– वासुदेव प्रजापति
जहाँ मन की शिक्षा व्यक्ति को सज्जन बनाती है, वहीं कर्म की शिक्षा व्यक्ति को कर्मशील बनाती है। व्यक्ति सज्जन है परन्तु निठल्ला है, तो वह किसी काम का नहीं है। आज मूल्य शिक्षा की बात तो होती है, परन्तु कर्म शिक्षा की बात नहीं होती। क्योंकि आज की शिक्षा में हाथ व शरीर से होने वाले परिश्रमपूर्ण कार्य को नीचे स्तर का माना जाता है। जिस कार्य में श्रम न करना पड़े, ऐसे कार्य को ऊँचे स्तर का माना जाता है। फलतः आज प्रत्येक व्यक्ति श्रम से विमुख हो रहा है।
प्राणी जीवन की वास्तविकता यह है कि मनुष्य को छोड़कर अन्य प्राणियों को जीवन के लिए आवश्यक सभी पदार्थ प्रकृति से प्राप्त होते हैं। परन्तु मनुष्य को अपना जीवन चलाने के लिए रोटी, कपड़ा व मकान चाहिए। इन्हें प्राप्त करने के लिए उसे अन्न उपजा कर उसकी रोटी बनानी पड़ती है, कपास पैदा कर वस्त्र बुनना पड़ता है और कठिन श्रमपूर्वक अपना मकान बनाना पड़ता है। इतना ही नहीं, उसे अन्य अनेक वस्तुओं का निर्माण करना पड़ता है, तब जाकर वह अपना जीवन सुखपुर्वक निर्वाह कर पाता है। अतः व्यक्ति जीवन में कर्म की शिक्षा अत्यावश्यक है।
मनुष्य को इन सब वस्तुओं का निर्माण करने के लिए कर्मेन्द्रियों की कुशलता तथा सृजनशील बुद्धि की आवश्यकता होती है। इन दोनों में कर्मेन्द्रियों की कुशलता का महत्त्व अधिक है। क्योंकि बुद्धि के निर्देशन में प्रत्यक्ष काम तो कर्मेन्द्रियाँ ही करतीं हैं। मनुष्य जब कार्यकुशल होता है, तब ही वह समृद्धि प्राप्त करता है। परिवार एवं समाज भी जब श्रमनिष्ठ व कार्यकुशल होते हैं, तभी समृद्ध बनते हैं। समृद्धि से ही परिवार व समाज वैभव सम्पन्न होते हैं।
श्रम से विमुख होने के दुष्परिणाम
- पैसा आ जाने पर व्यक्ति सोचता है कि अब मुझे मेहनत करने की आवश्यकता नहीं, मैं मजदूरों से काम करवा लूँगा। इसमें उसे सुख की प्रतीति होती है। परन्तु यह सुख व आराम आभासी है, वास्तविक नहीं। शरीर से काम न करने के विपरीत परिणाम पूरे समाज को भुगतने पड़ते हैं। पैसे की चकाचौंध में इन्द्रियों को मिलने वाले सुख में डूबे व्यक्ति को ये विपरीत परिणाम न तो दिखाई देते हैं और न समझ में आते हैं। वास्तविकता यह है कि ये हमें असंस्कारिता, अस्वास्थ्य और दरिद्रता की ओर ले जाते हैं।
- हाथ से काम करने को नीचे स्तर का मानने से एक सूक्ष्म और व्यापक परिणाम होता है ‘गौरव की हानि और गुलामी’, जो हमें जल्दी समझ में नहीं आता। आज हम कारखानों में यन्त्रों का प्रयोग करने लगे हैं। जहाँ यन्त्र काम करते हैं, वहाँ एक मालिक होता है और सैकड़ों नौकर या मजदूर होते हैं। ये मजदूर दोहरी गुलामी से ग्रस्त रहते हैं। एक मालिक की गुलामी और दूसरी यंत्र की गुलामी। मालिक की गुलामी से स्वतंत्र इच्छा का नाश होता है और यंत्र की गुलामी से सृजनशक्ति व सृजन के आनन्द का नाश होता है। फलस्वरूप उसका पूरा व्यक्तित्व दब्बू हो जाता है। ऐसे दब्बू व्यक्तियों से भरा समाज अपना सामर्थ्य खो देता है।
- यह दुष्परिणाम होता है धनाढ्य घरों के बच्चों पर। उन्हें बचपन से ही काम करना नहीं सिखाया जाता। श्रम की, श्रम से उत्पादित वस्तु की और पैसे की कीमत क्या होती है, वे नहीं जानते। जब ये बच्चे बड़े होते हैं तब उद्दण्ड हो जाते हैं। एक ओर युवावस्था का जोश और दूसरी ओर काम न करने से उत्पन्न निठल्लापन से इनकी शक्तियाँ गलत कार्यों में प्रवृत्त होती हैं। वे व्यसनों के शिकार हो अपना पौरुष और संस्कार दोनों ही गँवा बैठते हैं। फलतः ऐसा समाज असंस्कृत हो जाता है।
- इस दुष्परिणाम की ओर बहुत कम ध्यान जाता है। श्रमनिष्ठा की वृत्ति एवं आदत न होने के कारण सार्वजनिक स्थलों पर, मार्गों पर, रेलगाड़ियों में, समुद्र तटों पर, सार्वजनिक कार्यक्रमों की समाप्ति पर गन्दगी का ढेर दिखाई देता है। पूछने पर तर्क देते हैं कि यह हमारा काम नहीं है, सफाई रखना सरकार का काम है। उन्हें गन्दगी न करना, यदि हो गई है तो उसे हटाना स्वयं का दायित्व ही नहीं लगता। इसका विपरीत प्रभाव स्वास्थ्य, पर्यावरण, संस्कारिता, समृद्धि व सामर्थ्यादि पर होता है।
- उत्पादन को यंत्र आधारित कर देने के कारण समाज का आर्थिक संतुलन बिगड़ता है। एक ओर लोगों की कमाने की शक्ति और कमाने के अवसर कम हो जाते हैं,दूसरी ओर जीवनोपयोगी वस्तुएँ तो अनिवार्य रूप से खरीदनी ही पड़ती हैं। इसके कारण लोग ऋण लेने को विवश हो जाते हैं। समाज में ऋण लेने-देने का एक बड़ा जाल विकसित होता है और फैलता जाता है। व्यक्ति से लेकर देश तक इस जाल में फँस जाते हैं। फिर ऋण में ही जीने की आदत पड़ जाने के कारण कुंठा और मजबूरी दिमाग में बैठ जाती है। ऐसी प्रजा और देश स्वाभिमान शून्य हो जाते हैं।
इन सभी दुष्परिणामों के मूल में काम न करने की वृत्ति ही है।
श्रमनिष्ठा के सुफल
हाथ से काम करने का अभ्यास होने से स्नेह, प्रेम, वात्सल्य, करुणा, आदर, विनय आदि भावनाओं को प्रकट करना अपने हाथ में होता है। जैसे- हाथ से भोजन बनाकर अपने लोगों व अतिथियों को प्रेमपूर्वक खिला सकते हैं। घर के वृद्धों व बीमारों की सेवा-शुश्रूषा कर सकते हैं। बच्चों के लालन-पालन से लेकर घर के छोटे-मोटे सभी काम यदि हाथ कुशल व अभ्यस्त नहीं हैं तो नहीं हो सकते। इन सभी कार्यों को करने से जो आत्मीयता प्रकट होती है और पनपती है, वह समाज को प्रेम, आनन्द और सौन्दर्य से भर देती है। ऐसे समाज में श्री अर्थात् लक्ष्मी स्थिर होकर निवास करती है।
किसी भी काम को करते-करते हाथ की कुशलता बढ़ती है, कारीगरी में उत्कृष्टता आती है, सृजनशील बुद्धि विकसित होती है और पदार्थों के आन्तरिक रहस्यों की अनुभूति होने लगती है। लगन व निष्ठा से काम करने वाले के समक्ष सृष्टि अपने रहस्य खोल देती है। इसे ही हम सृष्टि के साथ एकात्मता की अनुभूति कहते हैं, यही हमारा अध्यात्म है। तभी तो हम कहते हैं कि ‘कर्म ही पूजा है’।
अतः हाथ से उत्पादक काम करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य है। हाथ द्वारा काम करने से कर्म संस्कृति विकसित होती है। इस कर्म संस्कृति को विकसित करने हेतु निम्नलिखित बातों का विचार कर योजना बनानी चाहिए-
- उचित मानसिकता निर्माण करना
हाथ से काम करना अच्छा है। हाथ से काम करने वाला काम न करने वाले से श्रेष्ठ है। हाथ से काम करते-करते उत्कृष्टता पाने वाला व्यक्ति श्रेष्ठ है। हाथ से काम करने वाले को लक्ष्मी माता की कृपा मिलती है। जो दूसरों से काम करवाता है, वह श्रेष्ठ नहीं है। इसी प्रकार जो दास बनकर दूसरों का काम करता है, वह भी श्रेष्ठ नहीं है। ऐसी मानसिकता निर्माण करना यह प्रथम चरण है।
- शिशु अवस्था से काम करवाना
छोटे बच्चे सदैव क्रियाशील होते हैं। इसलिए उन्हें शिशु अवस्था से ही घर के काम करने के संस्कार देने चाहिए। घर में बच्चे बड़ों को काम करते हुए व काम करने में आनन्द लेते हुए देखें, यह आवश्यक है। माँ आनन्द से भोजन बना रही है, पिताजी घर की स्वच्छता कर रहे हैं, दादाजी पौधों को पानी पिला रहे हैं, बड़ा भैया वस्तुओं को व्यवस्थित रख रहा है, बड़ी बहन कपड़े सुखा रही है, जैसे घर के कार्य करते हुए देखने से ही कर्म संस्कृति के संस्कार उसके चित्त में बनते हैं।
इसी प्रकार बाल्यावस्था में बालक बालिकाओं को घर के व बाहर के कामों में अपने साथ जोड़ना चाहिए। और उन कार्यों को करने में आनन्द लेना सिखाना चाहिए। और किशोरावस्था के बच्चों को जिम्मेदारी से स्वतंत्रता पूर्वक काम करने के अवसर देने चाहिए। और युवा होने पर उन्हें उत्पादक कार्य करके अपनी आजीविका चलाने योग्य क्षमता उत्पन्न करनी चाहिए। हमारे देश में उत्पादन करना अत्यन्त श्रेष्ठ माना गया है। इसीलिए कृषि को श्रेष्ठ, व्यवसाय को मध्यम तथा नौकरी को हेय माना गया है। अतः हमें अपने परिवार को उद्यमशील एवं उद्योगकेन्द्री बनाना चाहिए।
उद्योग केन्द्रित शिक्षा
आज की शिक्षा जो मात्र पढ़ने व लिखने वाली किताबी शिक्षा है, उसे बदल कर क्रिया आधारित शिक्षा बनानी चाहिए। हमारी भावी पीढ़ी को केवल भारी बस्ता उठाने वाला, रटकर परीक्षा पास करने वाला विद्यार्थी बनाने के स्थान पर एक उत्पादक व उत्कृष्ट कारीगर बनाना अधिक श्रेयस्कर है। इस दृष्टि से अधोलिखित सुझावों को अमल में लाना उपयोगी होगा-
- अपने विद्यालय की स्वच्छता, साज-सज्जा, व्यवस्था और रख-रखाव आदि शिक्षकों व विद्यार्थियों को मिलकर करनी चाहिए। ऐसा करने से श्रमनिष्ठा व कर्मसंस्कृति का विकास होगा।
- विद्यालयों में पढ़ाया जाने वाला पाठ्यक्रम उद्योग केन्द्रित बनाना चाहिए। विद्यालय की छोटी-मोटी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सामग्री का निर्माण विद्यालय में ही होना चाहिए।
- आजकल की पढ़ाई में उपकरणों का उपयोग बहुत बढ़ गया है। परिणाम स्वरूप शिक्षा अत्यधिक महँगी हो गई है। ये उपकरण खर्चीले तो हैं ही साथ में विद्यार्थियों की सीखने की अंगभूत क्षमताओं को अवरूद्ध करते हैं। विद्यार्थियों की कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों को कमजोर करने वाली, उपकरणों पर अधीनता बढ़ाने वाली तथा खर्चीली शिक्षा को बदलकर करणों को अधिकाधिक सक्रीय बनाने वाली शिक्षा पद्धति का विकास करना चाहिए।
- हमें विद्यार्थियों को टीवी पर नृत्य, गीत व फिल्में दिखाने के स्थान पर उन्हें गाना, बजाना, नाँचना तथा अभिनय करवाने पर बल देना चाहिए। मोबाइल पर गेम खेलने के स्थान पर मैदानी दौड़-भाग के खेल खिलाने चाहिए। मिट्टी में शरीर को रगड़ने व पसीना बहाने से शारीरिक व मानसिक आरोग्यता प्राप्त होती है।
- विद्यालय के वार्षिकोत्सव जैसे कार्यक्रमों में हाथ से उत्पादित वस्तुओं की प्रदर्शनी लगाकर उनकी बिक्री का आयोजन करना चाहिए। निबंध, भाषण, चित्रकला जैसी प्रतियोगिताओं के साथ-साथ सृजनशीलता, उत्कृष्टता व उत्पादकता की प्रतियोगिताएँ भी रखनी चाहिये।
- विद्यालय में मैदान तैयार करना, बगीचा लगाना, आगन्तुकों की सेवा-शुश्रूषा करना, दीवारों पर सुविचार लिखना जैसे कार्य आचार्यों व विद्यार्थियों के जिम्मे देना चाहिए। विद्यालय संचालन में जब विद्यार्थियों की सक्रिय भागीदारी होगी, तब शिक्षा सार्थक व स्वायत्त होगी।
जिस समाज में 95% लोग उत्पादक काम करते हैं, उस समाज में सुख, समृद्धि, संस्कार, स्वाभिमान, स्वतंत्रता, श्रेष्ठता, स्वास्थ्य व समरसता अचल वास करते हैं। कर्मशिक्षा ही प्रत्येक समाज की रीढ़ है। यह रीढ़ जितनी मजबूत, सीधी व लचीली होगी, वह समाज उतना ही श्रेष्ठ होगा। अतः शिक्षा में कर्म को केन्द्र में रखकर सारी योजना-रचना बनानी चाहिए।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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