दृढ़ निश्चयी बालाजी

✍ गोपाल माहेश्वरी

चिंगारियाँ अंगार से जब आग लेकर छूटती हैं।

बुझने से पहले वह समूचा वन जलाती लूटती हैं।।

वह सारी रात जागा था कि कब भोर हो और उसे अपने मन की साध् पूरी करने का अवसर मिले। पूरी रात वह कागज की पट्टियाँ काट-काट कर जोड़ता रहा – केसरिया, सफेद, हरी। उसने कई छोटे-छोटे तिरंगे बनाए थे अपने लिए भी और अपने साथियों के लिए भी। वह था महाराष्ट्र के चिमूर नामक एक गाँव का मात्र 16 वर्ष का बच्चा बालाजी। पूरा नाम बालाजी रायपुरकर। 15 अगस्त 1942 की रात को पूरी-रात घटाटोप बादल घिरे रहे, बिजलियों की कड़क और मेघों की गड़गड़ाहट से सारा कस्बा काँप रहा था पर यह बालक ऐसे में डरने की बजाय अधिक उत्साह अनुभव कर रहा था क्योंकि वह स्वयं भी तो एक गरजते-तरजते तूफान की योजना बना रहा था।

पिता रघोबा भी देश की स्वतंत्रता के साहसी योद्धा थे। वे ऐसी तूफानी रात में भी देशभक्तों की एक गोपनीय सभा में अगले दिन एक विशाल जुलूस की तैयारियाँ करके लौटे थे।

प्रातः पूरे कक्ष में तिरंगी झण्डियाँ और कागज की तिरंगी कतरनें देख कर कुछ पूछते, तब तक बालाजी स्वयं बोल पड़ा “आज जुलूस है न ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का उसी के लिए।”

“तो आप भी जुलूस में जा रहे हैं?” पिता ने पूछा।

“हाँ, और मेरे मित्र भी। इसीलिए तो बनाए हैं इतने तिरंगे।”

स्वर में अटल निश्चय झलक रहा था।

पिताजी परिस्थितियों की भयानकता जानते थे। जुलूस का अर्थ था लाठी, गोली, गिरफ्तारी। उन्होंने बालाजी की माँ को यह काम सौंपा कि वे बच्चों को जुलूस में न जाने के लिए मना ले। माँ का बालाजी को बहलाने-समझाने का हर प्रयत्न असफल हुआ। जुलूस निकालने का समय निकल चुका था, अतः बालाजी का अब अपने मित्रों को एकत्र करना संभव न था। उसने एक झण्डी अपनी कमीज में छुपाई और माँ की दृष्टि से बचते हुए दौड़कर जुलूस में जा मिला।

जुलूस पुलिस थाने की ओर आता देख थाने को पुलिस की सशस्त्र टुकड़ियों ने चारों ओर से घेर रखा था। अति उत्साह से भर कर बालाजी भीड़ को चीरता हुआ सबसे आगे आ गया था। सामने अनेक बन्दूकें गोलियाँ उगलने को तैयार तनी हुई थीं पर ‘थाने पर तिरंगा लहराना है’ बस एक ही धुन जिसके सिर सवार हो, ऐसे बालाजी को मानो वे दिख तक नहीं रही थीं।

उपफ्! आज तो नराधम अंग्रेजों ने चेतावनी तक न दी और गोली वर्षा कर दी। नन्हे से बालाजी के सीने में अनेक गोलियाँ समा गईं। रक्त के फुव्वारे फूट रहे थे पर बालक बालाजी के मुख पर विजय की लाली थी। वह तिरंगा वो वह नहीं फहरा सका पर अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के पथ पर अपने प्राण-पुष्प अर्पित कर सदा के लिए देशभक्ति की अमर ज्योति बन गया।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

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