– वासुदेव प्रजापति
हम संस्कारों को तीन सन्दर्भों में समझ सकते हैं। ये तीन सन्दर्भ हैं —।
- मनोवैज्ञानिक सन्दर्भ में
- सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भ में
- पारम्परिक कर्मकांड के सन्दर्भ में।
इन तीनों प्रकार के संस्कारों को समझने से पूर्व हम इस कथा का रस लेंगे।
संस्कार और बालमन
व्यक्तिगत जीवन में सत्य और सदाचार का पालन करने में जितना महत्त्व सत्संग का है, उतना ही महत्त्व बाल्यकाल के संस्कारों का है। बाल्यकाल के संस्कार व्यक्ति के जीवन को श्रेष्ठ बनाने में महती भूमिका निभाते हैं।
एक साधु को एक दिन सजीव भिक्षा मिली, अर्थात् उस दिन भिक्षा में एक बालक मिला। साधु भिक्षा लेकर आश्रम में आए, वह भिक्षा पात्र गुरुजी को दिया। उस दिन भिक्षा पात्र भारी था, इसलिए गुरुजी ने उस बालक का नाम वज्र कुमार रखा और आश्रम की साध्वियों को वह बालक दे दिया गया। साध्वियों ने बालक वज्र कुमार का पालन-पोषण बहुत ही अच्छी प्रकार किया। बीच-बीच में वे साधु भी आकर वज्र कुमार को सम्हालते रहते थे। इन सबके परिणाम स्वरूप एक-दो वर्ष में ही वह बालक वज्र कुमार स्वस्थ और सुन्दर दिखने लगा।
बच्चे के समाचार उसकी माँ तक पहुँचते। एक दिन उसकी माँ अपने बच्चे को देखने आई। बच्चे को खुशहाल देखकर उसका मन बदल गया, वह उसे अपने घर ले जाने लगी। परन्तु साधु मंडली उसे देने को तैयार नहीं हुई, परिणाम स्वरूप वहाँ वाद-विवाद खड़ा हो गया। जब विवाद का कोई समाधान नहीं निकला तो बात राजा तक पहुंची। अब राजदरबार में इसका निर्णय होने वाला था कि बालक किसके पास रहे, उसकी माँ के पास या साधु-मंडली के पास।
अतः बालक की माँ उसके लिए विविध प्रकार के खिलौने और मिठाइयाँ लेकर आई तो साधु-मंडली भी उस बालक के लिए चित्रपौथी और धार्मिक उपकरण लेकर आई। राजा ने उस बालक को इन दोनों सामग्रियों के बीच में बैठाने का आदेश सेवकों को दिया। उन सभी सामग्रियों के बीच में बैठे बालक वज्र कुमार ने पहले उन वस्तुओं को देखा फिर धार्मिक उपकरणों की तरफ बढ़ा और उनको उठा लिया, उसने खिलौनों और मिठाई की तरफ झाँका तक नहीं। राजा के लिए निर्णय करना सुगम हो गया, वह बालक साधु-मंडली को सौंप दिया।
कथा का तात्पर्य यह है कि वह अबोध बालक आश्रम में मिले धार्मिक संस्कारों के कारण खिलौने और मिठाई छोड़कर धार्मिक उपकरणों की ओर बढ़ा। यदि उसे धार्मिक संस्कार न मिले होते तो वह उनकी ओर आकर्षित नहीं होता। जिन बालकों को बचपन में अच्छे संस्कार मिलते हैं, वे बड़े होकर अपने जीवन में श्रेष्ठ कार्य करते हैं। इसलिए बचपन को संस्कारों की अवस्था माना गया है।
अब हम मनोवैज्ञानिक सन्दर्भ में संस्कारों के दूसरे वर्गीकरण को समझने का प्रयत्न करेंगे।
मनोवैज्ञानिक सन्दर्भ में संस्कार
संस्कारों का एक वर्गीकरण हमने पहले जाना है। उसमें क्रिया के परिणाम स्वरूप कर्मज संस्कार, अनुभव के परिणाम स्वरूप ज्ञानज संस्कार और भावों के परिणाम स्वरूप भावज संस्कार होते हैं। संस्कारों के इस दूसरे वर्गीकरण में संस्कारों के चार पहलू हैं –
- पूर्वजन्म के संस्कार
- आनुवंशिक संस्कार
- संस्कृति के संस्कार
- वातावरण के संस्कार
पूर्वजन्म के संस्कार
संस्कार चित्त पर होते हैं। चित्त स्थूल शरीर का भाग नहीं है, वह सूक्ष्म शरीर का भाग है। जब व्यक्ति की मृत्यु होती है तब सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर से अलग हो जाता है। स्थूल शरीर का अग्नि संस्कार कर दिया जाता है और सूक्ष्म शरीर नया जन्म लेता है। सूक्ष्म शरीर का नया जन्म लेना ही पुनर्जन्म कहलाता है। इस जन्म में सूक्ष्म शरीर के माध्यम से पहले जन्म के संस्कार भी साथ आते हैं, इन्हें ही हम पूर्वजन्म के संस्कार कहते हैं।
इस प्रकार संस्कार एक जन्म से दूसरे जन्म में बने रहते हैं। संस्कार बचे हुए कर्मफल भोग लेने पर नष्ट हो जाते हैं, किन्तु पुराने कर्मफल भोगते भोगते नये संस्कार बनते रहते हैं, इसे ही हम संस्कार परम्परा कहते हैं। जब तक जीवन चलता है, तब तक संस्कार परम्परा भी चलती रहती है। संस्कारों को जब-जब अनुकूल अवसर मिलता है तब-तब वे प्रकट होते रहते हैं। एक बार जो संस्कार बन जाते हैं, वे बदल नहीं सकते और नष्ट भी नहीं होते। केवल निर्विकल्प समाधि से ही इन संस्कारों का लोप हो सकता है।
आनुवंशिक संस्कार
जब सूक्ष्म शरीर नया जन्म लेता है, तब माता-पिता के रज और वीर्य के माध्यम से उसे संस्कार प्राप्त होते हैं। इन संस्कारों में माता-पिता के सम्पूर्ण चरित्र के संस्कार मिलते हैं। ये संस्कार केवल माता-पिता से ही नहीं अपितु माता की पाँच पीढ़ियों तथा पिता की चौदह पीढ़ियों के पूर्वजों के संस्कार जीव को प्राप्त होते हैं। ये संस्कार उसके सूक्ष्म शरीर के अंग बनते हैं। इन संस्कारों को कुल के संस्कार भी कहते हैं। ये कुल के संस्कार भी सदैव सूक्ष्म शरीर के साथ ही रहते हैं। इनमें कोई परिवर्तन नहीं होता और ये नष्ट भी नहीं होते हैं। पूर्वजन्म के संस्कारों की तरह इनका भी निर्विकल्प समाधि के द्वारा ही लोप हो सकता है।
संस्कृति के संस्कार
जीव जिस जाति या संस्कृति में जन्म लेता है, उस जाति का स्वभाव तथा उस संस्कृति के संस्कार उसे जन्मजात प्राप्त होते हैं। उसका स्वभाव, उसकी आकृति, उसके व्यवहार की पद्धति, उसका दृष्टिकोण आदि के संस्कार उसकी संस्कृति से ही मिलते हैं। इसलिए भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के लोग भिन्न-भिन्न स्वभाव व आकृति के होते हैं। उनका भिन्न-भिन्न स्वभाव व आकृति का होने का कारण विभिन्न संस्कृतियों में भेद होना ही है। ये संस्कृति के संस्कार भी आजीवन बने रहते हैं, केवल समाधि में ही इनका लोप हो सकता है।
वातावरण के संस्कार
जन्म के पश्चात बालक जिस वातावरण में, जिस संगति में, जिस परिस्थिति में रहता है, वैसे ही संस्कार उस पर होते हैं। इन्हें वातावरण के संस्कार कहते हैं। बालक यदि अच्छे लोगों की संगति में रहता है, स्वच्छ और पवित्र वातावरण में रहता है, उसको सबका प्रेम पूर्ण व्यवहार मिलता है तो वह दिव्य गुण सम्पन्न व्यक्ति बनता है। परन्तु ये वातावरण के संस्कार बहुत ही ऊपर-ऊपर के होते हैं। वातावरण बदलने के साथ-साथ इनका स्वरूप भी बदल जाता है। ये सुक्ष्म शरीर का अंग भी नहीं बनते। अर्थात् वातावरण के संस्कार स्थायी नहीं होते।
इन चारों प्रकार के संस्कारों में पूर्वजन्म के संस्कार सबसे अधिक बलवान और स्थायी होते हैं, दूसरे क्रम पर आनुवंशिक संस्कार आते हैं, तीसरे क्रम पर संस्कृति के संस्कार और चौथे क्रम पर वातावरण के संस्कार आते हैं। इसी क्रम से ये प्रभावी होते हैं। अतः इस जन्म में अच्छे कर्म करेंगे तो हमारा अगला जन्म सुधरेगा। अर्थात् अगले जन्म में हमें पूर्वजन्म के अच्छे संस्कार प्राप्त होंगे।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
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