✍ वासुदेव प्रजापति
पश्चिमी जीवन विचार और भारतीय जीवन विचार में आधारभूत अन्तर है। जहाँ पश्चिम ने भौतिकता को आधार बनाया है, वहीं भारत ने आध्यात्मिकता को अपना आधार बनाया है। पश्चिमी जीवन विचार आत्मतत्त्व को जानता तक नहीं, इसलिए आध्यात्मिकता भी उसकी समझ से परे है। फिर भी भारत में आध्यात्मिकता का अंग्रेजी अनुवाद ‘स्पिरिचुअल’ किया जाता है, जो समानार्थी नहीं है। इन दोनों संकल्पनाओं की व्याप्ति में जमीन-आसमान का अन्तर है। इस अन्तर की ओर ध्यान न देने के कारण ही पश्चिमी जीवन विचार ठीक से समझ में नहीं आ रहा है। यही कारण है कि अनेक लोग भौतिक विचार को सही मानकर चलते हैं।
अध्यात्म के प्रकाश में भौतिक को समझना
भारतीय जीवन विचार आध्यात्मिकता पर आधारित है, जबकि पश्चिमी जीवन विचार भौतिकता पर आधारित है। यहाँ एक बात ध्यान में रखने योग्य है कि आध्यात्मिकता और भौतिकता को अनेक लोग परस्पर विरोधी मानते हैं, किन्तु ये दोनों विरोधी नहीं हैं। अर्थात् भारत में भौतिकता का विरोध नहीं है, हम भी भौतिकता को मान्य करते हैं परन्तु अध्यात्म के प्रकाश में भौतिक को मानते हैं। जो भौतिक विचार अध्यात्म का अविरोधी है वह हमें मान्य है, इसके विपरीत जो भौतिक विचार अध्यात्म का विरोधी विचार है, वह हमें मान्य नहीं है।
मनुष्य के व्यक्तित्व में भौतिकता को समझना हो तो मनुष्य का यह पंचभूतात्मक शरीर भौतिक है। अर्थात् यह शरीर आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथ्वी नामक पाँच भौतिक पदार्थों के मेल से बना है। मनुष्य के व्यक्तित्व में शरीर और प्राण के अतिरिक्त अन्त:करण भी होता है। इसी प्रकार सृष्टि में सत्त्व, रज व तम नामक तीन गुण होते हैं। व्यक्तित्व में शरीर, प्राण व अन्त:करण का कुछ विचार होता है, जो भौतिक है, परन्तु त्रिगुण की भूमिका के सम्बन्ध में कुछ भी विचार नहीं किया जाता।
मनुष्य के अन्त:करण में मन सबसे अधिक प्रभावी है। मन में इच्छाएँ होती हैं, मन में रुचि-अरुचि, अच्छा-बुरा, मान-अपमान आदि सब कुछ होता है। मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दुर्गुण होते हैं तो दया, करुणा, प्रेम, सहानुभुति जैसे सद्गुण भी होते हैं। यह सब मन का भौतिक पक्ष है। जब इसी मन को अध्यात्म का अधिष्ठान मिलता है तो मन का संयम और मन का निग्रह करते हुए उसे बुद्धि के नियंत्रण में लाया जाता है। बुद्धि को मन के अनुकूल रखना, भौतिक सोच है, जबकि बुद्धि को आत्मानुकूल बनाना आध्यात्मिक सोच है। पश्चिम के भौतिक विचार में मन-बुद्धि दोनों शरीर सुख का ही विचार करते हैं, जबकि भारत के आध्यात्मिक विचार में शरीर सुख तो तात्कालिक है, इसलिए शरीर सुख के साथ-साथ स्थायी आत्मिक सुख को महत्व दिया गया है।
भौतिकता अर्थात् कामनापूर्ति
मन में कामनाएँ जन्म लेती हैं, इसलिए मन कामनाओं का पूंज है। पश्चिमी विचार में सम्पूर्ण जीवनचर्या का प्रेरक तत्त्व कामनापूर्ति है। और भौतिक पदार्थों को प्राप्त करना ही कामनापूर्ति का स्वरूप है। कामनापूर्ति से शरीर को सुख की अनुभूति होती है। हमारी मान्यता है कि कामनाएँ अनन्त हैं, इसलिए उनकी पूर्ति असम्भव है। महाभारत में इसी आशय का श्लोक है –
न जातु काम: कामानां उपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णमर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।।
“जैसे यज्ञ में घी डालने से यज्ञाग्नि बुझती नहीं और अधिक प्रज्वलित होती है, उसी प्रकार कामनाओं का सेवन करने से कामनाएँ शान्त नहीं होती और अधिक बढ़ जाती है।” इसलिए कामनापूर्ति का पुरुषार्थ कभी रुकता नहीं है। कामनाओं की पूर्ति जितनी अधिक मात्रा में होती है, उतना ही अधिक सुख मिलता है और जितना अधिक सुख मिलता है, उतनी ही अधिक सफलता मिलती है। यह पश्चिमी भौतिक विचार है।
इस भौतिकता का विस्तार अनेक रूपों में दिखाई देता है। वस्तुओं का मूल्यांकन भौतिक आधार पर किया जाता है। जैसे – विद्यालय का भवन कितना भव्य है, उसमें आधुनिक सुविधाएँ कैसी हैं, विद्यालय का शुल्क कितना अधिक है? ये सब विद्यालय के मूल्यांकन के बिन्दु होते हैं। विद्यालय के सर्वांगीण मूल्यांकन में इस बिन्दु का भी महत्व है, परन्तु केवल इसी बिन्दु के आधार पर किया गया मूल्यांकन अधूरा होता है। सामान्य भवन में और कम सुविधाओं में भी अच्छी शिक्षा होती है, यह बात किसी के समझ में नहीं आती, क्योंकि उनकी दृष्टि ही भौतिक है।
बजट गुणवत्ता का मापक
किसी कार्यक्रम या प्रकल्प का बजट कितना है, इस आधार पर उस प्रकल्प का मूल्यांकन किया जाता है। कम बजट वाला प्रकल्प स्वतः ही कम गुणवत्ता वाला मान लिया जाता है। वास्तव में तो कम खर्च में अच्छा और कम समय में प्रकल्प पूर्ण करने वाले को मूल्यांकन में प्रथम क्रम मिलना चाहिए। परन्तु भौतिकवादियों की दृष्टि में इस कर्म-कुशलता का कोई महत्व नहीं है। प्रति व्यक्ति आय, देश की कुल आय और इस जीडीपी को बढ़ाने वाला उत्पादन देश को विकास के सूचकांक में स्थान दिलाता है। कौन सी वस्तु का उत्पादन हो रहा है, इससे उनको कोई लेना-देना नहीं। जैसे – शराब का उत्पादन, गोमांस का उत्पादन, नशीली वस्तुओं का उत्पादन आदि से आय बढ़ती है तो वे होने चाहिए। उनका युवा पीढ़ी पर दुष्प्रभाव होगा, इसकी उन्हें तनिक भी चिन्ता नहीं होती।
भारतीय परिवारों में भोजन घर में ही करना उत्तम माना जाता है, इसलिए होटलों में कम लोग जाते हैं। कम लोगों के जाने से होटल ज्यादा नहीं चलते, देश की जीडीपी कम होती है। हमारे घरों में माताओं को भोजन बनाने व अन्य काम करने के पैसे नहीं मिलते, इसलिए देश की जीडीपी कम होती है। देश में यदि लोग बीमार कम होते हैं तो अस्पताल व दवाई बाजार कम चलता है। परिणामस्वरूप देश की जीडीपी कम होती है, जिससे हमारा देश विकसित देशों की श्रेणी में नहीं आता, विकासशील देश माना जाता है। हमारा देश विकसित देश नहीं है, इसका कारण पैमाना भौतिक है। भारत को यदि विकसित देश बनना है तो उसे अपनी संस्कृति छोड़नी पड़ेगी। क्योंकि पैमाना सांस्कृतिक नहीं है, भौतिक है और भौतिक पैमाने में संस्कृति को कोई स्थान नहीं है। भारतीय आध्यात्मिक मानक अपनाने से संस्कृति व समृद्धि दोनों बढ़ती है।
भौतिकता का प्रभाव फैल रहा है
आज हम भी भौतिक विकास को ही वास्तविक विकास मान रहे हैं। घर कैसा है? इसका मापन शयनकक्षों से करते हैं, वन बेडरूम नहीं, टू बेडरूम नहीं, फोर बेडरूम है तो घर बढ़िया है। घर में रहने वाले लोगों के संस्कार कोई नहीं देखता। विद्यालय का मापन वातानुकुलित कक्षों व कम्प्यूटरों से आँका जाता है, शिक्षा व संस्कार से नहीं। समारोहों का मूल्यांकन श्रोताओं की संख्या व उस पर हुए खर्च से होता है। परीक्षा में सफलता का मापदंड कितने अधिक अंक मिले से होता है, ज्ञान या योग्यता से नहीं। नौकरी का मापदंड कार्य से नहीं, अधिक वेतन से होता है। चिकित्सालय का मूल्यांकन कितने अधिक रोगी आते हैं, डॉक्टर कितनी अधिक फीस लेते हैं, इससे होता है। यह अत्यन्त विपरीत दिशा का विकास है।
भारत में यह भौतिकता अनेक रूपों में फैल रही है। परन्तु अपनी संस्कृति को छोड़ना हमारे लिए सम्भव नहीं हो रहा है। हम इतने अधिक ‘व्यावसायिक’ नहीं हो पाते, इसलिए भौतिक विकास में पीछे रह जाते हैं। हमें वास्तव में इसे अपना सौभाग्य मानना चाहिए कि भौतिकता के बढ़ते प्रभाव में हम तो अपनी संस्कृति छोड़ने को तैयार हैं, परन्तु संस्कृति हमें नहीं छोड़ रही है।
भौतिक बातों को भौतिक बनाना
आश्चर्य तो इस बात का है कि भौतिकवादी दृष्टि और अधिक गहराई में जाकर अभौतिक बातों को भी भौतिक बना देती है। इसका एक मुखर उदाहरण हमारा ‘योग’ है। योग अध्यात्म विद्या है, योग का सार समाधि है, योग का परिणाम आत्म साक्षात्कार है। परन्तु हम योग के अत्यन्त स्थूल अंगों को ही स्वीकार करते हैं। अष्टांग में से केवल दो अंग आसन व प्राणायाम को ही लेते हैं, जिनका सम्बन्ध शरीर व प्राण के साथ है। अर्थात् वे अंग जिनका सम्बन्ध व्यक्तित्व के भौतिक आयाम के साथ है, वे ही हमें योग लगते हैं। हम उनकी प्रतियोगिता आयोजित करते हैं, जबकि ये भौतिक आयाम होते हुए भी प्रतियोगिता के विषय नहीं हैं। और योग के शेष अंग यम, नियम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि की प्रतियोगिता नहीं हो सकती, इसलिए उनकी बात ही नहीं करते, क्योंकि ये स्थूल नहीं आन्तरिक व सूक्ष्म विषय हैं। अतः हमने योग को अन्त:करण का विषय न मानकर शारीरिक का विषय बना दिया है। इस अर्थ में शरीर का व्यायाम और चिकित्सा ही योग के विषय हैं। इस प्रकार एक आध्यात्मिक विषय को भौतिक विषय बना देने की क्षमता इस भौतिकवादी दृष्टि में है।
यही दशा मनोविज्ञान की है
मनोविज्ञान का अर्थ ही है, मन का विज्ञान। मन का लक्ष्य है, कामनाओं की पूर्ति करना। परन्तु कामनाएँ अनन्त होने के कारण उनकी पूर्ति होना सम्भव नहीं है, यह हम जानते हैं। जब कामनाओं की पूर्ति नहीं होती तो मन छटपटाने लगता है। मन को हमेशा चाहिए और चाहिए तो होता है, परन्तु जब कोई वस्तु बहुत अधिक मात्रा में बार-बार मिलती ही रहती है तो मन उस वस्तु से ऊबने लगता है। मन को नित्य नई वस्तु चाहिए और नई वस्तु की तृष्णा में वह पागल हो जाता है। उस पागलपन की स्थिति में उसकी चंचलता गति में, उसकी उत्तेजना उन्माद में और उसका असन्तोष हिंसा में बदल जाता है। सभी प्रकार के अनाचार इसमें से ही पैदा होते हैं। इसलिए भारतीय आध्यात्मिक दृष्टि मन को वश में रखने की, उसे शिक्षित करने की है, किन्तु पश्चिमी भौतिकवादी विचार मन के रंजन की बात करता है जो कभी होने वाला नहीं।
पश्चिम में मनोविज्ञान के सारे परीक्षण भौतिकता पर आधारित हैं। कला, संस्कृति, साहित्य व संगीत जैसे सांस्कृतिक विषयों को भी भौतिक दृष्टि से ही देखा जाता हैं। टीवी के सभी कार्यक्रम साज-सज्जा, वेशभूषा, ध्वनि और प्रकाश के द्वारा ही प्रभावी बनाए जाते हैं। उन कार्यक्रमों में कला पक्ष का महत्व तो गौण ही होता है। आज विकास के सभी मापदंड भौतिक हैं। सड़कों की चौड़ाई बढ़ना, एक लेन से फोर लेन होना विकास है। वाहनों की संख्या में वृद्धि होना विकास है, दो वर्ष पहले तक उसके पास केवल मोटरसाइकिल थी अब तो घर में चार-चार कारें हैं, देखो उसने कितना विकास कर लिया। इसी प्रकार कम्प्यूटर व मोबाइल की वृद्धि भी विकास की सूचक है। अब तो सुख का सूचकांक भी भौतिक मापदंडो से मापा जायेगा। जबकि हमारी दृढ़ मान्यता है कि सुख भौतिक वस्तुओं में नहीं है, आत्मिक आनन्द में है। इसलिए सुख का मापन भौतिक मापदंड़ों से हो ही नहीं सकता। अर्थात् पश्चिम का भौतिक आधार अपूर्ण है।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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