भारतीय ज्ञान का खजाना-23 (कटपयादी संख्या का रहस्य)

✍ प्रशांत पोळ

एक विशाल सरोवर है। सरोवर के किनारे एक बड़ा वृक्ष है। सरोवर में गोपियाँ नहा रही हैं और उनके कपड़े सँभालते हुए, वृक्ष पर बाँसुरी बजाते हुए श्रीकृष्ण बैठे हुए हैं। यह दृश्य हमने अनेक चित्रों में, अनेक फिल्मों में देखा होगा। अब इस दृश्य में नारद मुनि का आगमन होता है। वे गोपियों से बातें करते हैं। उनसे पूछते हैं कि “क्या उन्हें श्रीकृष्ण, छेड़खानी करने वाला, कष्ट देने वाला कोई नटखट लगता है?”

हर एक गोपी से अलग-अलग बातें करते समय नारदजी को लगता है कि गोपियों को श्रीकृष्ण से कोई समस्या नहीं है। उन्हें वह नटखट नहीं लगता है। प्रत्येक गोपी कहती है कि श्रीकृष्ण उनके बहुत करीब हैं। कितने करीब?

तो श्रीकृष्ण की प्रत्येक गोपी से निकटता समान है। बीच में खड़ा हुआ श्रीकृष्ण और उसके चारों ओर, समान अंतर पर खड़ी हुई सारी गोपियाँ, अर्थात् गोपिका गोलाकार खड़ी हैं और बीच में केंद्र बिंदु में श्रीकृष्ण हैं। इस रचना के लिए संस्कृत में एक श्लोक है। ऐसी मान्यता है कि यह श्लोक, महाभारत के जो श्लोक लापता हैं या नहीं मिल पाए हैं, उनमें से एक है-

“गोपीभाग्य मधुव्रातः श्रुंगशोदधि संधिगः।

खलजीवितखाताव गलहाला रसंधरः॥”

अनुष्टुभ छंद में रचा यह श्लोक पढ़कर ऐसा लगता है कि इसमें श्रीकृष्ण भगवान् की स्तुति की गई है, किंतु इसमें शंकर भगवान् की भी स्तुति है। प्राचीन काल में शैव और वैष्णवों को लेकर जिस विवाद की बातें होती हैं, उस संदर्भ में यह श्लोक महत्त्वपूर्ण है।

परंतु इससे भी एक बड़ी महत्त्वपूर्ण बात इस श्लोक में छिपी है। श्रीकृष्ण और गोपियों के बीच में जो केंद्र और वृत्त का संबंध दर्शाया गया है, उस संबंध की गणितीय परिभाषा इस श्लोक में छिपी हुई है। इस परिभाषा के कारण ही गणितीय सूत्र में मुख्य भूमिका निभाने वाले पाई (pi) की बिल्कुल शुद्ध और सही कीमत मिल रही है। गोपियों के निर्माण किए हुए वृत्त की परिधि निकालना हो तो आज गणित में निम्नानुसार सूत्र है-

परिधि = 2*पाई*त्रिज्या

वृत्त की त्रिज्या, अर्थात् गोपियों और श्रीकृष्ण के बीच समसमान अंतर। इसमें π की निश्चित संख्या अनेक वर्षों तक मालूम नहीं थी। π को 22/7 ऐसा भी लिखा जाता था, अर्थात् 3.14, लेकिन इस श्लोक के अनुसार की π कीमत दशमलव के आगे 31 संख्या तक मिलती है।

अब इस श्लोक में छिपी हुई π की संख्या कैसे दिखेगी? इसका उत्तर है- ‘कटपयादी संख्या। ‘कटपयादी’ प्राचीन काल से संख्या को कूटबद्ध (Encrypt) करने की पद्धति है। संस्कृत वर्णमाला में जो अक्षर हैं, उन्हें 1 से 0 संख्या के साथ जोड़ने से ‘कटपयादी’ संख्या तैयार होती है।

इस कटपयादी संख्या को समझने के लिए एक श्लोक का उपयोग करते हैं-

का दि नव

टा दि नव,

पा दि पंचक,

या दि अष्टक,

क्ष शून्यम्।

इसका अर्थ है सब अक्षरों के लिए एक-एक अंक दिया है। इसका कोष्ठक है-

‘क’ से आगे नौ संख्या (अर्थात् क्रम से 1 से 9)

क =1 ख = 2 ग = 3 घ = 4 ङ = 5 च = 6 छ = 7 ज = 8 झ = 9 ‘ट’ से आगे नौ-ट = 1 ठ = 2 ड = 3 ढ = 4 ण = 5 त = 6 थ = 7 द =8 ध = 9

‘प’ से आगे पाँच-प = 1 फ = 2 ब = 3 भ = 4 म = 5 ‘य’ से आगे आठ-य 1 = र = 2 ल = 3 व = 4 स = 5 श = 6 ष = 7  ह = 8

‘क्ष’ = 0

इसको आधार मानते हुए अब अपने श्लोक की संख्या आएगी- गोपीभाग्यमधुव्रात गो-3, पी-1, भा-4, ग्य (इसमें मूल अक्षर ‘य’ है)-1, म-5, धु-9 अर्थात् 3.14159 यह कीमत है π की।

अर्थात् सैकड़ों वर्ष पूर्व वृत्त की परिधि निकालने के लिए π के अनुपात (ratio) की कीमत इतने विस्तार से कैसे निकाली गई होगी, यह प्रश्न शेष रहता ही है।

पृथ्वी की परिधि और व्यास, चंद्रमा की परिधि और व्यास, पृथ्वी से चंद्रमा का अंतर आदि जानकारी हजारों वर्ष पूर्व के भारतीय ग्रंथों में मिलती है। आज के अत्याधुनिक तकनीकी से निकाली गई परिधि की संख्या और प्राचीन वेद ग्रंथों में वर्णित विभिन्न श्लोकों से/सूक्तों से निकाली गई परिधि की संख्या लगभग समान है। उदाहरण- आर्यभट्ट के अनुसार पृथ्वी की परिधि 4967 योजन, अर्थात् 39,968 किलोमीटर है। (आर्यभट्ट का कार्यकाल था- सन् 476 से सन् 550 तक) आधुनिक तकनीक के अनुसार, यह 40,075 किलोमीटर है। मात्र 0.27 प्रतिशत का अंतर इतनी यथार्थता प्राचीन गणना में हमें मिलती है।

π की संकल्पना कितनी प्राचीन हो सकती है? ईसा पूर्व 1900 वर्ष में बेबीलोनियंस और इजीप्शियन लोगों ने इसका उपयोग किया, ऐसे उल्लेख मिलते हैं। पश्चिम के देशों में विज्ञान का अधिकतम इतिहास जतन करके रखा है, इसलिए वहाँ प्रमाण मिलते हैं। वहाँ पर आक्रांताओं ने इस इतिहास को नष्ट नहीं किया था। हमारे यहाँ परिस्थिति बिल्कुल विपरीत है। आने वाले हर आक्रांता ने यहाँ के ज्ञान के साधन ही नष्ट किए, इसलिए प्राचीन समय के प्रमाण मिलना अत्यंत कठिन है। किंतु फिर भी ईसा पूर्व 800 वर्ष, बोधायन के ‘शल्ब सूत्रों’ में π संख्या का उल्लेख मिलता है।

सन् 500 के आसपास आर्यभट्ट ने की कीमत दशमलव के आगे 4 संख्या तक निकाली थी, इसलिए उस समय का शुद्ध मान (सही कीमत या संख्या) निकालने का श्रेय आर्यभट्ट को ही जाता है। उसके बाद कटपयादी संख्या वाले श्लोकों की सहायता से π का मान दशमलव के आगे 31 संख्या तक मिलता है।

कटपयादी संख्या का उपयोग केवल गणित में ही नहीं, अपितु भारतीय संगीत रागदारी, खगोलशास्त्र आदि अनेक विषयों में भी हुआ है। दाक्षिणात्य संगीत, विशेषत: कर्नाटक संगीत में इसका उपयोग विशेष रूप से किया गया है। कटपयादी के माध्यम से अलंग-अलग राग और रागों की स्वर-मालिका याद रखना आसान हो जाता है।

ईसा पूर्व 400 वर्ष पूर्व पिंगलाचार्य ने कटपयादी का उपयोग अलग पद्धति से किया। पिंगलाचार्य व्याकरण महर्षि पाणिनि के बंधु थे। उन्होंने वेद मंत्रों के ‘छंद’ का अभ्यास करने के लिए ‘छंदशास्त्र’ की रचना की। इसमें आठ अध्याय हैं। इस ‘पिंगलसूत्र’ के नाम से भी जाना जाता है।

वेदों के ‘वृत्त’ में ‘लघु-गुरु’ पद्धति का उपयोग होता है। यह पद्धति आज के विज्ञानयुग में, कंप्यूटर में उपयोग में लाई जानेवाली ‘बाइनरी’ पद्धति के समान है। इसमें लघु 1 और गुरु 0 संख्या से दर्शाया जाता है। इसकी सहायता से पिंगलाचार्य मुनि द्वारा तैयार किए हुए कटपयादी सूत्र हैं-

म 000               य 100

र 010                स 110

त 001               ज 101

भ 011               न 111

अर्थात् कटपयादी के माध्यम से हमारे देश में हजारों वर्षों से गणित, खगोलशास्त्र, छंदशास्त्र, संगीत आदि विषयों में अध्ययन हुए हैं। इस सूत्र के द्वारा π का मान, दशमलव के आगे 31 अंकों तक निकालना और उसे किसी श्लोक में छिपाकर रखना (Embedded करना) यह सब अद्भुत ही है।

और पढ़ें : भारतीय ज्ञान का खजाना-22 (लोहस्तंभ)

Facebook Comments

One thought on “भारतीय ज्ञान का खजाना-23 (कटपयादी संख्या का रहस्य)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *