भारतीय ज्ञान का खजाना-22 (लोहस्तंभ)

✍ प्रशांत पोळ

दक्षिण दिल्ली से महरौली की दिशा में जाते समय दूर से ही हमें ‘कुतुब मीनार’ दिखने लगती है। 238 फीट ऊँची यह मीनार लगभग 23 मंजिल की इमारतों के बराबर है। पूरी दुनिया में ईंटों से बनी हुई यह सबसे ऊँची वास्तु है। दुनिया भर के पर्यटक यह मीनार देखने के लिए भारत में आते हैं।

साधारणतः 900 वर्ष पुरानी इस मीनार को यूनेस्को ने ‘विश्व धरोहर’ घोषित किया है। आज जहाँ यह मीनार खड़ी है, उसी स्थान पर दिल्ली के हिंदू शासक पृथ्वीराज चौहान की राजधानी ‘ढिल्लिका’ थी। इस ढिल्लिका के ‘लालकोट’ किलेनुमा गढ़ी को ध्वस्त कर मोहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने यह मीनार बनाना शुरू किया था। बाद में आगे चलकर इल्तुतमिश और मोहम्मद तुगलक ने यह काम पूरा किया। मीनार बनाते समय लालकोट में बने मंदिरों के अवशेषों का भी उपयोग किया गया है, यह साफ दिखता है।

किंतु इस ‘ढिल्लिका’ के परिसर में इस कुतुब मीनार से भी बढ़कर एक विस्मयकारी स्तंभ अनेक शतकों से खड़ा है। कुतुब मीनार से कहीं ज्यादा इसका महत्त्व है। कुतुब मीनार से लगभग सौ-डेढ़ सौ फीट दूरी पर एक ‘लोहस्तंभ’ है। कुतुब मीनार से बहुत छोटा केवल 7.35 मीटर या 24.11 फीट ऊँचा। कुतुब मीनार के एक दहाई भर की ऊँचाई वाला! लेकिन यह स्तंभ कुतुब मीनार से बहुत पुराना है। सन् 400 के आसपास बना हुआ, यह स्तंभ भारतीय ज्ञान का रहस्य है। इस लोहस्तंभ में 98 प्रतिशत लोहा है। इतना लोहा होने का अर्थ है, जंग लगने की शत-प्रतिशत गारंटी। लेकिन पिछले सोलह सौ सत्रह सौ वर्ष निरंतर धूप और पानी में रहकर भी इसमें जंग नहीं लगा है। विज्ञान की दृष्टि से यह एक बड़ा आश्चर्य है। आज इक्कीसवीं सदी में, अत्याधुनिक तकनीकी होने के बाद भी 98 प्रतिशत लोहा, जिसमें है, ऐसे स्तंभ को बिना कोटिंग के जंग से बचाना संभव ही नहीं है।

फिर इस लोहस्तंभ में ऐसी क्या विशेषता है कि यह स्तंभ जैसा था, आज भी वैसा ही खड़ा है? आई.आई.टी. कानपुर के मटेरियल्स ऐंड मेटलर्जिकल इंजीनियरिंग विभाग के प्रमुख रह चुके प्रोफेसर आर. सुब्रह्मण्यम ने इस पर बहुत अध्ययन किया है। इंटरनेट पर भी उनके इस विषय से संबंधित अनेक पेपर्स पढ़ने के लिए उपलब्ध हैं। प्रो. सुब्रह्मण्यम के अनुसार लोह-फॉस्फोरस संयुग्म का उपयोग ईसा पूर्व 400 वर्ष, अर्थात् सम्राट् अशोक के कालखंड में बहुत होता था और उसी पद्धति से इस लोहस्तंभ का निर्माण हुआ है। प्रोफेसर सुब्रह्मण्यम और उनके विद्यार्थियों ने अलग-अलग प्रयोग करके यह बात साबित करके दिखाई है। उनके अनुसार लोहे को जंग निरोधी बनाना आज की तकनीकी के सामने एक बड़ी चुनौती है। भवन निर्माण व्यवसाय, मशीनी उद्योग, ऑटोमोबाइल उद्योग आदि में ऐसे जंग रोधक लोहे की आवश्यकता है। उसके लिए इपोक्सी कोटिंग, केडोडिक प्रोटेक्शन पद्धति आदि का प्रयोग किया जाता है, लेकिन इस प्रकार की पद्धति लोहे को पूर्णतः जंग से मुक्त नहीं कर सकती। वह तो उसे कुछ समय के लिए जंग लगने से बचा सकती हैं। अगर लोहा पूर्णत: जंग निरोधक चाहिए हो, तो उस लोहे में ही ऐसी क्षमता होनी चाहिए।

आज इक्कीसवीं सदी में भी इस प्रकार का जंग निरोधी लोहा निर्मित नहीं हो पाया है। लेकिन भारत में ईसा पूर्व से इस प्रकार का लोहा निर्माण होता था, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण यह दिल्ली का ‘लोहस्तंभ’ है। वास्तव में यह स्तंभ दिल्ली के लिए बना ही नहीं था। चंद्रगुप्त (द्वितीय), जिन्हें ‘चंद्रगुप्त विक्रमादित्य’ के नाम से भी जाना जाता है, ने यह स्तंभ सन् 400 के आसपास मथुरा के विष्णु मंदिर के बाहर लगाने के लिए बनवाया था। इस स्तंभ पर पहले गरुड़ की प्रतिमा अंकित थी, इसलिए इसे ‘गरुड़ स्तंभ’ नाम से भी जाना जाता है। यह स्तंभ विष्णु मंदिर के लिए बनाया गया था, इसका प्रमाण है, इस स्तंभ पर ब्राह्मी लिपि में उकेरा गया एक संस्कृत श्लोक! ‘चंद्र’ नाम के राजा की स्तुति करता हुआ यह श्लोक विष्णु मंदिर के सामने के लोहस्तंभ का महत्त्व बताता है। चूँकि इस श्लोक में ‘चंद्र’ नाम के राजा का उल्लेख है तथा चौथी शताब्दी में इसका निर्माण हुआ था, इसलिए यह माना गया कि इसका निर्माण चंद्रगुप्त (द्वितीय) ने कराया होगा। इस श्लोक की लेखन शैली गुप्त कालीन है। इस कारण से भी इस स्तंभ का निर्माण चंद्रगुप्त (द्वितीय) द्वारा ही हुआ होगा, इस मान्यता को बल मिलता है। मथुरा के निकट स्थित ‘विष्णुपद’ पहाड़ी पर बसे हुए विष्णु मंदिर के सामने रखने के लिए इस स्तंभ का निर्माण किया है, इसकी पुष्टि उस संस्कृत श्लोक से भी होती है (किंतु अनेक इतिहासकार इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। उनके अनुसार इस स्तंभ का निर्माण ईसा के पूर्व सन् 912 में किया गया था)।

7 मीटर ऊँचाई वाला यह स्तंभ, 50 सेंटीमीटर (अर्थात् लगभग पौने दो फीट) जमीन के नीचे है। नीचे 41 सेंटीमीटर का व्यास है, जो बिल्कुल ऊपर जाकर 30 सेंटीमीटर का रह जाता है। सन् 1997 तक इसको देखने के लिए आने वाले पर्यटक इसको पीछे से दोनों हाथ लगाकर पकड़ने का प्रयास करते थे। दोनों हाथों से अगर इसे पकड़ने में सफल हुए तो वांछित मनोकामना पूरी होती है, ऐसी मान्यता थी; लेकिन स्तंभ को पकड़ने के चक्कर में उस पर कुछ कुरेदना, ठोकना, नाम लिखना आदि बातें होने लगीं, जो इस वैश्विक धरोहर को क्षति पहुँचाने लगीं। इसलिए इसकी सुरक्षा के लिए भारतीय पुरातत्त्व विभाग ने इसके चारों ओर संरक्षक फेंसिंग लगा दी। अब कोई भी इस स्तंभ को छू नहीं सकता।

यह एकमात्र लोहस्तंभ अब शेष है, ऐसा नहीं है। भारत में यह कला ईसा के पूर्व 600-700 वर्ष से विकसित थी, इसके अनेक प्रमाण मिले हैं। सोनभद्र जिले का ‘राजा नल का टीला’, मिरजापुर जिले में मल्हार और पश्चिम बंगाल के पांडुराजार, धिबी, मंगलकोट आदि जिलों में सर्वोत्तम गुणवत्ता के लोहे के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इससे यह साबित होता है कि लोहे का ऊँची गुणवत्ता का धातुकर्म भारत में ढाई- तीन हजार वर्ष पहले से मौजूद था। अत्यंत ऊँचे दर्जे का लोहा भारत में होता था, यह अनेक प्राचीन विदेशी प्रवासियों ने भी लिखा है।

अत्यंत प्राचीन काल से भारत में लोहा बनाने वाले विशिष्ट समूह/समाज हैं। उनमें से ‘आगरिया लुहार समाज’ आज भी आधुनिक यंत्र सामग्री को नकारते हुए जमीन के नीचे की खदानों से लोहे की मिट्टी निकालता है। इस मिट्टी से लोहे के पत्थर बीनकर उन पत्थरों पर प्रक्रिया करता है और शुद्ध लोहा तैयार करता है। लोहा बनाने की आगरिया समाज की यह पारंपरिक पद्धति है।

‘आगरिया’ शब्द ‘आग’ शब्द से तैयार हुआ है। लोहे की भट्ठी का काम यानी आग का काम होता है। ‘आग’ में काम करनेवाले ‘आगरिया’। मध्य प्रदेश के मंडला, शहडोल, अनूपपुर और छत्तीसगढ़ के बिलासपुर तथा सरगुजा जिलों में यह समाज पाया जाता है, जो गोंड समाज का ही एक हिस्सा है। इस समाज की दो उपजातियाँ हैं – पथरिया और खुंटिया। लोहे की भट्ठी तैयार करते समय ‘पत्थर’ का जो उपयोग करते हैं, उन्हें ‘पथरियाँ’ कहा जाता है और भट्ठी तैयार करते समय ‘खूँटी’ का उपयोग करने वाले ‘खुंटिया’ कहलाते हैं। आज भी यह समाज लोहा तैयार करके उसके औजार और हथियार बनाने का व्यवसाय करता है।

भोपाल के एक दिग्दर्शक संगीत वर्मा ने आगरिया समाज पर एक वृत्तचित्र बनाया है। इसमें जंगल की मिट्टी से लोहे के पत्थर बीनने से लेकर लोहे के औजार बनाने तक का पूरा चित्रण किया गया है।

ढाई-तीन हजार वर्ष पूर्व की धातुशास्त्र की यह परंपरा इस आगरिया समाज ने संवाहक के रूप में जीवित रखी है। प्राचीन काल में जब इस परंपरा को राजाश्रय और लोकाश्रय प्राप्त था, तब धातुशास्त्र की इस कला का स्वरूप क्या रहा होगा, इसकी कल्पना मात्र से ही मन विस्मयचकित होता है।

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