✍ वासुदेव प्रजापति
किसी भी देश के वैचारिक क्षेत्र में जब अनवस्था होती है तब उसके सामाजिक जीवन में अव्यवस्थाएँ फैलती हैं। समाज में चिन्तन-मनन एवं विचार करने वाले लोग संख्या में सदैव कम होते हैं परन्तु उनका प्रभाव क्षेत्र अधिक होता है। वे सम्पूर्ण देश या सम्पूर्ण प्रजा मानस को अपने विचारों से प्रभावित करते हैं। जब समाज में वैचारिक अनवस्था होती है तो प्रजा जनों के व्यवहार में अन्तर्विरोध पनपता है। इस अन्तर्विरोध के कारण मानसिक शक्तियों का ह्रास होता है और इस ह्रास के कारण अनिष्टों से लड़ने का बल कम हो जाता है। फलतः अनिष्टों से समझौता करने की प्रवृत्ति बढ़ने लगती है और धीरे-धीरे हमें अनिष्ट अनिष्ट ही नहीं लगता। हम उस अनिष्ट को अपरिहार्य एवं स्वाभाविक मानकर व्यवहार करते हैं। इस तरह समाज में सांस्कृतिक अवनति होती है, जिसे हम ‘आज का जमाना’ कहकर उस अवनति को स्वीकार कर लेते हैं। हमारे देश में आजकल यही हो रहा है।
हम दो विचार विश्व में जी रहे हैं
हमारी वैचारिक अनवस्था और व्यवहार के अन्तर्विरोध के मूल में एक साथ दो विचार विश्व में जीना है। इन दो विचार विश्व में एक है यूरोपीय व दूसरा है भारतीय। इन दोनों के जीवन प्रतिमान सर्वथा भिन्न-भिन्न हैं, एक जड़वादी है तो दूसरा चेतनवादी। यही कारण है कि इनकी सम्पूर्ण जीवन रचना ही भिन्न-भिन्न हैं। हमारी मूल समस्या यह है कि हम इन दोनों प्रतिमानों को यूरोपीय और भारतीय प्रतिमान नहीं मानते, अपितु उन्हें प्राचीन और अर्वाचीन, पुराणपंथी और आधुनिक या पिछड़ा और प्रगत मानते हैं। अर्थात् यूरोपीय प्रतिमान को अर्वाचीन, आधुनिक व प्रगत माना जाता है जबकि भारतीय प्रतिमान को प्राचीन, पुराणपंथी और पिछड़ा माना जाता है। इसी प्रकार यूरोपीय प्रतिमान को वैश्विक और भारतीय प्रतिमान को एकदेशीय भी मानते हैं और एकदेशीय का अर्थ संकुचित करते हैं। इस तरह यूरोपीय प्रतिमान अर्वाचीन, आधुनिक व प्रगत होने के कारण श्रेष्ठ है जबकि भारतीय प्रतिमान प्राचीन, पुराणपंथी व पिछड़ा होने के कारण निम्न माना जाता हैं। भारत का प्रतिमान एकदेशीय होने के नाते संकुचित और यूरोप का प्रतिमान वैश्विक होने के नाते उदार माना जाता हैं। यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि भारत को निम्नस्तर का बताया जाता है, जबकि वह श्रेष्ठ है।
प्रतिमानों का विवेकपूर्ण चयन
विचार करने पर अनुभव तो यही कहता है कि प्राचीन केवल प्राचीन होने से श्रेष्ठ या निम्न नहीं होता, इसी प्रकार अर्वाचीन केवल अर्वाचीन होने से भी श्रेष्ठ या निम्न नहीं हुआ करता। पिछड़े का पिछड़ापन दूर करके उसे प्रगत बनाना ही चाहिए। इसी प्रकार पुराणपंथी न रहकर आधुनिक बनना ही चाहिए। इसलिए ये सभी विशेषण अपने आप में स्वीकार्य या त्याज्य नहीं हो जाते। महाकवि कालिदास अपने नाटक ‘मालविकाग्निमित्रम्’ में कहते हैं –
“पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यं।
सन्त: परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते मूढ: परप्रत्ययनेयबुद्धि:।।”
अर्थात् काव्य प्राचीन है इसलिए अच्छा है, ऐसी बात नहीं है और अर्वाचीन है इसलिए उसके बारे में कुछ भी कहने की आवश्यकता नही है, ऐसा सोचना भी ठीक नहीं है। सज्जन व समझदार लोग स्वयं परीक्षा कर लेने के बाद ही उसे ग्रहण करते हैं, जबकि मूढ़ व्यक्ति दूसरों की बुद्धि से निर्णय करते हैं।
हमारे सामने पुराने और नये या परम्परागत और आधुनिक के बीच में चयन करने का प्रश्न तो सदैव रहता ही है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है और परिष्कृति सदैव आवश्यक होती है इसलिए विवेकपूर्वक परीक्षा करने के बाद जो कालानुरूप व उचित है उसका विद्वानों को समर्थन करना चाहिए। विद्वान जिसका समर्थन करते हैं, लोग उसके अनुसार अपना व्यवहार बदलते हैं।
दो प्रकार की चुनौतियाँ हैं
हमारे सामने दो प्रकार की चुनौतियाँ हैं। पहली चुनौती जो प्राचीन और अर्वाचीन में विवेक करने की है, वह स्वाभाविक है। दूसरी चुनौती यूरोपीय और भारतीय में विवेक करने की है, वह हम पर लादी हुई है। इन दोनों में पहली चुनौती अपेक्षाकृत सरल है, क्योंकि हमारे दीर्घ सांस्कृतिक इतिहास में परिष्कार और परिवर्तन होते रहे हैं। परन्तु दूसरी चुनौती हमारे लिए कठिन है, जिसके कारण अधोलिखित हैं –
- विगत दस पीढ़ियों में शिक्षा के द्वारा हमारे अन्त:करणों में यूरोपीय संस्कार किये गए हैं, जो हमारे मन-मस्तिष्क में गहरे बैठ गए हैं।
- केवल शिक्षा से ही नहीं अपितु बाहुबल, छलबल और सत्ताबल से भी हमारा मानस परिवर्तन करने के प्रयास हुए हैं।
- आज हमें यह चुनौती ही नहीं लगती, क्योंकि हमने यूरोपीय प्रतिमान को अधिकृत रूप दे दिया है और उसे आधुनिक प्रतिमान के रूप में स्वीकार भी कर लिया है। इसलिए यह दूसरी चुनौती हमारे लिए कठिन है।
उपर्युक्त कारणों के फलस्वरूप दोनों प्रतिमानों की मिलावट हो गई है। अतः क्या यूरोपीय है और क्या आधुनिक है, क्या पिछड़ा है और क्या भारतीय है इसे पहचानने में हम भ्रमित हो जाते हैं। हम भ्रमित हैं, इसका भान न होने से हमें उससे मुक्त होना है इसके प्रयास भी नहीं होते हैं।
कुछ लोगों का यह तर्क है कि आज जब विश्व छोटा हो गया है, अनेक प्रकार के संचार माध्यमों के कारण दूरियाँ कम हो गई हैं, तीव्र गति के वाहनों के कारण विश्व में कहीं भी आना-जाना सुगम हो गया है। जब पूरा विश्व एक हो गया है तब प्रतिमान भी एक ही होना चाहिए। यूरोपीय और भारतीय ऐसे दो प्रतिमानों की अब कोई आवश्यकता नहीं है। दोनों प्रतिमानों का समन्वय कर लेना चाहिए, वह समन्वित प्रतिमान ही वैश्विक प्रतिमान माना जायेगा। इस प्रकार के तर्क सुनने में उचित व तटस्थ लगते हैं परन्तु विश्व का इतिहास, विभिन्न संस्कृतियों का इतिहास, प्रकृति की रचना इस तर्क की पुष्टि नहीं करते। वास्तविकता की कसौटी पर यह तर्क नहीं तर्काभास ही लगता है।
चयन की कसौटी क्या हो?
कौनसा प्रतिमान स्वीकार्य है और कौनसा त्याज्य है, यह उसके यूरोपीय या भारतीय होने से तय नहीं होता। इसी प्रकार उसके समर्थकों की संख्या के आधार पर भी तय नहीं होता और न सत्ताबल के आधार पर ही तय होता है। यह ‘सर्वजन हित व सर्वजन सुख’ की कसौटी पर तय होता है। इनके परिप्रेक्ष्य में प्रत्येक व्यक्ति के हित व सुख प्राप्ति की संभावना के आधार पर तय किया जाता है। सर्वजन की संकल्पना में यूरोपीय या भारतीय का भेद नहीं है, अच्छे और बुरे अथवा इष्ट और अनिष्ट का भेद होता है। इस भेद दृष्टि की श्रेणियाँ अधोलिखित बनती हैं –
मम हित और मम सुख
ममजन हित और ममजन सुख
बहुजन हित और बहुजन सुख
सर्वजन हित और सर्वजन सुख
स्वाभाविक है कि ममहित और ममसुख यह निम्नतम श्रेणी है और सर्वजन हित और सर्वजन सुख उच्चतम श्रेणी है। यही विकास के सोपान भी हैं। इसे ही सुसंस्कृत जीवन का प्रतिमान कहते हैं। परन्तु कोई ममहित और ममसुख को ही सही मानता है और उसका समर्थन करता है तो उसे वैश्विक नहीं कहा जायेगा, वह तो एक देशीय ही कहलायेगा।
बहुजन का हित और बहुजन का सुख ही सामाजिक मापदण्ड है, यही सांस्कृतिक मापदण्ड भी है। समाज हितैषी, प्रज्ञावान मनीषियों ने जीवन के अनुभव के आधार पर इस मापदण्ड का निर्धारण किया है। फिर भी यह मनुष्य सृजित है, इसलिए इसे स्वीकार करना या नहीं करना इसकी स्वतन्त्रता रखी जानी चाहिए।
दूसरा मापदण्ड प्राकृतिक है
मनुष्य सृजित मापदण्ड के साथ-साथ दूसरा मापदण्ड है प्राकृतिक। सृष्टि रचना की घटना के साथ इसका सम्बन्ध है। जब प्रकृति में असाम्यावस्था या विषमावस्था आ जाती है, तब सृष्टि की रचना होती है। सृष्टि रचना के मूल में पुरुष और प्रकृति अथवा चेतन और जड़ का मिलन होता है। इस मिलन से त्रिगुणात्मिका प्रकृति में जो सत्त्व, रज व तम नामक तीन गुण हैं, उनमें असमानता आ जाती है। प्रकृति के तीनों गुण जब तक साम्यावस्था में रहते हैं तब तक सृष्टि रचना नहीं होती। परन्तु जब पुरुष और प्रकृति का मिलन होता है तो इस साम्यावस्था में परिवर्तन होता है और सृष्टि रचना शुरु होती है। अतः एकरूपता प्रकृति में कभी भी नहीं होती, सदैव विविधता ही होती है। इस विविधता के नियम के अनुसार ही प्रत्येक राष्ट्र का मूल स्वभाव, उसकी जीवन दृष्टि और जीवन शैली भिन्न-भिन्न होते हैं। यह जन्मजात मूल स्वभाव ‘चिति’ कहलाता है। प्रत्येक राष्ट्र की चिति अलग-अलग होने के कारण ही यूरोप यूरोप है और भारत भारत है।
चिति के कारण से निर्मित हुए इस अन्तर को मिटाना लगभग असंभव है। इसलिए यह दुनिया कितनी भी छोटी हो जाए, दूरियाँ कितनी भी कम हो जाए परन्तु यूरोप व भारत में जो जीवन दृष्टि का अन्तर है वह कभी भी मिटाया नहीं जा सकता। इसलिए हम दो देशों में सामंजस्य निर्माण तो कर सकते हैं परन्तु एकरूपता नहीं ला सकते। अतः सम्पूर्ण विश्व में एक वैश्विक मापदण्ड होने का तर्क अव्यावहारिक है। इस सूत्र को ध्यान में रखकर हमें अपनी अनेक संकल्पनाओं के विषय में पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। जैसे – वैश्विकता, समानता, विकास, व्यक्तित्व आदि की परिभाषाएँ बदलनी पड़ेगी। हमें सबसे पहले अपने मापदण्ड निर्धारित करने होंगे। हमें तय करना होगा कि हम भारतीय, यूरोपीय या वैश्विक क्या होना चाहते हैं? हमारा आधारबिन्दु (stand point) और दृष्टिबिन्दु (view point) तय होने के बाद ही हमारी शैक्षिक और वैचारिक गतिविधियाँ निर्धारित हो सकती हैं।
भारतीय शोधदृष्टि का वैशिष्ट्य
शोध के विषय में विचार करने पर ध्यान में आता है कि भारतीय शोधदृष्टि की अपनी विशेषता है। जड़वादी दृष्टि में शोध पद्धतियों का स्वरूप यांत्रिक होता है। उस यांत्रिक पद्धति में डाटा संग्रह किया जाता है, प्रश्नावलियाँ निर्माण की जाती है, उनसे प्राप्त या संकलित तथ्यों का भौतिकी अथवा गणितीय पद्धति से विश्लेषण करते हैं और प्राप्त परिणामों में एकरूपता का आग्रह रखते हैं, ये सब यांत्रिकता के लक्षण हैं। शोध के क्षेत्र में भारत की शब्दावली बहुत बड़ी है। भारत में शोध का क्षेत्र अति व्यापक रहा है और आग्रह भी बहुत अधिक रहा है। किसी भी बात के लिए प्रमाण की आवश्यकता अनिवार्य मानी गई है। उदाहरण के लिए इतिहास लिखना है तो उसका एक सूत्र है – “नामूलं लिख्यते किंचित्” अर्थात् बिना प्रमाण के कुछ भी नहीं लिखना चाहिए। आदिगुरु शंकराचार्य कहते हैं कि “सभी शास्त्र मिलकर भी यदि यह कहे कि अग्नि शीतल है तब भी तुम उसे मत मानों क्योंकि स्पर्शेन्द्रिय का अनुभव (प्रत्यक्ष प्रमाण) कहता है कि अग्नि ऊष्ण है।”
जहाँ प्रमाण की अनिवार्यता है वहीं प्रमाण की श्रेणियाँ भी बताई हुई हैं। एक स्तर पर ज्ञानेन्द्रियाँ प्रमाण हैं तो दूसरे स्तर पर बुद्धि प्रामाण्य की प्रतिष्ठा है। आप्त वचन को भी सबने मान्य किया है। (हमारे यहाँ जो सत्य को प्राप्त कर चुका है अथवा सत्य तक पहुँच चुका है, उसे आप्त कहा गया है। अर्थात् जो पूर्णतः विश्वसनीय है, ऐसे व्यक्ति या ग्रंथ द्वारा व्यक्त वचन आप्त वचन कहे जाते हैं।) इसलिए आप्त वचन भी प्रमाण माने गए हैं। इन सब प्रमाणों में अपरोक्षानुभूति (समाधि) को सर्वश्रेष्ठ प्रमाण माना गया है। अभिज्ञान शाकुंतलम् में कालिदास राजा दुष्यन्त के मुख से कहलवाता है – “सतां हि सन्देहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्त:करण प्रवृत्तय:।” अर्थात् सच्चाई के विषय में जहाँ सन्देह पैदा हो, ऐसी बातों में सज्जन व्यक्ति के लिए अन्त:करण की वृत्तियाँ ही प्रमाण होती है।
प्रमाणीकरण की यह पद्धति भारतीय चेतनवादी जीवनदृष्टि की पद्धति है। पश्चिम की जड़वादी पद्धति न तो इसे समझ सकती है और न इसे मान्य कर सकती है। इसलिए हमारे सामने पुनः वही प्रश्न आता है कि कौनसा प्रतिमान स्वीकार करने योग्य है, पश्चिमी जड़वादी प्रतिमान या भारतीय चेतनवादी प्रतिमान? अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में इन दोनों प्रतिमानों को मिलाने से भी उद्देश्य की सिद्धि नहीं होती, स्पष्टता, निश्चितता और समग्रता तो होनी ही चाहिए। इस दृष्टि से शब्द, अर्थ, व्याप्ति, सन्दर्भ और आधार आदि में सुसूत्रता की आवश्यकता रहेती है।
शोध सम्बन्धी यह विमर्श सम्पूर्ण देश में विद्वज्जनों व चिन्तकों तक पहुँचे, स्थान-स्थान पर इस पर चर्चा और विमर्श हो तथा शिक्षा के भारतीय प्रतिमान को पुनः निखारा जाए और उसे पुनर्प्रतिष्ठित किया जाए।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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