भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 63 (मन की शिक्षा)

 – वासुदेव प्रजापति

मन की शिक्षा से तात्पर्य है, सदाचार की शिक्षा, सद्गुणों की शिक्षा व चरित्र की शिक्षा। इन सबको मिलाकर एक ही शब्द में कहना हो तो सज्जनता की शिक्षा कह सकते हैं। हमारी संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति के लिए सज्जन बनना, पहली योग्यता मानी गई है। व्यक्ति भले ही अनपढ़ हो या विद्वान, पहले वह सज्जन होना चाहिये। व्यक्ति भले ही गरीब हो या धनवान, इंजीनियर हो या कारीगर, डाक्टर हो या मरीज, दुकानदार हो या ग्राहक, किसान हो या व्यापारी, राजनेता हो या समाज सेवी, अधिकारी हो या कर्मचारी सबके लिए यह पहली आवश्यकता है कि वे सज्जन होने चाहिए। सज्जन होना अर्थात् अच्छा मनुष्य होना। जब मनुष्य अच्छा होगा तो समाज अच्छा होगा।

शिक्षा के क्रम में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात है, अच्छा मनुष्य बनाने की शिक्षा, सज्जन मनुष्य बनाने की शिक्षा। मनुष्य धन, मान, ज्ञान, प्रतिष्ठा अर्जित करे अथवा न करे, उसे अच्छा मनुष्य तो बनना ही होता है। अच्छे मनुष्य को ही हम सज्जन कहते हैं। यह दुनिया केवल कानून और दण्ड से नहीं चलती, मनुष्यों के हृदयों में बसी अच्छाई से चलती है। अपना और दूसरों का हित चाहना और वैसा ही व्यवहार करना अच्छाई है। अच्छाई का व्यवहार करने के लिए कष्ट उठाना पड़े तो उठाना, त्याग करना, अपने आप को संयम में रखना, यही अच्छाई है। और यह सब स्वतंत्रता पूर्वक आनन्द से करना, यदि स्वैच्छा और स्वतंत्रता नहीं है तो वह अच्छाई नहीं है, वह तो निहित स्वार्थ के लिए किया गया कार्य मात्र है। यह अच्छा बनने की शिक्षा, सज्जन बनने की शिक्षा हमें मन से मिलती है, इसलिए इसे मन की शिक्षा कहते हैं।

मन का स्वरूप

मन अन्त:करण का एक भाग है। यह स्थूल अंग नहीं, अपितु सूक्ष्म पदार्थ है। प्राकृत अवस्था में सारे व्यवहार मन द्वारा परिचालित होते हैं। मनुष्य का मन एक अद्भुत पदार्थ है। सम्पूर्ण सृष्टि में केवल मनुष्य को ही अत्यन्त सक्रिय मन प्राप्त हुआ है। जहाँ मन अनेक शक्तियों का पुँज है, वहीं मन अनेक समस्याओं का उद्गम स्थान भी है। इसलिए मन की शिक्षा का विचार करने से पहले इसके स्वरूप को भली-भांति जानना आवश्यक है।

मन की तीन शक्तियाँ हैं- विचार शक्ति, भावना शक्ति एवं इच्छा शक्ति। मन निरन्तर विचार करता रहता है। मन भावनाओं का पुँज है। मन में अनन्त इच्छाएँ होती हैं। मन की इन तीनों शक्तियों को संयमित किया जाय तो अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं।

मन द्वन्द्वात्मक है। संकल्प-विकल्प, राग-द्वेष, सुख-दुःख, मान-अपमान, हर्ष-शोक, आशा-निराशा, रुचि-अरुचि आदि सभी द्वन्द्व मन में रहते हैं। मन को इन द्वन्द्वों से मुक्त करना ही मन की शिक्षा है।

मन सभी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों का स्वामी है। मन स्वयं ज्ञानेन्द्रिय भी है और कर्मेन्द्रिय भी है। मन इन दोनों इन्द्रियों का स्वामी बनकर इनको चलाता है। कर्मेन्द्रियाँ क्रिया करती हैं और ज्ञानेन्द्रियाँ संवेदनाओं को ग्रहण करतीं हैं। मन इनका स्वामी बनकर इन्हें सद्गुण और सदाचार के लिए अथवा दुर्गण और दुराचार के लिए प्रेरित करता है। मन को दुर्गुणों से हटाकर सद्गुणों से जोड़ना, मन की शिक्षा है।

मन जब काम-क्रोधादि विकारों से भरा रहता है, तब वह उत्तेजित अवस्था में रहता है। इसे मन की अशांत अवस्था भी कहते हैं। उत्तेजित अवस्था में विचार और व्यवहार का संतुलन तथा स्थिरता रहना असंभव है। उत्तेजना के कारण मन कब क्या कर ले? कहना कठिन है। मन की उत्तेजना समाप्त कर, उसे शांत रखना ही मन की शिक्षा है।

मन अत्यंत चंचल, जिद्दी, बलवान तथा दृढ़ है। ऐसे मन का निग्रह करना, वायु का निग्रह करने के समान अत्यन्त कठिन है। गीता में अर्जुन कृष्ण को यही कहते हैं –

चंचलं ही मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढ़म्।

तस्याहं  निग्रहं मन्ये वायोरिव  सुदुष्करम् ।।

ऐसा चंचल, उत्तेजित और आसक्ति से युक्त मन जब तक एकाग्र, शांत व अनासक्त नहीं बनता तब तक सद्गुण व सदाचार आना असंभव है। अतः मन को एकाग्र बनाना, मन को शान्त रखना तथा मन को अनासक्त बनाना ही मन की शिक्षा है।

मन की शिक्षा कब दें

मन की शिक्षा को ही संस्कार की शिक्षा कहते हैं। यही सद्गुण व सदाचार की शिक्षा भी है। यही भाव शिक्षा व मूल्य शिक्षा भी कहलाती है। इसे चरित्र निर्माण की शिक्षा भी कहते हैं। इन सब प्रकार की शिक्षा का सम्बन्ध मन से है।

यह मन की शिक्षा औपचारिक रूप से विद्यालयों में नहीं दी जा सकती,  इसका मुख्य केन्द्र घर है। घर में संस्कारों की शिक्षा जन्म से पूर्व ही माता के माध्यम से बालक को मिलनी शुरू हो जाती है। माता का खान-पान, विचार-व्यवहार, भावना व कल्पना तथा सत्संग एवं स्वाध्याय आदि से बालक का चरित्र निर्माण होता है। इसलिए माता को बालक की प्रथम गुरु माना गया है।

इसी प्रकार जन्म के उपरान्त घर के वातावरण से बालक सीखता है, इसलिए घर का वातावरण संस्कारप्रद होना आवश्यक है। बालक की ग्रहण करने की क्षमता विलक्षण होती है। वह जैसा देखता है, वैसा ही करता है। जैसा सुनता है, वैसा ही बोलता है। वह जिस वातावरण में पलता है, उसके विचारों, भावनाओं तथा दृष्टिकोण की तरंगों को पकड़ लेता है। उसमें अनकही बातों को भी समझ लेने की अद्भुत क्षमता होती है। वह शब्द को छोड़ देता है और उसके पीछे जो भाव होता है, उसे ग्रहण कर लेता है। इसलिए घर के लोगों के विचार व व्यवहार तथा घर का वातावरण शुद्ध और पवित्र रखना आवश्यक है।

हमारे पूर्वजों ने इस तथ्य को भली-भाँति समझा और शिशु संगोपन नामक एक सम्पूर्ण शास्त्र की रचना की ओर उसे दैनन्दिन व्यवहार की परम्परा के रूप में घर-घर में स्थापित किया। रात्रि में घर-घर लोरी गाकर बच्चे को सुलाने का प्रचलन, प्रातःकाल भजन व स्तोत्र सुनते हुए जगना, महापुरुषों के जीवन की घटनाएँ व कहानियाँ सुनना तथा प्रेमपूर्वक माता के हाथ से भोजन करके ही माता के हृदय के भाव उसमें संस्कार रूप में संक्रांत होते हैं। अतः शिशु को संस्कारों की शिक्षा अनौपचारिक रूप से घर में माता-पिता एवं परिजनों द्वारा दी जाने वाली शिक्षा है।

बाल अवस्था में चरित्र शिक्षा

शिशु अवस्था में संस्कार हैं। बाल अवस्था में आदतें बनतीं हैं और उसका मानस तैयार होता है। इसी अवस्था में चरित्र की अनेक छोटी-बड़ी बातें उसके मन और शरीर का अविभाज्य हिस्सा बनकर उसके आचार-विचार में अभिव्यक्त होती है। बाल्यकाल में सीखी हुई आदतें जीवन भर बनी रहती हैं। इस समय यदि सही आदतें बन गईं तो बालक सच्चरित्र बनता है और गलत आदतें पड़ गईं तो दुश्चरित्र बनता है। घर में जब 6 से लेकर 15 वर्ष के बालक पल रहे होते हैं, तब पिता की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। उस समय एक पिता को कुम्हार की भूमिका अपनानी होती है। जिस प्रकार कुम्हार मिट्टी को चाक पर चढ़ाता है और जैसा घड़ा बनाना चाहता है, वैसा आकार उसे दे देता है। उस समय वह मिट्टी के साथ किसी भी प्रकार की कठोरता नहीं बरतता, बल्कि बहुत हल्के हाथ से उसे घड़े का आकार देता है। परन्तु  घड़े को आकार देने के बाद वह उसे चाक पर से उतारता है, उसे छाया में रखता है और उसका रक्षण करता है। बाद में उस कच्चे घड़े को अग्नि में डालकर पकाता है। पकाते समय वह पूरा ध्यान रखता है कि वह कहीं से भी कच्चा न रह जाय। पूरा पका हुआ घड़ा ही पानी पीने के काम आता है। इस प्रकार प्रारम्भ में दिया गया घड़े का आकार जीवन भर बना रहता है।

ठीक इसी प्रकार माता-पिता अपने शिशु का लालन-पालन करते हैं। अपने लाड-प्यार से उसमें संस्कारों का बीजारोपण करते हैं। फिर उसे आज्ञापालन व नियमपालन सिखाते हैं। उसकी दिनचर्या व्यवस्थित हो, उसमें अच्छी-अच्छी आदतें विकसित हो, ऐसा प्रयत्न करते हैं। यह सब करते समय जहाँ आवश्यक हो, वहाँ पिता उसके साथ कठोर व्यवहार भी करते हैं। अर्थात् उसे संयम और परिश्रम रूपी अग्नि में तपाते हैं। तब जाकर उसके चरित्र का गठन होता है। ऐसा बालक आगे जाकर संसार रूपी सागर के थपेड़ों से कभी घबराता नहीं, टूटता नहीं, अपितु सहज ही उसमें से कोई न कोई मार्ग निकालकर अपनी जीवन रूपी नैया को पार लगा देता है। आज जिसे मूल्य शिक्षा कहा जाता है, वास्तव में यही संस्कारों की शिक्षा है, चरित्र निर्माण की शिक्षा है, सज्जन बनाने की शिक्षा है। यह सज्जनता की शिक्षा प्रमुख रूप से गर्भावस्था, शिशु अवस्था और बाल अवस्था में होती है और प्रमुख रूप से घर में ही होती है।

बड़ी आयु में सद्गुण शिक्षा

बाल्यावस्था के बाद किशोर एवं युवावस्था में भी संस्कार व चरित्र की शिक्षा की आवश्यकता बनी रहती है। जहाँ यह सत्य है कि शिशु व बाल अवस्था संस्कारों की नींव है। वहाँ यह भी सत्य है कि इस नींव वाली आयु की उपेक्षा करके बड़ी आयु में संस्कारों की शिक्षा देने का कोई अर्थ नहीं होता। फिर भी बड़ी आयु में भी संस्कारों की शिक्षा की आवश्यकता तो रहती ही है। गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस सदैव कहा करते थे कि हमें अपने जीवन रूपी लोटे को प्रतिदिन माँजते रहना चाहिए। हमें शिशु व बाल अवस्था के सम्यक प्रयासों से मिले चरित्र रूपी मूल्यवान लोटे को अपने प्रतिदिन के सद्कर्मों से माँजते रहना चाहिए। अतः किशोर व युवा अवस्था में भी चरित्र की शिक्षा देते रहना चाहिए।

किशोर अवस्था में शारीरिक व मानसिक ब्रह्मचर्य की रक्षा, त्याग, सेवा, संयम, सादगी और कठोर परिश्रम करना अत्यन्त आवश्यक है। उसके बाद युवावस्था में दान, नीति एवं परिश्रम पूर्वक अर्थार्जन करना, बड़ों की सेवा करना, समाज व देश की सेवा व रक्षा करना तथा जीवन में स्वाध्याय व सत्संग का निरन्तर क्रम बनाए रखना चाहिए। ये सभी बातों जिन व्यक्तियों में होती हैं, उन्हें हम सज्जन व्यक्ति कहते हैं। ऐसे सज्जन व्यक्तियों से ही समाज सुसंस्कृत व गुणवान बनता है। ऐसे श्रेष्ठ समाज से ही राष्ट्र समर्थ व श्रेष्ठ बनता है। हमें अपने राष्ट्र को श्रेष्ठ बनाना है तो भावी पीढ़ी को मन की शिक्षा देना अत्यावश्यक है।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)

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