– वासुदेव प्रजापति
संस्कार शब्द का प्रयोग सर्वत्र प्रचलित है। शिक्षा में संस्कारों का अभाव सर्वविदित है। विशेष रूप से शिशु शिक्षा में संस्कारों का न होना चिंताजनक है। अतः शिक्षा क्षेत्र में कार्यरत शिक्षकों एवं अन्य सभी लोगों के लिए संस्कार क्या है और इनका जीवन में क्या महत्त्व है? यह जानना अत्यावश्यक है। संस्कारों को जानने से पूर्व हम इस कथा का आनन्द लेंगे।
अस्पृश्य कौन है?
महात्मा बुद्ध शिष्यों सहित सभा में विराजमान थे। उसी समय बाहर खड़े एक व्यक्ति ने चिल्ला कर कहा, आज मुझे सभा में बैठने की अनुमति क्यों नहीं दी गई? बुद्ध नेत्र बन्द किये ध्यानमग्न ही रहे। उस व्यक्ति ने फिर चिल्लाकर वही प्रश्न दोहराया। तब एक शिष्य ने पूछा- भगवन! बाहर खड़े उस व्यक्ति को अन्दर आने की अनुमति दे दें? अब बुद्ध ने अपने नेत्र खोले और बोले- नहीं! वह व्यक्ति अस्पृश्य है। अस्पृश्य! सभी शिष्य घोर आश्चर्य में डूब गए। बुद्ध सभी शिष्यों के मन का भाव समझते हुए बोले- हाँ, वह अस्पृश्य है। शिष्यों ने बुद्ध से पूछा- वह अस्पृश्य क्यों न कैसे हुआ भगवन! हमारे धर्म में तो जात-पात का कोई भेद नहीं है, हम तो जाति के आधार पर किसी को स्पृश्य या अस्पृश्य नहीं मानते।
बुद्ध ने सभी शिष्यों को समझाते हुए कहा- देखो! मैंने इसे जाति के आधार पर अस्पृश्य नहीं कहा है। मैं तो इसकी जाति भी नहीं जानता, फिर जाति से कोई अस्पृश्य नहीं होता, अस्पृश्य होता है मन के दुर्भावों से। आज यह क्रोध में भरकर आया है, क्रोध से जीवन की एकता भंग होती है। क्रोधी व्यक्ति मानसिक हिंसा करता है। इसलिए किसी भी कारण से क्रोध करने वाला व्यक्ति अस्पृश्य है। उसे कुछ समय तक अकेला, एकान्त में खड़ा रहना चाहिए। जब वह एकान्त में खड़ा रहेगा तब वह पश्चाताप की अग्नि में तपेगा और उसे स्मरण होगा कि अहिंसा परम धर्म है। अब सभी शिष्यों को समझ आ गया कि अस्पृश्यता क्या है और अस्पृश्य कौन है।
संस्कार क्या है?
व्यक्तित्व के पंचकोशात्मक विकास के प्रकरण में हमने जाना कि ज्ञानार्जन के साधनों में चित्त नामक जो साधन है, उस चित्त पर संस्कार होते हैं। संस्कार होते हैं का अभिप्राय क्या है? अभिप्राय यह है कि किसी भी वस्तु या पदार्थ को देखने से, सुनने से, स्पर्श करने से, उसके साथ रहने से अथवा उसमें मन लगाने से चित्त पर जो छाप पड़ती है, उसे संस्कार कहते हैं। जिस प्रकार सफेद कपड़े पर मिट्टी के, चाय के, सब्जी के या किसी रंग के धब्बे पड़ते हैं, ठीक वैसे ही चित्त पर भी अनुभव, क्रिया, विचार व भाव आदि की छाप पड़ती है, इसे ही संस्कार होना कहते हैं।
हमारी छोटी या बड़ी प्रत्येक क्रिया की छाप पड़ती ही है, चाहे वह अच्छी हो या बुरी, छाप न पड़े ऐसा नहीं होता। अर्थात् प्रत्येक कर्म के संस्कार होते ही हैं। चाहे वे अच्छे संस्कार हों अथवा बुरे, संस्कार अवश्य होते हैं। ये संस्कार तीन तरह के होते हैं- ज्ञानज संस्कार, कर्मज संस्कार एवं भावज संस्कार।
ज्ञानज संस्कार
हमारे शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा। प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय का अपना-अपना विषय निश्चित है। पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने विषय के अनुभव ग्रहण करती है। जैसे- आँख देखने का अनुभव लेती है, कान सुनने का अनुभव लेते हैं, नाक सूंघने का अनुभव लेते हैं, जीभ स्वाद का अनुभव लेती है और त्वचा स्पर्श का अनुभव ग्रहण करती है। आँख रंग, रूप व आकार के अनुभव ग्रहण करती है। मानलो आँख ने सूर्योदय का दृश्य देखा, वह दृश्य उसके मन को भा गया। आकाश में उस समय का वह केसरिया रंग, गेंद के समान गोल आकार के सूर्य का नीचे से ऊपर आना उसे बहुत अच्छा लगा। अतः वह सुन्दर दृश्य उसके चित्त पर अंकित हो गया। अर्थात् सूर्योदय के दृश्य का संस्कार हुआ, सूर्य कैसा है और वह कैसे उदय होता है, इसका ज्ञान हुआ इसलिए हम इसे ज्ञानज संस्कार कहते हैं।
इस प्रकार सभी ज्ञानेन्द्रियों के ज्ञानज संस्कार होते हैं। ये अच्छे व बुरे दोनों प्रकार के होते हैं। जैसे कान ने वंशी की मधुर ध्वनि सुनी तो अच्छा संस्कार होगा और गधे के रेंकने का कर्कश स्वर सुनाई दिया तो बुरा संस्कार होगा। नाक ने मोगरे की भीनी-भीनी सुगंध ली तो अच्छा संस्कार होगा और अचानक मैला भरी हुई गाड़ी पास से गुजरी तो दुर्गंध का बुरा संस्कार होगा। ऐसे ही जिह्वा ने गुलाब जामुन का स्वाद चखा तो मीठे का संस्कार होगा परन्तु करेले का स्वाद चखा तो कसेला का संस्कार होगा। त्वचा द्वारा स्पर्श से मुलायम या कठोर अथवा ठंड़ा या गरम के संस्कार होंगे। ज्ञानेन्द्रियों के विभिन्न विषयों से हमें जो-जो ज्ञान होता है, वे ज्ञानज संस्कार कहलाते हैं।
कर्मज संस्कार
जैसे ज्ञानेन्द्रियों से होने वाले संस्कार ज्ञानज संस्कार कहलाते हैं, वैसे ही कर्मेंद्रियों से होने वाले संस्कार कर्मज संस्कार कहलाते हैं। कर्मेन्द्रियाँ भी पाँच हैं- हाथ, पैर, वाणी, पातु व उपस्थ। हाथ अनेक काम करते हैं, जैसे- पकड़ना, छोड़ना, फेंकना, उछालना, दबाना, उठाना, रगड़ना, मसलना,डालना, चित्र या मूर्ति बनाना इत्यादि। हाथों के द्वारा होने वाले इन सभी कर्मों के कर्मज संस्कार होते हैं। उदाहरण के लिए हाथों ने गेंद फैंकी तो फैंकने का संस्कार होगा और हाथों ने पैन पकड़ा तो पकड़ने का संस्कार होगा और चित्र बनाया तो आकृति बनाने का संस्कार होगा।
इसी प्रकार पैर भी अनेक काम करते हैं, जैसे- चलना, दौड़ना, उछलना, कूदना, सरकना, बैठना, उठना, लेटना, कुचलना, आसन करना, ठोकर मारना, टंगड़ी अड़ाना इत्यादि। पैरों द्वारा होने वाले सभी कर्मों के कर्मज संस्कार होते हैं, जैसे- सवेरे-सवेरे टहलना, विद्यालय चलकर जाना, पहाड़ पर चढ़कर मंदिर जाना, नीचे कूदना, किसी की सहायता के लिए दौड़कर जाना, फुटबॉल खेलना आदि कर्मों से कर्मज संस्कार होते हैं।
भावज संस्कार
जिस प्रकार कर्मेन्द्रियाँ क्रिया करतीं हैं, ज्ञानेन्द्रियाँ अनुभव करती हैं, उसी प्रकार मन विचार करता है, इच्छा करता है और मन में भावनाएं उत्पन्न होती हैं। कर्मेंद्रियों से होने वाले संस्कार कर्मज संस्कार कहलाते हैं, ज्ञानेन्द्रियों से होने वाले संस्कार ज्ञानज संस्कार कहलाते हैं और मन से होने वाले संस्कार भावज संस्कार कहलाते हैं। मन में भाव भी दो प्रकार के होते हैं- सद्भाव और दुर्भाव, दोनों ही भावों के संस्कार होते हैं। प्रेम, दया, करुणा, स्नेह, मैत्री, कृतज्ञता आदि सद्भाव कहलाते हैं, इन सद्भावों के अच्छे संस्कार होते हैं। जबकि घृणा, क्रोध, ईर्ष्या, असहिष्णुता आदि दुर्भाव कहलाते हैं, इन दुर्भावों के बुरे संस्कार होते हैं। उदाहरण के लिए आपने गाय को रोटी खिलाई, किसी रोगी की सेवा की, किसी असहाय की मदद की तो इनके अच्छे संस्कार होंगे। परन्तु अन्य किसी व्यक्ति ने गाय को डंडे मारकर भगाया, किसी रोगी को ग़लत दवाई दी, किसी असहाय की खिल्ली उड़ाई तो इनके बुरे संस्कार होंगे। सद्भाव और दुर्भाव दोनों से होने वाले संस्कार भावज संस्कार कहलाते हैं। व्यक्ति के चित्त पर कर्मज, ज्ञानज और भावज तीनों प्रकार के संस्कार जीवनभर अंकित होते ही रहते हैं।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
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