– शैलेश जोशी
कहते है ईश्वर ने किसी भूमि पर जन्म लिया है तो वह भरतभूमि है। भारत यह अध्यात्म की भूमि है। भारत को देवभूमि भी कहा जाता है। यह संतों की भूमि है। संपूर्ण भारतवर्ष में ऐसा कोई भी प्रांत नहीं है जहां संतों का जन्म नहीं हुआ। महाराष्ट्र में भी संतों की परंपरा रही जिसने भारत की अध्यात्मिक शक्ति को जागृत रखने में बडा योगदान किया। इसी कड़ी में सन 1608 की चैत्र शुक्ल नवमी अर्थात रामनवमी के दिन जिनका जन्म हुआ ऐसे समर्थ रामदास स्वामी भी है।
सूर्याजीपंत ठोसर तथा माता राणूबाई ने 12 वर्ष तक भगवान सूर्यनारायण की उपासना करने के बाद बालक का जन्म हुआ जिसका नाम नारायण रखा गया। महाराष्ट्र के मराठवाडा क्षेत्र के जांब गाव में नारायण का जन्म हुआ जो आगे जाकर समर्थ रामदास के नाम से जाना गया। कहते है सूर्याजीपंत प्रतिदिन 1200 तथा नारायण 2000 सूर्यनमस्कार करते थे। उनका शरीर बलवान था। छोटी आयु में व्रतबंध होने के बाद जब मंत्र दीक्षा देने को मना किया गया, तो नारायण रूठ गये और हनुमानजी के मंदिर में जा बैठे, जहां कहते है हनुमानजी ने उन्हें आशीर्वाद दिया। रामनवमी के दिन जिनका जन्म हुआ ऐसे नारायण रामभक्त हनुमानजी के आशीर्वाद के बाद स्वाभाविक ‘रामदास’ हो गये।
माताजी की इच्छा तो नारायण को विवाह के बंधन में बांधने की ही थी। दो बार झांसा देने के बाद तीसरी बार जब विवाह के लिये मंडप में उपाध्याय के मंगलाष्टक गाने में ‘सावधान’ शब्द का अर्थ जाना तो वहां से भाग गये और नासिक पंचवटी आकर संगम के तट पर एक गुफा में निवास किया। ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ इस सिद्ध मंत्र का जाप उन्होंने तेरह करोड़ बार किया। बारह वर्ष की साधना कर वे तीर्थयात्रा करने निकले। आद्य शंकराचार्य के बाद वे ही होंगे जिन्होंने संपूर्ण भारत भ्रमण किया। समाज की अवस्था देख कर उन्होंने राम जन्मोत्सव तथा हनुमान जयंती के उत्सव मनाने का आग्रह किया।
भक्ति की गहराई भी कितनी? एक बार कहते है कि समर्थ रामदास स्वामी अपने शिष्यों के साथ बैठे थे और माता सीता के अशोक वाटिका में रहने के प्रसंग के बारे में कथन चल रहा था। वाटिका के फल-फुलों के वर्णन में पुष्प श्वेत थे ऐसा कहते ही वहां सूक्ष्म अवस्था में उपस्थित हनुमानजी ने कहा कि पुष्प लाल थे। दोनों अपने मत पर अडीग थे। भक्तों के विवाद में स्वयं श्रीरामचंद्रजी प्रकट हुये और कहने लगे कि पुष्प श्वेत ही थे। रामदास का भाव सात्विक होने से उन्हें वह श्वेत दिख रहे थे और उस समय हनुमानजी का भाव राजसी था, क्रोध में थे इसलिये उन्हें फूल लाल दिख रहे थे। दोनों भक्त ठीक कह रहे है।
समाज के संगठन की दृष्टि से उन्होने लगभग 1100 मठों की स्थापना की थी। ये मठ समाज में शक्ति और भक्ति के केंद्र बने। मठ के प्रमुख महंत होते थे। महंत अध्यात्म के अधिकारी और लोकसंग्रह करने में कुशल रहते थे। मठ के निर्णय वे स्वयं करते थे। मठ में कार्यकर्ता चर्चा और प्रवचन में सहभागी होते थे। महंत स्थानीय राजनीति भी जानते थे। ऐसे जागृत जनता के केंद्र छत्रपति शिवाजी महाराज की स्वराज्य स्थापना में उपयुक्त हुये। भक्ति और लोकसंग्रह का मार्गदर्शन करने वाला ‘दासबोध’ ग्रंथ समर्थ रामदास स्वामी द्वारा लिखा गया।
वे कहते है –
‘महंतें महंत करावे । युक्तिबुद्धिने भरावे ।
जाणते करून विखरावे । नाना देसीं ।
देश की महान संस्कृति का निर्माण करने में ऋषि-मुनि, तपस्वी तथा राष्ट्रपुरुषों का योगदान रहा है। उनको आदर्श मानकर चलने वाले, स्वयं लोकनेता, अपने श्रेष्ठ गुणों एवं आचरण के कारण संपूर्ण समाज के मार्गदर्शक ‘महंत’ होते है। सभी दृष्टि से ज्ञानी और आदर्शवत महंत समाज में बिखेर जाने चाहिये। महंतो के प्रयासों से समाज संगठित होगा।
समर्थ रामदास कहते है कि नित्य नये स्थानों पर जाना चाहिये अर्थात प्रवास करना चाहिये। ‘नित्यनूतन हिंडावें । उदंड देशाटन करावें ।’ छोटे छोटे समाज के मुखियाओं से मिलकर परिचय करना, उनके कार्य की जानकारी लेना और अपने कार्य की जानकारी देना चाहिये। देश स्थिति और समाज स्थिति जानना चाहिये।
लोकसंग्रह करने वाले व्यक्ति की वाणी मृदु और नम्र होनी चाहिये। उसके प्रमुख सूत्र है –
‘जगामध्ये जगमित्र । जिव्हेपाशी आहे सूत्र ।’
‘सकळासी नम्र बोलणे । मनोगत राखोन चालणे ।
मृदुवचने बोलत जाणे । कोणी येकासी ।’
अनेक गुणों से युक्त ऐसे समर्थ रामदास स्वामी शक्ति, भक्ति और संगठन के उत्तम समन्वय का उदाहरण है। स्वामी होकर भी जो दास थे ऐसे संत रामदास ने सन 1680 में भगवान रामचंद्र की मूर्ति के सामने बैठकर समाधी ली।
(लेखक विद्या भारती विदर्भ एवं देवगिरी प्रांत के प्रांत संगठन मन्त्री है।)
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