युग प्रवर्तक स्वामी विवेकानंद

 – अवनीश भटनागर

युग नायक तथा युग प्रवर्तक सामान्य रूप से समाज जीवन में किसी भी श्रद्धास्पद विभूति के लिए उपयोग किए जाने वाले शब्द हैं, किंतु यदि शब्दश: इनके भाव को लिया जाए तो अर्थ निकलता है- “एक युग में जन्म लेकर दूसरे को (आनयन् अथवा प्रवर्तन करने) लाने वाला”। इस अर्थ पर स्वामी जी का व्यक्तित्व खरा उतरता है।

1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के लगभग 5 वर्ष बाद नरेंद्र का जन्म हुआ। केवल देश की राजनैतिक सत्ता अंग्रेजों के हाथ में थी, इतना ही नहीं, बल्कि समाज के प्रबुद्ध माने जाने वाले वर्ग में मानसिक दासता के मान के प्रगाढ़ होने का कालखंड था वह- ‘मेघनाथ वध’ जैसे ग्रंथ के रचयिता, बंग कविता सम्राट की पदवी विभूषित मधुसूदन दत्त, ‘माइकेल’ मधुसूदन दत्त हो गए थे; प्रख्यात समाज सुधारक माधव चंद्र मलिक ने गंगा की सौगन्ध लेने से मना कर दिया था- अर्थात राष्ट्र के प्रति, जीवन के आस्था केंद्रों के प्रति अश्रद्धा का वातावरण निर्मित होने की पीड़ादायक कलाविधि भी वह! ऐसी सामाजिक परिस्थितियों में जब भारतवासियों के मन में शायद यह कल्पना भी ना आती हो कि वे कभी स्वतंत्रता की वायु में श्वास भी ले सकेंगे, नरेंद्र का जन्म मकर सक्रांति अर्थात गेगोरियन दिनांक अनुसार 12 जनवरी, 1863 को तत्कालीन कोलकाता में अधिवक्ता विश्वनाथ दत्त – माता भुवनेश्वरी देवी के घर में हुआ।

कहा गया है, ‘माता प्रथम गुरु:’। माता भुवनेश्वरी देवी ने बालक नरेंद्र की जीवन दृष्टि और चरित्र को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वामी जी स्वयं एक प्रसंग बताते थे- पिता प्रतिष्ठित अधिवक्ता थे और परिवार समृद्ध था। न्यायालय जाने के लिए श्री विश्वनाथ दत्त बग्गी का प्रयोग करते थे जिसको लाने-ले जाने तथा घोड़ों की देखभाल के लिए एक कर्मचारी रखा हुआ था, जिसे कोचवान कहते हैं। सफेद वेश में कमर पर कसकर पट्टा बांधे हुए कोठवान बालक नरेंद्र को बहुत आकर्षित करता था। एक दिन मां से कहा, “मां मैं भी बड़ा होकर कोतवाल बनूंगा”। आज के समय की मां होती तो यह अपना सिर पीट लेती या फिर बच्चे की पिटाई करती। किंतु माता भुवनेश्वरी ने बालक नरेंद्र को दीवार पर टंगे अर्जुन का रथ हांक रहे श्रीकृष्ण के चित्र की ओर इंगित कर के कहा, “हाँ बेटा, कोचवान बनना, इसके जैसा”। कहना न होगा कि बालमन अंकित वह छवि जीवन की प्रेरणा का कारण बन गई होगी।

नरेंद्र के जीवन को प्रभावित करने वाला, कहें कि युवक नरेंद्र को स्वामी विवेकानंद में परिवर्तित करने वाला दूसरा चरित्र है- स्वामी रामकृष्ण परमहंस देव का। कॉलेज का छात्र, पाश्चात्य ज्ञान से निकला हुआ, तर्कपूर्ण बात करने वाला, फर्राटेदार अंग्रेजी में वार्तालाप करने वाला, आकर्षक व्यक्तित्व का धनी नरेंद्र; और दूसरी और निरक्षर विक्षिप्तो की भांति रहने वाले, शांत स्वभाव तथा करुणा और श्रद्धा से भरा सामान्य जीवन दिखने वाला असाधारण व्यक्तित्व रामकृष्ण देव। दोनों का मिलन सामान्य नहीं था बल्कि विधाता की योजना से हुआ होगा। एक प्रकार से पश्चिम का पूर्व को नमन ऐसा कहा जा सकता है।

भारतवासियों में फैले हीनता भाव को समाप्त करने स्वामी जी अमेरिका गए। विश्व धर्म सम्मेलन में 11 सितंबर, 1893 को उस युवा सन्यासी का व्याख्यान, जिसका प्रारंभ करतल ध्वनि के बीच ‘अमेरिकावासी भाइयों और बहनों’ के संबोधन से हुआ, सनातन धर्म की विश्व में विजय पताका फहराने वाला सिद्ध हुआ। पहले दिन स्वामी जी को बोलने का अवसर अंत में मिल सका था किंतु शेष दिनों में उन्हें योजनापूर्वक अंत में बोलने के लिए रोका जाता था ताकि श्रोता बीच से उठकर ना जाए। शिकागो के उस सम्मेलन से प्रारंभ हुई वेदांत की वह यात्रा विश्व के अन्य देशों में बार-बार, अहर्निश से चलती रही। अपने ग्रंथों का आधार संवाद और प्रश्नोत्तर ही है- अर्जुन ने श्रीकृष्ण से, युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म से, पार्वती माता ने शिव से, भारद्वाज ने याज्ञवल्क्य से, नचिकेता ने यमाचार्य से, शौनक ने अंगिरा से, काकभुशुण्डि ने गरुड़ से प्रश्नों के समाधान पूछे जिनसे कथाएं और ग्रंथ बने। विश्व भर ने स्वामी जी से प्रश्न पूछे और समाधान में पुस्तकालयों में न समा सकें, इतना प्रचुर ज्ञान भंडार स्वामी जी ने विश्व को दिया।

अमेरिका-यूरोप की भूमि पर ईसाई समुदायों के मिशनरियों को स्पष्ट कहने का साहस भी स्वामी जी में ही था। भारत में सेवा, शिक्षा, उद्योग के लिए आओ तो भारत भूमि स्वागत करेगी। धर्म की शिक्षा भारत दुनिया को देने में सक्षम है। मत अंतरण के उद्देश्य से भारत में मत आओ।

विदेश यात्रा से वापसी पर प्रसिद्ध कोलंबो (अब श्रीलंका में) और मद्रास (वर्तमान में चन्नई) में भाषण युवाओं के लिए साक्षात देशभक्ति का ज्वार उत्पन्न करने वाले थे- “यह राष्ट्र जागृत देवता है। यह मातृभूमि साक्षात चैतन्यमयी देवी है। आगामी 50 वर्षों के लिए इस मातृभूमि, अपनी भारत माता के अतिरिक्त सभी देवी देवताओं को भूल जाओ। यही हमारी सर्वत्र आराध्य होनी चाहिए”। विदेश यात्रा पूर्ण कर भारत की भूमि पर पग रखने पर वे इस देश की मिट्टी में लौटे।

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स्वामी जी ने बार-बार विदेश यात्राएं भी की और भारत में अपने परिव्राजक काल (शिकागो जाने से पूर्व) के अनुभवों के आधार पर उन्होंने सामान्य समाज के जागरण के सतत प्रयास किए। अपने विदेश यात्रा के संस्मरण में वे लिखते हैं, “मैं कहने को विश्व विजेता था किंतु वहां रहते हुए अपने देश के दुखीजनों का दुरावस्था का स्मरण कर आंसू बहाता था”। चार वर्षों तक यूरोप अमेरिका में आह्वान किया, “भारत में आओ, विज्ञान और तकनीकी लाओ”। वहीं, भारत ने कहा, “भारत के जीवन का मूल आधार इसकी आध्यात्मिकता है। इसलिए भारत की प्रगति के लिए भारत के धर्म-अध्यात्म व पाश्चात्य विज्ञान-तकनीक के सम्मिश्रण की आवश्यकता है।

स्वामी जी महलों में भी रहे, झोपड़ियों में भी। खेतड़ी में महाराज के अतिथि होने पर भी परिव्राजक काल में जिस सफाई कर्मी ने उन्हें भोजन कराकर प्राणरक्षा की थी, उसे सड़क पर जाते देखकर, पहचान कर गले लगाया। समाज में समरसता का यह प्रकट व्यवहार था, उपदेश मात्र नहीं।

कुछ विद्यार्थियों के यह कहने पर कि स्वामी जी से श्रीमद्भगवद्गीता समझना चाहते हैं, उन्होंने कहा कि गीता पढ़ने के पहले मैदान में जाकर फुटबॉल खेलो, मांसपेशियां मजबूत करो तो गीता सहज समझ में आने लगेगी। दूसरे स्थान पर स्वामी जी ने युवकों से कहा, “केवल हनुमान चालीसा का पाठ मत करो। हनुमान के चरित्र को अपने जीवन में लाने का प्रयास करो। अपने मन में इस मातृभूमि के प्रति हनुमान जैसी भक्ति उत्पन्न करो”।

शिक्षा को लेकर स्वामी विवेकानंद के विचार सर्वभौमिक तथा सर्वकालिक सत्य है- “हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जिससे चरित्र का निर्माण हो, मानसिक बल में बुद्धि हो, बुद्धि का विकास हो और व्यक्ति अपने पैरों पर खड़ा हो सके। हमें आवश्यकता है पाश्चत्य विज्ञान के साथ वेदांत की, जिसके मार्गदर्शी आदर्श ब्रह्मचर्य, आत्मनिष्ठा तथा आत्मविश्वास हो”। (Compilation of complete works of swami Vivekananda, P-41 : Ram Krishna Mission)

स्वामी जी ने कहा, “बिना विज्ञान धर्म ढकोसला, बिना अध्यात्म विज्ञान विनाशक होगा”।

Swami Vivekananda on India & her Problems: Ram Krishna Mission (P-40) में स्वामी जी कहते हैं- “शिक्षा? क्या केवल पुस्तक ज्ञान? नहीं! क्या केवल विविध विषयों की जानकारी का नाम है? वह भी नहीं। शिक्षा उसे कहते हैं जिससे इच्छाशक्ति के प्रवाह और अभिव्यक्ति को नियंत्रित करने और उसे फलीभूत कर सकना सीखा जा सके”।

“सच्ची शिक्षा वह है जिससे शब्द संचय नहीं, क्षमता का विकास संभव होता है; या फिर व्यक्तियों को ऐसे प्रशिक्षित करना कि वे सही दिशा में दक्षतापूर्वक अपनी संकल्प शक्ति का नियमन कर सके”।

“वह सारी जानकारी जिससे आपके मस्तिष्क में भर दिया जाता है और वह वहां जीवन भर बौद्धिक अपच पैदा करती हुई बवाल मचाती रहे, शिक्षा नहीं है। हमें जीवन निर्माण, मानव निर्माण तथा चरित्र निर्माण करने वाले विचारों को आत्मसात करना होगा”।

“If you assimilate five ideas and make them your life and character, you have more education than anyone who has got a library by heart.”

“गधा चंदन ढोता है तो उसे बोझ का ज्ञान होता है, चंदन के गुणों का नहीं।……. यदि शिक्षा का अर्थ सूचना संग्रह है तो पुस्तकालयों से बड़ा कोई विद्वान नहीं, विश्वकोशों से बड़ा कोई ऋषि नहीं…….. ”।

स्वामी जी का प्रसिद्ध कोलंबो भाषण 18 जनवरी, 1897 को हुआ और 5 दिन बाद 23 जनवरी को सुभाष चंद्र बोस का जन्म हुआ जिन्होंने 13 वर्ष की आयु में विवेकानंद साहित्य पढ़ा और संन्यासी बनना चाहते थे किंतु देशभक्ति और भारत की स्वतंत्रता के प्रयासों में जुटे।

कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने रोम्यां रोलां को पत्र में लिखा- “भारत को समझना चाहते हो तो विवेकानंद को पढ़ो”। लोकमान्य तिलक ने कहा, “इस युवा संन्यासी ने गीता के श्लोकों के प्रति मुझे एक नई दृष्टि दी”।

भारत के सपूत इस योद्धा सन्यासी की 159वीं जयंती 12 जनवरी को है। भारत माता के साथ माता-पुत्र संबंध मानने वालों का उस महान विभूति को श्रद्धासिक्त नमन, पुण्यस्मरण!

(लेखक विद्या भारती के अखिल भारतीय मंत्री एवं संस्कृति शिक्षा संस्थान कुरुक्षेत्र के सचिव है।)

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