– नम्रता दत्त
नवजात शिशु के रोग एवं घरेलू उपचार
गर्भावस्था में शिशु केवल माता की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति (आहार-विहार) से प्रभावित होता है। परन्तु जन्म के पश्चात् वह माता के साथ-साथ (क्योंकि वह माता का दूध पीता है) बाहरी परिस्थितियों अर्थात् वातावरण की परिस्थितियों से भी प्रभावित होता है। गर्भ में अंधेरा है तो बाहर उजाला है। गर्भ का तापमान प्राय स्थिर है तो बाहर ऋतु परिवर्तन है। गर्भ में स्वयं आहार मिल जाता है तो बाहर भूख लगने पर आहार रोकर मांगना पङता है। गर्भ में परावलम्बी है तो बाहर स्वावलम्बी बनने का पुरूषार्थ करना पङता है। जैसे गर्भ में नौ मास में प्राकृतिक रूप से विकास होता है, वैसे ही अब भी विकास एवं वृद्धि प्राकृतिक रूप से होनी ही है। इस दृष्टि से देखा जाए तो जन्म के पश्चात् एक वर्ष के कालांश में शिशु को स्वयं को परिस्थितियों के अनुकूल बनाने के लिए कई प्रकार के संक्रमण से जूझना पङता है। इन सब के कारण उसका स्वास्थ्य कभी कभी बिगङ जाता है।
यह शरीर प्रकृति के पांच तत्वों से बना है। प्रकृति से सामंजस्य बनाने में उपजी समस्याएं अथवा बीमारियां भी प्राकृतिक ही हैं। इनका उपचार भी प्रकृति में ही उपलब्ध है। यह कोई असाध्य रोग नहीं हैं। यदि माता-पिता को इन रोगों के कारण और निवारण का ज्ञान हो तो वह बिना किसी तनाव के शिशु के रोगों का उपचार प्राकृतिक रूप से अर्थात् घरेलू उपायों से कर सकते हैं। अज्ञानतावश माता-पिता इन्हें असाध्य रोग समझ लेते हैं और चिंतित होकर तुरन्त ही डॉक्टर के पास जाते हैं और एलौपैथिक दवाइयों से उसका इलाज कराते हैं। इन दवाइयों से शिशु तत्काल ठीक तो हो जाता है परन्तु उसके दुष्परिणाम भी होते हैं क्योंकि शिशु का शरीर अभी अंदर और बाहर से कमजोर है। एलोपैथिक दवाइयों के रसायनों को वह अभी झेल नहीं पाता है।
जन्म से 6 माह तक शिशु अधिकांशतः माता के दूध पर ही निर्भर रहता है। ऐसे में माता को विशेष सावधानियां रखने की आवश्यकता होती है। जैसे कि –
- माता को खट्टा, मीठा, अधिक ठंडा, अधिक मसाले वाला और बेसन युक्त आहार का सेवन नहीं करना चाहिए।
- माता धूप अथवा पानी में काम करके आई हो तो तत्काल शिशु को दूध नहीं पिलाना चाहिए।
- माता को दूध पिलाते समय स्वच्छता का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए। पसीना आने पर स्तन साफ करके ही दूध पिलाएं।
- माता को वायुकारक भोजन जैसे मटर, उङद की दाल एवं अरबी आदि का सेवन नहीं करना चाहिए।
- शिशु को बुखार, पेट दर्द अथवा दस्त आदि लगने पर माता को उपवास रखना चाहिए। माता के भोजन की लापरवाही के कारण ही यह सब होता है। अतः शिशु को स्वस्थ रखने के लिए माता को स्वयं के भोजन पर संयम रखना होगा।
दर्द की पहचान एवं उपचार करना
शिशु की कुछ बीमारियां तो प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं परन्तु कहीं दर्द आदि होने पर वह रोता है और माता-पिता उसके रोने के कारण को समझ ही नहीं पाते। अतः ऐसी स्थिति में रोते हुए उसकी क्रियाओं को जांचना भी माता को आना चाहिए। यदि रोते समय शिशु अपने कान को मसल रहा है तो इसका अर्थ है कि उसके कान में दर्द है। ऐसे में सरसों के तेल में लहसुन की कलियों को जलाकर ठंडा करके (गुनगुना) डालना चाहिए।
यदि माता लेटे-लेटे शिशु को दूध पिलाती हैं तो शिशु के कान से रिसाव होने लगता है। ऐसे में नीम के पत्तों को उबालकर उसके पानी (रूई को सींक पर लपेट कर/बड्स) से साफ करना चाहिए।
यदि शिशु रोते हुए अपने पैरों को पेट की तरफ सिकोङ रहा है तो उसके पेट में दर्द है। ऐसी स्थिति में हींग और पानी/घी के गुनगुने घोल में रूई भिगोकर उसकी नाभि के आसपास लेप करने से दर्द ठीक हो जाता है। स्तनपान करने वाले शिशु को दिन में दो से तीन बार ग्राइप वाटर/मुगली घुट्टी देने से ऐसी समस्या नहीं आती।
कई बार शिशु भूख से रोता है परन्तु दूध पिलाने में भी दूध को पी नहीं पाता और रोता हैं। ऐसी स्थिति में उसकी हसली (गरदन की हड्डी) उतर जाती हैं। जिसके कारण वह निप्पल को मुंह में लेकर चूस (suck) नहीं पाता। अनजाने में जब कोई शिशु को उसका एक ही हाथ पकङ कर उठाते हैं तो ऐसा हो जाता है। शिशु को गोद में लेते समय उसे दोनों हाथों से उसके कंधों को संभालकर पकङते हुए उठाना चाहिए। ऐसी परेशानी का इलाज शारीरिक व्यायाम से ही हो पाता है। किसी दवाई से इसका इलाज सम्भव ही नहीं। दाएं हाथ और बाएं पैर को तथा बाएं हाथ और दाएं पैर को बारी बारी से क्रास करके मिलाएं।
दूध पीने के बाद उल्टी करने का उपचार
शिशु सामान्यतः दूध पीने के बाद उल्टी कर देता है। दूध पिलाने के बाद शिशु को कंधे से लगाकर उसकी कमर को सहलाएं। ऐसा करने से उसको डकार आ जाएगी और वह उल्टी नहीं करेगा। दूध पिलाने के बाद उसे सुहागा भी चटाया जा सकता है। सुहागे को गर्म तवे पर भूनकर, पीस कर पाउडर बनाकर रख लें और दूध पिलाने के बाद उसे आधा चने के दाने जितना चटा दें। यदि सर्दी के कारण उल्टी आ रही है तो मां के दूध में जायफल घिस कर सुबह-शाम एक चम्मच पिला देने से सर्दी दूर होगी और वह उल्टी नहीं करेगा। सर्दी लगने पर उसके सीने पर सरसों अथवा तिल के तेल की मालिश भी करनी चाहिए।
मल मूत्र आदि त्यागने में शिशु रो रहा है तो –
शिशु यदि पेशाब करते समय रोता है तो उसे पेशाब में जलन हो रही है। इसके लिए उसे आंवले के रस में शहद मिलाकर दिन में दो तीन बार पिलाएं। शिशु के गुदा (anal) स्थान को भी चैक करते रहें। यदि वह स्थान लाल हो रहा है तो उसे कृमि काट रहे हैं। ऐसे में सरसों के तेल में रूई भिगोकर गुदा स्थान पर लगाएं।
ठंड लगने के कारण जुकाम (cold) खांसी, बुखार और दस्त आदि का उपचार
- यदि शिशु को ठंड लगने के कारण जुकाम (बवसक) खांसी, बुखार और दस्त आदि हो रहे हो तो उसे आधा चम्मच बाल चातुरभद्र चूर्ण को शहद में मिलाकर दिन में 3 से 4 बार चटाना चाहिए।
- शिशु को विक्स न लगाएं। उसके झूले/बिछौने में कपूर का पाउडर डालना चाहिए।
- माता दिन में 2 से 3 बार एक चम्मच सोंठ पाउडर को गर्म पानी से सेवन करे तथा शिशु को भी एक चम्मच सोंठ का पानी पिलाएं।
अन्य उपचार
- यदि माता/शिशु की आंख दुखने आ जाएं तो कान में 2 बूंद सरसों का तेल डालें और सरसों के तेल से ही पैरों की मालिश करें।
- बकरी के दूध में स्वच्छ सूती वस्त्र/रूई को भिगोकर आंख पर लगाना चाहिए।
- शिशु के दांत आ रहे हों तब सेंधा नमक एवं शहद मिलाकर मसूङो पर मालिश करें।
- शिशु को दूध पिलाने वाली माता को भी एलोपैथिक दवाइयों का सेवन नहीं करना चाहिए।
आवश्यकता पङने पर केवल आयुर्वैदिक चिकित्सक से परामर्श करना चाहिए। आयुर्वैदिक चिकित्सा भी प्राकृतिक जङी-बूटियों से ही होती है।
इस श्रृंखला के अगले सोपान में शिशु के खिलौने एवं वस्त्र पर विचार करेंगे।
(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती उत्तर क्षेत्र शिशुवाटिका विभाग की संयोजिका है।)
और पढ़ें : शिशु शिक्षा 22 ( जन्म से एक वर्ष के शिशुओं की माताओं का शिक्षण 2)