– डॉ. राम देशमुख
मनुष्य जीवन के प्रत्येक क्रियाकलापों का उसके परिवार, वह जिस समाज में रहता है वह समाज एवं प्रकृति के साथ घनिष्ठ़ संबंध होता ही है। भौतिक जगत की उत्पत्ति जिन पंच महाभूतों से हुई है, उसी पंच महाभूतों से मनुष्य शरीर भी निर्मित हुआ है। स्वाभाविक रूप से पंच महाभूतों से निर्मित प्रकृति के सभी नियम मनुष्य पर भी लागू होते हैं। किसी भी समाज का राष्ट्र जीवन, भूमि तथा प्रकृति से प्राप्त सभी प्रकार की प्राकृतिक संपदाओं के सहयोग से ही बनता है। कोई भी मनुष्य अकेले अपना जीवन सुखी और समृद्ध कर ही नहीं सकता। इस अनुभव के कारण मानव समाज परस्पर सहयोग से एक विशिष्ट भूमि पर नैसर्गिक संसाधनों की सहायता से अपना जीवन यापन कर रहा है।
स्वाभाविक ही साथ रहने के कारण एक दूसरे के सुख-दु:खों में वह परस्पर सहयोग करते हैं। आने वाली आपदाओं का साथ-साथ मुकाबला करते हैं। प्रकृति के साथ उनका एक नाता, एक अपनत्व का भाव निर्माण होता है। साथ रहते-रहते जीवन जीने की कुछ विशिष्ट पद्धतियाँ व परम्पराओं का भी विकास होता हैं। उस समाज में निर्मित मनिषियों द्वारा मनुष्य, परिवार, समाज, प्रकृति तथा परमात्मा के बीच अनुभव में आने वाले एकात्म भाव को मनुष्य समाज जीवन में कई परम्पराएं, प्रथाएं, उत्सव आदि कार्यक्रमों के माध्यमों से व्यक्ति से राष्ट्र तक एकात्म समाज का राष्ट्र जीवन खडा करने का प्रयास हमारे हिंदू समाज में हुआ है। इसीलिए व्यक्ति से समष्टि तक किसी भी स्तर पर होने वाले परिवर्तनों का, क्रिया कलापों का राष्ट्र जीवन पर प्रभाव होता ही है।
हमारा हिंदू जीवन भी हजारों वर्षों से ऐसे ही प्रक्रियाओं से राष्ट्र जीवन के रूप में विकसित हुआ है। हमारे प्राचीन ऋषि, मुनियों ने इस जगत का सूक्ष्म अध्ययन तथा अनेक उपसाना मार्गों से प्रत्यक्ष अनुसंधान कर व्यक्ति से परमात्म सृष्टि तक जो प्रत्यक्ष तथ्य उनके अनुभव में आए, उन्होंने समाज के सम्मुख रखें। वे सभी तथ्य आज के आधुनिक वैज्ञानिक भी मान रहे हैं। व्यक्ति को एक-दूसरे की सहायता के बिना तथा प्रकृति प्रदत्त नैसर्गिक संसाधनों के साथ समन्वय करके ही सुखी जीवन प्राप्त हो सकता है, इस वास्तविकता को हमारे मनिषियों ने जान लिया था। इस दृष्टि से व्यक्ति-व्यक्ति में तथा व्यक्ति और प्रकृति में सुसंगत समन्वय करने वाली जीवन पद्धति विकसित करने का प्रयास किया गया।
प्रकृति के बदलते स्वरूप के साथ समाज का स्वभाव सुसंगत हो सके इसीलिये उन्होंने अनेक परम्पराओं, उत्सवों एवं जीवन जीने की अनेक विधियों का आविष्कार कर समाज में संस्कारों के माध्यम से उसे स्थापित किया हैं। इसलिए केवल मकर संक्रांति ही नहीं हर उत्सव तथा परम्पराओं का राष्ट्र जीवन के हर अंग पर प्रभाव होता ही है। उसका अपना महत्व होता है। समाज में रहने वाले सभी व्यक्ति एक विचार से प्रेरित होकर, एक-दूसरे से संवाद करते हुये, संगठित होकर ही मनुष्य जीवन की सार्थकता को पा सकते है, यह अनुभव सिद्ध विषय उन्होंने सिद्धांतों तक सीमित न रखते हुये उसे उत्सव, विशिष्ट धार्मिक आयोजनों, कुलधर्म, कुलाचार आदि के माध्यम से व्यक्ति तथा समाज के स्वभाव को प्रकृति के साथ सुसंगत रखने का प्रत्यक्ष प्रयास किया है। ऐसा हम देखते है।
वैसे तो संक्रांति हर मास में होती है। लेकिन जनवरी मास के 14 तारीख को सूर्य का धनु राशि से मकर राशी में जाना विशेष महत्वपूर्ण माना जाता है। इस दिन दक्षिणायण समाप्त होकर उत्तरायण का प्रारंभ होता है। पौष मास के मकर संक्रमण से सूर्य नारायण धीरे-धीरे अधिक समय पृथ्वी तल पर प्रकाशमान होना प्रारंभ होता है। व्यवहार में हम इसे दिन बड़ा होना कहते है। 21 जून जो वर्ष का सबसे बड़ा दिन होता है, तब तक क्रमश: सूर्य देवता अधिक समय प्रकाशमान रहते है। इसलिये 21 जून को सारा विश्व अब योग दिवस मनाता है। सूर्य नारायण प्रकाशमान होते ही सम्पूर्ण जीवन गतिमान होता है। स्वाभाविक ही मकर संक्रांति के इस संक्रमण के बाद प्रकृति और मनुष्य जीवन भी जाड़े के जीवन में आई सुस्ती झटक कर गतिमान होता है, इस परिवर्तन को हम अनुभव करते ही हैं।
हमारे देश में इन दिनों नई फसल आती है। खेती हमारे देश का प्रधान अंग है। इन दिनों ठंड का मौसम भी रहता है। इस स्थिति को माध्यम बनाकर समाज जीवन में इन दिनों नई फसल से आने वाले फल, धान्य आदि का प्रेमपूर्वक परस्पर आदान-प्रदान करने की परम्परा हमारे पूर्वजों ने स्थापित की। भारतीय समाज जीवन में परिवार व्यवस्था का केन्द्र घर की महिला ही होती है। इसलिये महिलाओं के माध्यम से समाज में समरसता निर्माण करने का एक स्वाभाविक तथा सहज उत्सव हमारे पूर्वजों ने स्थापित किया।
मिट्टी के घागर में चावल और हरी मूंग दाल इकट्ठा कर परस्पर महिलाएं एक-दूसरे को प्रेम से देती है। मानो द्वैत भाव में जीने वाली मूंग दाल अद्वैत भाव में जीने वाले चावल के साथ में एकरस होकर अद्वैत का संदेश दे रही हो। इसी समय तिल की फसल भी होती हैं। तिल से मिलने वाली गर्मी शरीर स्वास्थ्य के लिये विशेष फलप्रद होती है। साथ ही तिल की गर्मी से नुकसान न हो, इसलिये सावधानी के नाते गुड़ को जोड दिया है। इस संक्रांति के मास में तील-गुड़ से बने हुये विविध प्रकार के पदार्थ ही सभी घरों में बनाये भी जाते और विशेष रूप से खाये भी जाते हैं। परस्पर एक दूसरे को तील-गुड़ देते समय “तील गुड़ लो और मीठा मीठा बोलो” ऐसा भाव भी व्यक्त किया जाता है। तील-गुड़ के लड्डू में कई स्थानों पर पैसे छुपाकर गुप्तदान की प्रथाएं भी दिखती है। गुजरात में तो इस पर्व पर समाज के सभी वर्गों के व्यक्ति एकत्रित होकर पतंग उत्सव मनाते है। मुस्लिम समुदाय भी इसमें सम्मिलित होता हुआ हम देखते हैं।
संक्रांति के साथ पौराणिक कथा भी जुड़ी है। राष्ट्र जीवन की स्थिरता के लिये दुष्ट शक्तियों का नाश एवं सज्जन शक्ति का रक्षण आवश्यक है। संकासुर और किंकरासुर नामक दैत्य जो समाज को पीड़ित करते रहते थे उनका वध इसी पर्व पर संक्रांति देवी ने किया था। उनके मृत्यु के कारण समाज में आनंद की लहर निर्माण हुई। जिसके फलस्वरूप समस्त महिलाएं एक-दूसरे के घर हल्दी-कुंकू के लिए आज भी जाती हुई दिखाई देती है। मकर संक्रांति से रथ सप्तमी तक सभी महिलाएं पूरे साज श्रृंगार के साथ उत्तमोत्तम आभूषण पहनकर एक-दूसरे के घर हल्दी-कुंमकुंम के लिये जाती है। सभी नगरों में नगर के रास्ते दोपहर से सायं तक महिलाओं से भरे रहते है। इन दिनों महिलाएं खेती से उत्पन्न फल-धान्य जैसे गेहू, जवारी, बाजरा, हरे चने, गन्ने के टुकड़े, बेर, गाजर, मटर, तील-गुड का लड्डू ऐसे पदार्थ हल्दी-कुंमकुंम के माध्यम से एक-दूसरों को देते है। हल्दी-कुंमकुंम हेतु आने वाली महिलाओं को हल्दी-कुंमकुंम आयोजन करने वाली महिला, महिलाओं के नित्य साज श्रृंगार में लगने वाली चीजें, जैसे चूडी, कंगा, तेल, बिंदी, रूमाल, बाली, नथनी, आयना, साड़ी पिन, दिया इत्यादी वस्तुओं की भेट स्वरूप देती है। मानो इस माह पूरे महिला समाज का घर-घर में सम्मेलन ही होता रहता है।
संपूर्ण समाज जीवन में एक-दूसरे से प्रेम से मिलता, नई फसल से आने वाली धान्य फलादी वस्तुएं प्रेमपूर्वक, परस्पर भेंट देना, हल्दी-कुंमकुंम के माध्यम से महिलाओं का परस्पर मिलना, संवाद करना, रोज उपयोग में आने वाली वस्तुओं को परस्पर आदान-प्रदान कर एक-दूसरे के सहयोग से ही कल्याण संभव इस राष्ट्रभाव का संस्कार करना यह स्वाभाविक प्रक्रिया राष्ट्र जीवन को दॄढ और चैतन्यदायी बनाती है। साथ ही साथ संपूर्ण सृष्टि में चैतन्य निर्माण करने वाली परमात्म शक्ति का भगवान सूर्य नारायण तथा संक्रांती देवी के रूप में आवाहन, पूजन, अभिषेक, सूक्तो का पठन-पाठन, होम आदि धार्मिक एवं आध्यात्मिक अनुष्ठानों द्वारा मन:शुद्धि का भी प्रयास इस पर्व के माध्यम से किया जाता है।
सारा समाज एक विचार, एक आचार और एक संस्कार से ऐसे उत्सवों के अवसर पर सामुहिक जीवन की आवश्यकता एवं यथार्थता का अनुभव करता है। इसलिये हमारे मनिषियों ने सामाजिक जीवन के हित में स्थापित किये सभी उत्सव एवं पर्वो की वैज्ञानिकता, सामाजिकता और आने वाली पीढ़ी में इसकी आवश्यकता को समझकर हमें आधुनिक समय में भी इन उत्सवों तथा पर्वों को अधिक सजगता के साथ हमारे दैनिक जीवन तथा सामाजिक जीवन में आचारों, विचारों में बनाये रखना अत्याधिक आवश्य़क है। तभी हम पाश्चात्य अंधानुकरण के कारण हो रहे विघातक सांस्कृतिक प्रदूषण से अपनी नई पीढी को और स्वयं को सुरक्षित रख सकेंगे।
(लेखक श्रीपाद कृष्ण कोल्हटकर महाविद्यालय, जळगांव (जामोद) जिला बुलडाणा, महाराष्ट्र में प्राचार्य है और विद्या भारती विदर्भ प्रान्त उपाध्यक्ष है।)
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