर तो आंबेडकर जी के लिए धनसंग्रह भी प्रारंभ किया, जिससे बड़ी मात्रा में धर्मांतरण किया जा सके। गाडफ्रे ने ‘दि अचनचेबल्स क्लेस्ट’नामक पुस्तक प्रकाशित की और उसने इसाई मिशनरियों से आह्वान किया कि यदि उन्होंने डॉक्टर बाबासाहेब के आंदोलन का उपयोग कर लिया तो लाखों अस्पृश्य इसाई धर्म स्वीकार कर लेंगे।
लेकिन इनके बारे में आंबेडकर जी का स्पष्ट मत था, मुस्लिम और इसाई हिन्दुस्तान के बाहर के धर्म है और इनकी निष्ठा भारत में नहीं, बाहरी है। वह अपने समाज को अराष्ट्रीय बनाना नहीं चाहते थे इसलिए उन्होंने बहुत इंतजार, धैर्य के साथ अपनी मृत्यु के दो माह पूर्व एवं अपनी घोषणा के 21 वर्ष पश्चात भारत की धरती पर उत्पन्न और हिन्दु विचार से उपजे बौद्ध पंथ में दीक्षा ग्रहण की। यह सब उनका भारत के प्रति अपना प्रेम दर्शाता हैं। उनकी हिन्दु धर्म के प्रति कितनी आस्था थी यह इस बात से पता चलता है कि दीक्षा भूमि में हिन्दु धर्म का त्याग करते समय उनका गला भर आया था। एक स्थान पर बाबासाहब ने कहा था–“मैने यह सावधानी रखी है कि इस देश की संस्कृति व इतिहास की परंपरा को धक्का न पहुंचे।”
आंबेडकर जी संविधान निर्माण में सभी समाज और जिस जाति को वह सम्मान दिलाना चाहते थे उसे उन्होंने कानूनी रूप से मान्यता दिलाई। जिस प्रकार के विधान की आवश्यकता भारत को थी, उसकी रचना उन्होंने की, सुशासन कैसा हो तो राम दरबार का चित्र संविधान की मूलप्रति में जोडकर उन्होंने भारत की आदर्श राज्य व्यवस्था को दर्शाया, कई स्थानों स्थानों पर वेदों की ऋचाओं का उल्लेख कर भारतीय जीवन मूल्य को मान्यता दी। इसप्रकार हम अगर देखे तो भारत के संविधान निर्माता के रूप में वह आधुनिक मनु बन गए।
आंबेडकर जी ने समाज को समता, समरसता युक्त बनाने के लिए लड़ाई लड़ी थी। आंबेडकर जी के समकालीन महात्मा गाँधी ने येरवड़ा जेल में अनशन के कारण कई छोटे-बड़े मंदिर के दरवाजे अनुसूचित समाज के लिए खुल गए, पंढरपुर का विठ्ठल मंदिर सभी के लिए खुला रहे इसके लिए साने गुरूजी ने सत्याग्रह किया, वीरसावरकर जी ने रत्नागिरी में अनुसूचित समाज को मंदिर प्रवेश दिलाया, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार बिना भेदभाव के हिन्दुओं को एकत्रित लाते है और आंबेडकर जी को बुलाकर उसके दर्शन भी कराते हैं। आंबेडकर जी के जाने के पश्चात भी देश में समरसता और समता मूलक समाज के निर्माण के लिए अनेक प्रयत्न आज भी जारी है। इन प्रयासों को तीव्र गति देते हुए सभी ने भेदभाव नाम की खाई को समाप्त करने का प्रयास करना चाहिए। वर्तमान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी के शब्द सभी के लिए एक दिशा बोध हो सकते हैं – “एक ही मंदिर, एक जलाशय, सबका एक श्मशान हो”। आंबेडकर जी ने जिस स्वतंत्रता, समानता और बन्धुता के लिए कार्य किया वैसा ही भाव हम सब लेकर कार्य करें और उनके सपनों का भारत निर्मित कर पाए, यह उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
(लेखक विद्या भारती मध्यभारत प्रान्त के संगठन मंत्री है।)
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