आचार्य रामचंद्र शुक्ल का साहित्य दर्शन

 – डॉ. अशोक बत्रा

आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी समीक्षा जगत के सर्वाधिक प्रामाणिक और उद्धरणीय समीक्षक हैं। यदि संस्कृत काव्यशास्त्र की परंपरा से आगे हिंदी समीक्षा शास्त्र की बात की जाए तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी के आदि  साहित्य चिंतक हैं जिनकी धारणाएँ हिंदी साहित्य में पत्थर की लकीर मानी जाती है। आज कोई भी गंभीर साहित्यिक चिंतन आचार्य शुक्ल के नाम लिए बिना पूरा नहीं माना जाता। सबसे अधिक उल्लेखनीय और विश्वसनीय बात यह है कि आज के विविध विचारधाराओं की जकड़बंदी से ग्रस्त वातावरण में वे शुद्ध साहित्यिक दृष्टि से विचार करने वाले ऐसे शास्त्रीय समीक्षक हैं जिनकी अवधारणाएँ एकमात्र साहित्य के प्रति ही लक्षित, समर्पित हैं। साहित्य चिंतन ही उनका लक्ष्य है। बाहर का कोई दर्शन, विचारधारा या विषय या आग्रह उनकी चेतना को किसी भी प्रकार आक्रांत नहीं कर पाया। अतः उनका साहित्य दर्शन हिंदी समीक्षा के लिए विश्वसनीय अर्थवत्ता रखता है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का साहित्य संबंधी दर्शन उनके विस्तृत निबंध ‘कविता क्या है’ में व्यंजित हुआ है। यद्यपि प्रकट में उन्होंने कविता शब्द का व्यवहार किया है किंतु संस्कृत काव्यशास्त्र की परंपरा के अनुसार उनका मंतव्य साहित्य से ही है। 

शुक्ल जी साहित्य या कविता को किसी विचार, दर्शन, मनोरंजन या लोकमंगल तक सीमित नहीं मानते। ये सब साहित्य के पथ या पाथेय हो सकते हैं किंतु ध्येय नहीं हो सकते हैं। वे मानते हैं कि साहित्य की रचना मनुष्य मात्र के हृदय की मुक्ति के लिए होती है। मनुष्य जीवन भर अपनी केंचुल में बंधा बंधा विराट सृष्टि से अपना राग और संबंध भूल जाता है और आत्मसीमित हो जाता है। कविता उसके इस टूटे हुए संबंध को जोड़ती है और उसे विराट सृष्टि से जोड़कर मुक्त आत्मा बनाती है। एक तरह से कविता या साहित्य एक तरह का भावयोग है जो कर्मयोग या ज्ञानयोग के समकक्ष है। उनके शब्दों में- “जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं। इस साधना को हम भावयोग कहते हैं और कर्म योग और ध्यान योग का समकक्ष मानते हैं।”

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की मेधा इतनी तलस्पर्शिनी और सुस्पष्ट है कि वे साहित्य क्षेत्र में अन्य किसी बाहरी क्षेत्र का अनुप्रवेश आवश्यक नहीं समझते। वे स्पष्ट कहते हैं कि किसी विचारधारा का, यहाँ तक कि लोकमंगल के नाम पर साहित्य की प्रतिबद्धता या किसी विशेष वर्ग के साथ उसे सीमित करना साहित्य का मार्ग नहीं है। साहित्य का क्षेत्र है – रस दशा को उपलब्ध होना। यदि कोई साहित्य रस के माध्यम से मनुष्य के हृदय को मुक्त नहीं कर सकता, तो चाहे वह और कुछ भी हो, किंतु उच्च कोटि का साहित्य नहीं हो सकता। उनके लिए लोकमंगल भी साहित्य सृष्टि का एक आयाम है, स्वयं ध्येय नहीं है। जैसे तुलसीदास के लिए रामकथा केवल लोकमंगल के लिए ही नहीं अपितु स्वांतः सुखाय भी है, उसी प्रकार रामचंद्र शुक्ल साहित्य के लेखन और अवगाहन दोनों में लोकमंगल और स्वांतः सुखाय दोनों का समन्वय आवश्यक मानते हैं।

आज दुर्भाग्य से साहित्य के क्षेत्र में या तो विचारधाराओं की जकड़बंदी है या मंचीय कविता के नाम पर मनोरंजन का बोलबाला है। इन दोनों पर वे स्पष्ट मार्गदर्शन करते हुए कहते हैं –

“काव्य के बस दो ही पक्ष हैं – सुंदर और सुंदर। भला-बुरा, शुभ-अशुभ, पाप-पुण्य, मंगल-अमंगल, उपयोगी-अनुपयोगी – ये साहित्य क्षेत्र के बाहर के शब्द हैं। जिसे शुभ या मंगल कहा जाता है उसके सौंदर्य पर कवि आप ही मुग्ध रहा करता है। इसलिए वह उसमें सौंदर्य ढूंढता है तथा पाठकों को भी सौंदर्य अनुभूति कराता है।”

आजकल मनोरंजन के नाम पर भी बहुत भटकाव है। उस पर बहुत बेलौस और व्यंग भरी टिप्पणी करते हुए रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं – मन को अनरंजित करना, उसे सुख या आनंद पहुंचाना ही यदि साहित्य का अंतिम लक्ष्य मान लिया जाए तो कविता भी केवल विलास की एक सामग्री हुई। परंतु क्या कोई कह सकता है कि बाल्मीकि जैसे मुनि और तुलसीदास जैसे भक्तों ने केवल इतना ही समझ कर श्रम किया कि लोगों को समय काटने का एक अच्छा सहारा मिल जाएगा? क्या इससे गंभीर कोई उद्देश्य न था?

वास्तव में कविता पढ़ते समय मनोरंजन अवश्य होता है, पर उसके उपरांत कुछ और भी होता है और वही ‘और’ सब कुछ है।

शुक्ल जी मानते हैं कि साहित्य मनुष्य को उच्च भावभूमि पर प्रतिष्ठित करना चाहता है। इसलिए साहित्य द्वारा श्रीमानों, लोभियों, स्वार्थियों और खुशामदियों की स्तुति करना साहित्य का अपमान करना है। वे कहते हैं साहित्य संवेदना मृत लोगों में अनुभूति जगाकर उन्हें मनुष्यता की ओर लौटाता है। सच्चा कवि केवल राजाओं, दरबारियों की स्तुति करने की बजाय स्वदेश की पत्ती पत्ती से, पेड़ पौधों से , बंदर बिल्ली कुत्तों से, सामान्य से सामान्य प्राणी की वेदना से व्यथित होता है और उनके आनंद में झूमता है। जिन्हें अपने देश की जड़ी बूटी और वनस्पति से गंवारपने की गंध आती है, उन पर शुक्ल जी खूब व्यंग्य वर्षा करते हैं। केवल अर्थागम से हृष्ट पुष्ट मुस्टंडे लोगों को संवेदना मृत कहते हुए शुक्ल जी कहते हैं – “ऐसे भावशून्य लोग किसी महा भयानक रोग से पीड़ित हैं। वे जीते जी मर जाते हैं। ऐसे संवेदना जड़ लोगों की जड़ता को भेद कर उनके मर्म तक पहुंचना, उन्हें पुनः सामान्य मनुष्यता की ओर लौटा लाना साहित्य का प्रमुख धर्म है।

कविता या साहित्य की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए वे कहते हैं – “कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि यह संसार की सभ्य और असभ्य सभी जातियों में पाई जाती है। चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो, पर कविता अवश्य होगी। मनुष्य को इसकी सख्त जरूरत है। हाँ, जानवरों को इसकी कोई जरूरत नहीं।”

(लेखक कवि, साहित्यकार व हिंदी भाषा विशेषज्ञ है और हिन्दू महाविद्यालय रोहतक (रोहतक) से सेवानिवृत प्राचार्य है।)

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