पाती बिटिया के नाम-45 (ईमानदारी दिखावटी गहना नहीं)

 – डॉ विकास दवे

प्रिय बिटिया!

प्रतिदिन समाचार-पत्र पढऩे की आदत तो तुमने बना ही ली होगी। वैसे भी वर्तमान घटनाचक्र से हमें सदैव परिचित रहना ही चाहिए। आजादी की स्वर्ण जयंती मना चुका अपना देश आज जिन परिस्थितियों से गुजर रहा है वह कोई बहुत अच्छी स्थिति नहीं मानी जा सकती। वैसे इस आयु में आप राजनीति में तो रुचि रखती नहीं होंगी किन्तु इस बात का खेद तो होता ही होगा कि सुबह उठते ही रोज एक घोटाले का समाचार मिल जाता है। राष्ट्र को सोने-चाँदी से तौल देने वाले इन नेताओं से तो घृणा होती ही है, कभी-कभी राजनीति से भी घृणा होने लगती है। आप जैसे कुछ बच्चों की सोच तो यहाँ तक बनी होगी कि राजनीति में कोई ईमानदार हो ही नहीं सकता।

आपकी इस धारणा को गलत साबित कर देगा एक ऐसा व्यक्तित्व जिसके नाम से आप भली भाँति परिचित हैं। उस व्यक्तित्व को हम सब दीनदयाल उपाध्याय के नाम से जानते हैं। राजनीति के कीचड़ में रहकर भी उन्होंने जीवनभर जैसा सादगीपूर्ण जीवन जिया उसे देखकर उनके विरोधी भी कभी उन पर कोई आक्षेप नहीं लगा पाए। उनकी ईमानदारी के यूँ तो कई प्रसंग हैं लेकिन एक छोटा सा प्रसंग ही आपको सुनाता हूँ।

एक बार दीनदयाल जी ट्रेन से प्रवास कर रहे थे। उन्होंने अपना सामान खोला तो साथ बैठे सज्जन ने देखा कि उनके पास एक ट्रांजिस्टर रखा है। दीनदयाल जी चूँकि प्रतिदिन के समाचार आवश्यक रूप से सुनते थे इसलिए ट्रांजिस्टर वे सदैव साथ रखते थे। यह वह समय था जब ट्रांजिस्टर चलाने के लिए भी लायसेंस बनवाना पड़ता था। कर की राशि जमा करवाकर लायसेंस का प्रतिवर्ष नवीनीकरण करवाना होता था।

अचानक जब समाचार का समय हुआ तो दीनदयाल जी ने अपने पड़ोस में बैठे सज्जन से कहा- “क्या आप अपना ट्रांजिस्टर चालु करेंगे? मैं समाचार सुनना चाहता हूँ”। पड़ौसी सज्जन ने पूछा- “क्या आपके पास ट्रांजिस्टर नहीं है या उसमें सेल नहीं है?” दीनदयाल जी बोले- “मेरे पास ट्रांजिस्टर भी है और उसमें सेल भी हैं”। अब तो पड़ोसी सज्जन थोड़े चीढ़ गए बोले- “तब अपना ही ट्रांजिस्टर सुनिए, मेरा ट्रांजिस्टर फालतू नहीं है”। दीनदयाल जी बोले- “अरे भाई! सच बात तो यह है कि कल ही मेरे ट्रांजिस्टर का लायसेंस समाप्त हुआ है। जल्दबाजी में मैं इसका नवीनीकरण नहीं करवा पाया। जब तक मैं सरकार को इसका कर नहीं दे देता मुझे ट्रांजिस्टर चलाने का क्या अधिकार है?”

अब शर्मिदा होने की बारी उन सज्जन की थी। जब उन्हें परिचय से पता चला कि वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष दीनदयाल जी उपाध्याय हैं तो वे पैरों में गिर पड़े। तो देखा बच्चों आपने ईमानदारी थी उन दिनों राजनीति में भी। उन्हीं दीनदयाल जी का तैयार किया हुआ एक सामान्य सा जनसंघ का कार्यकर्ता आज अपने देश के प्रधानमंत्री अटल जी के रूप में दिखाई दे रहा है। अब समझ में आया ना आचरण द्वारा दिए गए संस्कार व्यक्ति में कितने गहरे तक असर करते हैं? राजनीति से घृणा हो तो एक बार डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल जी एवं लाल बहादुर शास्त्री जैसे राजनेताओं को स्मरण कीजिए, घृणा कुछ हद तक समाप्त हो जाएगी, और बढग़ी लोकतंत्र में आस्था।

-तुम्हारे पापा

(लेखक इंदौर से प्रकाशित देवपुत्र’ सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)

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