स्वामी विवेकानंद का शिक्षा दर्शन

 – प्राणनाथ पंकज

“शिक्षा क्या है ? …..सच्ची शिक्षा उसे कहा जा सकता है, जिससे शब्द संचय नहीं, क्षमता का विकास होता है। या फिर व्यक्तियों को ऐसे प्रशिक्षित किए जाने को शिक्षा कहते है जिससे कि वे सही दिशा में, दक्षता पूर्वक, अपनी संकल्प-शक्ति का नियमन कर सकें।

वह सारी जानकारी जिसे आपके दिमाग में भर दिया जाता है और वह जीवन भर वहाँ बैठी बौद्धिक अपच पैदा करती हुई बावेला मचाती रहती है, शिक्षा नहीं कहलाती। हमें जीवन-निर्माण, मानव-निर्माण, चरित्र-निर्माण करने वाले विचारों को आत्मसात् करना होगा। यदि आपने केवल पांच विचारों को भी आत्मसात् करके उन्हें अपने जीवन और चरित्र में ढाल लिया है तो आप उस व्यक्ति से अधिक शिक्षित हैं जिसने पूरे के पूरे पुस्तकालय को रट लिया हो”।१

यों तो स्वामी जी के शिक्षा-संबंधी विचारों का क्षेत्र बहुत व्यापक है और उनके भाषणों, वार्तालापों और लेखों में यत्र-तत्र ही नहीं, लगभग सर्वत्र फैला हुआ है, पर इस सीमित निबन्ध में उन सब की व्याख्या करना संभव नहीं है, अत: हम यहां कुछ ही विषयों पर संक्षेप में विचार करेंगे।

किताबी-ज्ञान : सार्थकता और निरर्थकता

यदि हम स्वामी जी के समग्र व्यक्तित्व पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट दिखाई देगा कि उनका अध्ययन और स्मरण-शक्ति अत्यन्त असाधारण थे। इतना ही नहीं, सरसरी दृष्टि से भी यदि वे किसी पुस्तक को देख जाते थे तो उसकी विषय-वस्तु को पूर्णतया ग्रहण कर लेते थे। अध्ययन का उनका दायरा इतना विस्तृत था कि प्राच्य और पाश्चात्य दर्शन, विज्ञान, राजनीति-शास्त्र, संगीत-शास्त्र, स्थापत्य-कला, ललित-कला, तत्कालीन प्रौद्योगिकी, भौतिक और अध्यात्मिक, लौकिक और पारलौकिक, सभी विषयों का उनका अध्ययन आश्चर्यचकित कर देने वाला था। ऐसे में उनका यह कहना कि केवल पुस्तकीय-ज्ञान शब्द-संचय को शिक्षा नहीं कहा जा सकता, विचारणीय है।

स्वामी जी के अध्ययन के साथ उनकी उस निरंतर चलने वाली अन्तनिर्हित प्रक्रिया पर हमारा दृष्टिपात करना भी आवश्यक है जिसके अंतर्गत वे अपने अध्ययन का मनन करते, नीर-क्षीर-विवेक से त्याज्य और ग्राह्य में भेद करके सारे अध्ययन को स्वाध्याय में रूपान्तरित करके अपनी स्वयं की निर्णायक बुद्धि से उसका उपयोग करते थे। साधारण विद्वानों की तरह उनका अध्ययन – शब्द संचय – उनके मस्तिष्क में बावेला नहीं मचाता था, बौद्धिक-अपच पैदा नहीं करता था। वह उनके व्यक्तित्व को प्रांजलता प्रदान करता था, उसे धार देता था। इसी अप्रतिम योग्यता के कारण वे किसी भी विषय पर, किसी भी अवसर पर, किसी भी समूह में, जो भी कहते थे, वह सीधा श्रोताओं के अन्तरतम तक जाता और उनकी विचार प्रक्रिया को रूपान्तरित करने में सफल होता था। इतना ही नहीं, स्वामी जी की अन्त: प्रज्ञा इतनी प्रबल थी कि वे स्वेच्छापूर्वक अपने अध्ययन और स्वाध्याय से ऊपर उठ कर, बौद्धिकता को परास्त करके आसानी से आध्यात्मिकता के क्षेत्र में विचरण करने लगते थे।

जब स्वामी जी केवल किताबी-ज्ञान की निरर्थकता पर बल देते हैं तो इस लेखक की दृष्टि में उनका मन्तव्य यह है कि अध्ययन ज्ञान तभी बनता है जब हम उसे अपने जीवन में औचित्य और अनौचित्य की परख करके, जो हमारे चरित्र को, व्यक्तित्व को, उदात्तता प्रदान कर सके, उसे आत्मसात् करें, भले ही वह विस्तार में न हो, पर गहराई में हमारे जीवन को श्रेष्ठ मूल्यों से समृद्ध कर सके।

अपराविद्या और पराविद्या का ग्रथन

स्वामी जी के शिक्षा-विषयक विचारों का मूल उपनिषदों में है। वहां अपरा-विद्या और परा-विद्या की बात कही गई है। साधारणतया अपरा और परा विद्याओं को क्रमश: निम्न श्रेणी और उच्च श्रेणी का मान लिया जाता है। यद्यपि इस मान्यता को पूरी तरह अस्वीकृत नहीं किया जा सकता, फिर भी यह दोनों मिल कर ही शिक्षा को सर्वांगीण बनाते है; एक के बिना दूसरी अधूरी, अपर्याप्त है। मुण्डक उपनिषद् के एक प्रसंग में जहाँ दोनों के अन्तर को स्पष्ट किया गया है, वहीँ दोनों को ही ‘जानने योग्य’ बताया गया है:

“द्वे विद्ये वेदितव्ये ….परा चैवापरा च …. तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदो:

अथर्ववेद: शिक्षाकल्पोव्याकरण निरुक्त छन्दो ज्योतिषमिति, अथ परा यया तदक्षरं अधिगम्यते”।।२

अर्थात् दो विद्याएं जानने योग्य हैं। परा और अपरा। इनमें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष अपरा विद्या हैं। और परा वह है जिसके द्वारा अविनाशी तत्व का बोध होता है”। दूसरे शब्दों में, अपरा विद्या भौतिक-विद्या है और परा विद्या अध्यात्म-विद्या। गीता में इसी भौतिक-विद्या को ‘क्षेत्र-ज्ञान’ और अध्यात्म-विद्या को ‘क्षेत्रज्ञ-ज्ञान’ कहा गया और श्रीकृष्ण कहते हैं कि दोनों का ज्ञान ही पूर्ण ज्ञान है – ‘क्षेत्र क्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम’।३

उपनिषद् के उपरोक्त मंत्रों की व्याख्या करते हुए डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने अपरा विद्या के संबंध में कहा है कि वह भी एक विद्या है, भ्रम अथवा मिथ्याज्ञान नहीं। इसके द्वारा भी परमात्मा तत्व को जानने में आंशिक रूप से सहायता मिलती है।४

ऐसी ही समन्वित-एकीकृत-शिक्षा पर स्वामी जी बल देते हैं। वे अध्यात्म-ज्ञान के साथ भौतिक, व्यावहारिक, ज्ञान को भी आवश्यक मानते हैं। स्वामी जी चाहते थे कि वे अपने देश में संन्यासियों का एक ऐसा संगठन खड़ा करें जो वहां के लोगों को औद्योगिक-शिक्षा का लाभ प्रदान कर सके ताकि देशवासियों की वर्तमान अवस्था में सुधार हो सके।

ईसाई मिशनरियों के भारत में धर्म प्रचार के संबंध में उन्होंने कहा था, “अच्छा हो यदि अमेरिका के लोग भारत में धार्मिक-प्रशिक्षण देने के लिए मिशनरी भेजने के स्थान पर किसी ऐसे व्यक्ति को भेजें जो उन्हें  औद्योगिक शिक्षा दे सके”।५ वे रामकृष्ण-मठ के ही एक भाग में आधुनिक शिक्षा का एक ऐसा केंद्र स्थापित करना चाहते थे जिसमें व्याकरण, दर्शन-शास्त्र, विज्ञान, साहित्य अलंकार-शास्त्र, श्रुतियों, भक्ति-शास्त्र तथा अंग्रेजी शिक्षा दी जा सके ताकि पाठ्यक्रम की समाप्ति पर छात्र चाहें तो अपने घर लौटकर गृहस्थ जीवन व्यतीत कर सके और चाहें तो मठ के सम्मानित संन्यासियों की अनुमति से संन्यास जीवन अपना सके।६

चरित्र-निर्माण, मानव-निर्माण, जीवन-निर्माण

स्वामी जी का प्रसिद्ध कथन है, “हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है, जिससे चरित्र का निर्माण हो, मानसिक-बल में वृद्धि, बुद्धि का विकास हो और व्यक्ति अपने पैरों पर खड़ा हो सके। हमें जरूरत है पाश्चात्य विज्ञान के साथ वेदान्त की जिसके मार्गदर्शी आदर्श ब्रह्मचर्य तथा आत्मनिष्ठा एवं आत्मविश्वास हों”।

जहाँ तक उच्च शिक्षा की बात है, स्वामी जी का कहना था कि इसके लिए छात्र को गुरु के सान्निध्य में, अन्तेवासी होकर शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए जिसमें प्राच्य और पाश्चात्य, आध्यात्मिक और भौतिक-ज्ञान का सामंजस्य हो। श्रद्धा, आत्मनिर्भरता और ब्रह्मचर्य को तो वे ऐसी शिक्षा के अग्रदूत मानते थे। पर इसके साथ ही वे यह भी कहते थे कि कोई भी किसी अन्य व्यक्ति को कुछ सिखा नहीं सकता। ऐसा शिक्षक जो यह समझता है कि वह किसी को कुछ सिखा रहा है, वह सब कुछ बिगाड़ देता है। वेदान्त कहता है कि सारा ज्ञान मनुष्य में अंतनिर्हित है। वह एक बालक में भी विद्यमान है। शिक्षक का काम उस ज्ञान को जगाना मात्र है। केवल इतना कि छात्र अपने हाथों, पैरों, आँखों, कानों आदि का उपयोग अपने मस्तिष्क का प्रयोग करके कर सकें। इसी के परिणाम स्वरूप सब सहज हो जाएगा।७

चरित्र और प्रबल इच्छाशक्ति की आवश्यकता के साथ स्वामी जी कहते थे, “यह कहते रहने से क्या होगा कि मैनें पाप किया है, मुझसे बहुत भूलें हुई हैं?” जिस प्रकार अँधेरा-अँधेरा चिल्लाते रहने से प्रकाश नहीं होता, पर प्रकाश का प्रयास करते ही अँधेरा लुप्त हो जाता है, वैसे ही चरित्र निर्माण करने, अपने यथार्थ स्वरूप को पहचानने से प्रकाश का दर्शन होता है। “अपने तेजोमय, स्वयं- प्रकाश, नित्य-शुद्ध स्वरूप को पहचानो; और जिसे भी तुम देखो, उसमें उसी चेतन-स्वरूप का दर्शन करो। मैं चाहता हूँ कि हममें से प्रत्येक उस अवस्था को प्राप्त कर सके कि वह निकृष्टतम व्यक्ति में भी उसके अन्तरतम में विराजित तात्त्विक स्वरूप को पहचान सके।८

शिक्षा और धर्म : अन्योन्याश्रित

सन् 1896 में दिए अपने एक भाषण ‘एकत्व, धर्म का लक्ष्य’, में स्वामी जी कहते हैं, “क्या वास्तव में धर्म से कोई उपलब्धि संभव है? हाँ, है। इसी से मनुष्य को शाश्वत जीवन की उपलब्धि होती है। इसी ने मनुष्य को वह बनाया है जो आज वह है, और यही इस नर-पशु को देवता बनाएगा। मानव समाज में से यदि धर्म को बहिष्कृत कर देंगे तो क्या बचेगा? केवल एक विषयासक्त पशु! विषय-भोग मानव-जीवन का लक्ष्य नहीं है। ज्ञान की प्राप्ति जीव-मात्र का लक्ष्य है। ….परम आनन्द की उपलब्धि अध्यात्म-ज्ञान से ही संभव है।९

स्वामी जी आध्यात्मिक अथवा धार्मिक शिक्षा के साथ शारीरिक सौष्ठव पर भी बल देते थे। वे पत्थर की मांसपेशियों और लोहे के भुजदण्डों वाले युवाओं की बात करते थे। फुटबाल के मैदान द्वारा, गीता के ज्ञान से अधिक सुगम है ईश्वर की प्राप्ति, ऐसा उनका कथन युवाओं में जीवन के प्रति सकारात्मक उत्साह और ऊर्जा का संचार कर देता था। आज भी युवाओं को इससे प्रेरणा प्राप्त होती है।

स्त्रीशिक्षा और निर्धन देशवासियों की दुरवस्था पर चिंता

स्त्री-शिक्षा के संबंध में स्वामी जी ने अपने विचारों को दोहराते हुए जहाँ सब के लिए ऐसी शिक्षा का प्रतिपादन किया था जो सकारात्मक हो, जिससे चरित्र-निर्माण हो सके, मनोबल में वृद्धि हो और बौद्धिक क्षमता का विकास हो, वहीं महिलाओं के संबंध में अपनी चिन्ता व्यक्त करते हुए वे कहते थे कि उन्हें सदा पराश्रित और पराधीन रहने के संस्कार दिए जाते रहे हैं।….उन्हें वीरोचित शौर्य की आवश्यकता है। उन्हें अपनी रक्षा स्वयं करना भी आना चाहिए। “देखिए तो झाँसी की रानी कितनी महान थी”। हमें न केवल उन्हें शिक्षित करने की आवश्यकता है अपितु हमें भी सीखना होगा। ज्यादा से ज्यादा संतान पैदा कर लेना मात्र पिता होने की कसौटी नहीं हैं। …..महिलाओं को विभिन्न वैज्ञानिक विषयों तथा अन्य बातों को सीखने की आवश्यकता है जो न केवल उनके लिए अपितु दूसरों के लिए भी उपयोगी हों।१०

स्वामी जी ने भगिनी निवेदिता को स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में काम करने की प्रेरणा दी थी। उन्होंने कोलकाता में पहला महिला-विद्यालय खोला था जिसे माँ सारदा स्वयं आशीर्वाद देने गई थी। स्वामी जी सामान्य जन की उपेक्षा को राष्ट्रीय अपराध मानते थे ‘इसे वह हमारे अध:पतन का एक कारण भी समझते थे। “जब तक जनसाधारण पुन: सुशिक्षित नहीं हो जाता, जब तक उसे पौष्टिक आहार प्राप्त नहीं होता, जब तक हम उसका ध्यान नहीं रख पाते, तब तक किसी प्रकार का राजनैतिक तंत्र किसी तरह से भी सार्थक नहीं हो सकता। वहीँ जो हमारे शिक्षा के लिए धन जुटाते हैं, हमारे मंदिरों का निर्माण करते हैं, और हम उन्हें ही उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं। यदि हम भारत का पुनरुत्थान चाहते हैं, तो हमें उनकें लिए काम करना होगा।”११

इस प्रकार स्वामी जी के समग्र शिक्षा चिन्तन में पूर्व और पश्चिम का समन्वय, भौतिक और आध्यात्मिक शिक्षा का एकीकरण, उच्च स्तरीय शिक्षा तथा सामान्य जन के लिए आधारभूत शिक्षा, निर्धनों के उत्थान और धनाढयों को उनके उत्तरदायित्व का बोध कराने वाली शिक्षा, महिलाओं को हमारी समृद्ध प्राचीन परम्परा की रक्षा करते हुए आधुनिक युग के अनुरूप शिक्षित होने की आवश्यकता – सभी पक्ष समाविष्ट और एकीकृत थे।

अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में वेद का ऋषि मातृभूमि से प्रार्थना करते हुए कहता है: अजीतोsहतो अक्षतोsभ्यष्टां पृथिवीमहम्।१२

“हे भूमि माँ! मैं यहाँ अपराजेय, आघात रहित, क्षतिरहित, पूर्णतया अभय रहते हुए निवास करूँ, ऐसा आशीर्वाद दो।” स्वामी जी के भारतीय दर्शन में, जो उनके जीवन दर्शन का अभिन्न अंग था, और उनके शिक्षा दर्शन में जो उनके भारतीय दर्शन का महत्वपूर्ण अंग था, पग-पग पर इस सूत्र वाक्य की ध्वनि सुनाई देती है।

हमारी राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली को जो नया सर्वांगीण पाठ्यक्रम मिला है, उसमें स्वामी जी का स्वप्न फलीभूत हो, हम यही कामना करते हैं।

(लेखक भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत महाप्रबंधक है।)

सन्दर्भ

१. स्वामी विवेकानंद आँन इंडिया एंड हर प्रोबलम्स (भारत की समस्याओं पर स्वामी विवेकानंद ) स्वामी विवेकानंद द्वारा संकलित । (कोलकाता,अद्वैत आश्रम 1905 पृष्ठ 40)
२. मुण्डक उपनिषद् (1.4-5)
३. गीता (2)
४. राधाकृष्णन् प्रिंसिपल उपनिषद्, मुण्डक उपनिषद् के उपरोक्त मंत्रों पर टिप्पणी । (लंदन, एलेन एंड अन्विन लि., 1953 पृष्ठ 672 )
५. विवेकानन्द : सम्पूर्ण वाड्.मय (कंप्लीट वकर्स) खंड-3, पृष्ठ 466-67
६. वही, खंड 7,  पृष्ठ 158
७. वही, खंड 6,  पृष्ठ 366
८. वही, खंड 2,  पृष्ठ 357
९. वही, खंड 3,  पृष्ठ 4
१०. वही, खंड 5, पृष्ठ 342-43
११. वही, खंड 5 पृष्ठ 222-23
१२. अथर्ववेद, खंड 12, प्रथम सूक्त, 11 वां मंत्र, अंतिम पंक्ति
  • शीर्षक 5 से 11 तक के सभी उदाहरण complete works of swami Vivekananda के उक्त खंडो से, जो कि मायावती मेमोरियल एडीशन के अन्तर्गत, अद्वैत आश्रम, कोलकाता द्वारा प्रकाशित हैं, लिए गए हैं। सभी हिंदी रूपान्तर लेखक द्वारा हैं।

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