लोकनायक श्रीराम – ३

✍ प्रशांत पोळ

मुनीश्रेष्ठ विश्वामित्र के साथ श्रीराम और लक्ष्मण चल रहे हैं। वें गंगा नदी पार कर, दक्षिण तट पर आते हैं। प्रवास पुनः प्रारंभ होता है। अब रास्ते में एक भयानक वन आता है, जिसमें सिंह, व्याघ्र, हाथी जैसे जानवर विचरण कर रहे हैं। किंतु इस वन में कहीं-कहीं मानवी बस्ती रहने के अवशेष दिख रहे हैं। कहीं टूटे-फूटे, वनलताओं से घिरे प्रासाद, कुछ टूटे-उखड़े पथ, तो कुछ वीरान से पड़े स्तंभ…।

यह सब देखकर श्रीराम, ऋषि विश्वामित्र से पूछते हैं, “मुनिवर, यह सब क्या है? घने वन और मानवीय बस्ती के अवशेष..।” विश्वामित्र बताते हैं, “नरश्रेष्ठ, कुछ वर्ष पहले तक यहां दो समृद्धशाली जनपद हुआ करते थे – मलद और करुष। यूं कहो कि यह जनपद, देवताओं के प्रयत्न से बने थे। धन-धान्य से संपन्न थे। समृद्ध थे।”

“किंतु कुछ वर्ष पहले यहां आतंक का साया मंडराने लगा। ‘ताटका’ नाम की एक दानवी स्त्री, यक्षिणी के रूप में आई। यह सुंद नामक दैत्य की पत्नी है। दुरात्मा रावण का क्षत्रप मारीच, इस ताटका का ही पुत्र है।”

बलं नागसहस्रस्य धारयन्ती तदा ह्यभूत् ।

ताटका नाम भद्रं ते भार्या सुन्दस्य धीमत: ॥२६॥

मारीचो राक्षस: पुत्रो यस्याश्शक्रपराक्रम: ।

वृत्तबाहुर्महावीर्यो विपुलास्य तनुर्महान् ॥२७॥

(बालकांड / चोबीसवा सर्ग)

“इस ताटका ने इन दोनों जनपदों में आतंक का तांडव मचाया। प्रजाजन यहां से भागते हुए अन्य जनपदों का आश्रय लेने लगे। कुछ ही दिनों में, यह संपन्न और समृद्ध प्रदेश उजड़ गया। यहां अब मानवी बस्ती नहीं है। पूरे परिक्षेत्र में घने वृक्ष उग आए हैं। अनेक खूंखार जानवर यहां निवास करते हैं।”

“इस प्रदेश को उध्वस्त करने वाली, उजाड़ने वाली ताटका, अब छह कोस दूर, ‘ताटका वन’ में रहती है। हे युवराज, मेरी आज्ञा से तुम इस दुराचारिणी का वध करो। इस देश को पुनः निष्कंटक बना दो। इस रमणीय देश में आज आतंक के कारण कोई आने का साहस नहीं करता..।”

स्वबाहुबलमाश्रित्य जहीमां दुष्टचारिणीम् ।

मन्नियोगादिमं देशं कुरु निष्कण्टकं पुन: ॥३१॥

(बालकांड / चोबीसवां सर्ग)

मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र की वाणी से, मानो श्रीराम के जीवन का ध्येय तय हो रहा है। श्रीराम मन ही मन निश्चय कर रहे हैं, इस देश को आतंक से निष्कंटक करने का…!

श्रीराम, ऋषि विश्वामित्र को आश्वस्त करते हुए कहते हैं, “भगवन्, अयोध्या में मेरे तात, महामना महाराज दशरथ ने आपको जो वचन दिया था, मैं उससे प्रतिबद्ध हूँ। पिताश्री ने मुझसे कहा था कि आपकी हर एक आज्ञा का मैं पालन करूं। अतः आपकी आज्ञानुसार, गौ, ब्राह्मण तथा देश का हित करने के लिए, मैं आप जैसे अनुपम, प्रभावशाली महात्मा के आदेश का पूर्ण पालन करूंगा। मैं ताटका का वध करूंगा।”

गोब्राह्मणहितार्थाय देशस्यास्य सुखाय च ।

तव चैवाप्रमेयस्य वचनं कर्तुमुद्यत: ॥५॥

(बालकांड / छब्बीस वां सर्ग)

‘ताटका वन’ में पहुंचते ही श्रीराम ने धनुष की प्रत्यंचा पर तीव्र टंकार कर के, उस राक्षसी ताटका को ललकारा। क्रोधित होकर ताटका सामने आई। उस विकराल राक्षसी की ओर देखकर श्रीराम, भ्राता लक्ष्मण से कहते हैं, “लक्ष्मण, देखो तो सही, इस यक्षिणी का शरीर कैसा दारुण और भयंकर है।”

इसी बीच ताटका ने धूल के गुबार से श्रीराम-लक्ष्मण पर आक्रमण किया। धूल की आड़ में वह राक्षसी, श्रीराम – लक्ष्मण पर बड़े-बड़े शिलाखंड लेकर प्रहार करने लगी।

किंतु धनुर्धारी श्रीराम ने न केवल अपने बाणों की वर्षा से उन सभी शीलाखंडों को तोड़ दिया, वरन् अपने प्रभावी बाणों से, उस राक्षसी की दोनों भुजाएं भी काट दी। भुजाएं कटने पर ताटका अत्यंत भयानक स्वर में चीखने लगी, दहाड़े मारने लगी।

किंतु वह यक्षिणी थी। इसलिए उसने अपना रूप बदला और श्रीराम-लक्ष्मण को मायास्त्र से मोहित करने लगी। यह देखकर, विलंब किए बगैर, श्रीराम ने एक शब्दवेधी बाण चलाया। यह बाण ताटका के छाती में लगा। वह गिर गई और मृत हो गई।

यह देखकर ऋषि विश्वामित्र और अन्य मुनिगण अत्यधिक प्रसन्न हुए। अनेक वर्षों के आतंक को श्रीराम ने नष्ट किया था। समाप्त किया था। इस विजय के उपलक्ष में, विश्वामित्र ने दिव्यास्त्र का ज्ञान श्रीराम को दिया। साथ ही अनेक अस्त्रों के संहार की पद्धति भी सिखाई।

मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र के साथ, अब श्रीराम-लक्ष्मण, सिद्धाश्रम पहुंचते हैं। यह पवित्र स्थान है। देवाधिदेव श्रीविष्णु की यह तपस्थली रही है। वामन अवतार से पहले, श्री विष्णु ने इसी स्थान पर तप किया था। यह पवित्र भूमि हैं।

विश्वामित्र श्रीराम से कहते हैं, “इसी आश्रम में मेरे यज्ञ में विघ्न डालने वाले दुरात्मा राक्षस आते हैं। हे पुरुषसिंह, यहीं पर तुम्हें उन दुराचारियों का वध करना है।”

एतमाश्रममायान्ति राक्षसा विघ्नकारिण: ।

अत्रैव पुरुषव्याघ्र हन्तव्या दुष्टचारिण: ॥२३॥

(बालकांड / उनतीसवां सर्ग)

श्रीराम और लक्ष्मण की उपस्थिति से आश्वस्त होकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र तथा अन्य ऋषि, अनुष्ठान प्रारंभ करते हैं। पांच दिन निर्विघ्नता से निकल जाते हैं। छठे दिन ॠत्विजों से घिरी यज्ञ की वेदी प्रज्वलित हो उठती है। अग्नि की शिखाएं मानो आकाश छू रही हो। राक्षसों के लिए जैसे यह संकेत है।

और आक्रमण प्रारंभ होता है। भयानक चीखते हुए, दहाड़े मारते हुए, मारीच और सुबाहू, अपनी सेना के साथ, यज्ञमंडप की ओर दौड़ते आते हैं। उनके साथ है, भयंकर से दिखने वाले असुरों की पूरी सेना। उनके सामने खड़े हैं, दो तेजस्वी युवक। अत्यंत शांत, परंतु जबरदस्त निग्रह चेहरे पर झलक रहा है। दोनों के हाथों में धनुष्य है। प्रत्यंचा आकर्ण खींची हुई है। तरकश से निकला हुआ बाण, प्रत्यंचा पर लगा है।

और फिर प्रारंभ होती है, इन दो धनुर्धारी राजकुमारों के बाणों की घनघोर वर्षा। यज्ञवेदी को भ्रष्ट करने हेतु कलशों में भरकर लाया रक्त, उन्हीं राक्षसों के शरीर पर बिखर रहा है।

इन राक्षसों के सेनानायक मारीच को, श्रीराम मानवास्त्र से गहरा आघात करते हैं। इस मानवास्त्र का प्रभाव इतना व्यापक है कि मारीच सौ योजन पीछे जाकर, समुद्र में जा गिरता है।

स तेन परमास्त्रेण मानवेन समाहित: ।

संपूर्णं योजनशतं क्षिप्तस्सागरसम्प्लवे ॥१७॥

विचेतनं विघूर्णन्तं शीतेषु बलताडितम्।

निरस्तं दृश्य मारीचं रामो लक्ष्मणमब्रवीत् ॥१८॥

(बालकांड / तीसवां सर्ग)

इधर लक्ष्मण भी अपने अग्नेयास्त्र को सुबाहु की छाती पर चलाते हैं। सुबाहु मारा जाता है।

श्रीराम और लक्ष्मण के तरकश से निकलते हुए तीरों की वर्षा से मारीच-सुबाहु  की बची-खुची सेना का भी संहार होता है। सिद्धाश्रम का पूरा क्षेत्र दानवों से निर्बाध होता है, आतंक से मुक्त होता है…!

सभी ऋषि-मुनि-महर्षि अत्यधिक आनंदित है। आतंक की इस दानवी शक्ति ने इन सभी का जीवन अत्यधिक कठिन करके रखा था। यह सारे ऋषि, ज्ञान अर्जन तो दूर की बात, अपने नैमित्तिक यज्ञ-याग करने में भी असमर्थ थे।

अब वें सब निर्भरता से यज्ञ-याग-अनुष्ठान कर सकेंगे।

इधर विश्वामित्र के मन में कुछ और ही है। वें इन दोनों राजपुत्रों को मिथिला लेकर जाना चाह रहे हैं। मिथिला में राजा जनक एक धर्ममय यज्ञ करने वाले हैं। साथ ही जनक कन्या सीता का स्वयंवर भी आयोजित है। इस प्रसंग पर श्रीराम का होना आवश्यक है, ऐसा विश्वामित्र मान रहे हैं।

अतः विश्वामित्र के साथ, श्रीराम-लक्ष्मण और ऋषि मुनियों का एक समूह मिथिला की ओर प्रस्थान कर रहा है..!

और पढ़ें : लोकनायक श्रीराम – २

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