– प्रशांत पोळ
हमारे देश में शिक्षा व्यवस्था तथा पाठशालाएं अंग्रेजों ने प्रारंभ की, ऐसा कहा जाता है। अंग्रेज़ आने के पहले देश में शिक्षा के मामले में अंधकार ही था, ऐसा भी बताया जाता है। किन्तु सत्य परिस्थिति क्या थी…? अंग्रेजों और मुस्लिम आक्रांताओं के आने से पहले भारत में जो शिक्षा पद्धति थी, उसका मुक़ाबला संसार में कहीं भी नहीं था। अत्यंत व्यवस्थित पद्धति से रची गई, यह भारतीय शिक्षा व्यवस्था, सभी आवश्यक क्षेत्रों में ज्ञान एवं प्रशिक्षण प्रदान करती थी।
विश्व का पहला विश्वविद्यालय (यूनिवर्सिटी) तक्षशिला भारत में प्रारंभ हुआ। उन दिनों भारत में ‘अनपढ़’ जैसा कोई शब्द प्रचलन में नहीं था। आज हमारे बच्चे पढ़ाई करने विभिन्न देशों में जाते हैं। उस समय विभिन्न देशों के बच्चे पढ़ने के लिए भारत में आते थे। एक भी भारतीय युवा उन दिनों पढ़ने के लिए विदेश में नहीं जाता था। एक परिपूर्ण शिक्षा पद्धति भारत में काम कर रही थी। लड़के/लड़कियों को साधारणत: आठ वर्ष की आयु तक घर पर ही शिक्षा दी जाती थी। आठवें वर्ष में लड़कों का उपनयन संस्कार करके उन्हें गुरु के पास अथवा गुरुकुल में भेजने की परंपरा थी। ‘गुरु’ शब्द का अर्थ केवल ‘संस्कृत भाषा की शिक्षा देने वाले ऋषि’ नहीं होता था। ‘गुरु’ अपने किसी विशिष्ट क्षेत्र का दिग्गज होता था।
समुद्र किनारे रहने वाले परिवारों के बच्चे जहाज निर्माण करने वाले अपने ‘गुरु’ के पास रहकर जहाज निर्माण की प्रत्यक्ष शिक्षा ग्रहण करते थे। यही परंपरा भवन निर्माण, लुहारी, धनुर्विद्या, मल्लविद्या जैसी भिन्न–भिन्न कलाओं को सीखने के बारे में भी लागू थी। अगले 8-10 वर्षों तक गुरु के यहां शिक्षा ग्रहण करने के बाद, इनमें से कुछ विद्यार्थी उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालयों में जाते थे। इन विश्वविद्यालयों में विभिन्न शास्त्रों और कलाओं को सिखाने की व्यवस्था थी।
स्त्रियों को भी उच्च शिक्षा देने की पद्धति और परंपरा थी। ऋग्वेद में स्त्री शिक्षा के बारे में कई उल्लेख मिलते हैं। प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने वाली बालिकाओं को ‘ऋषिका’ और उच्च शिक्षित स्त्रियों को ‘ब्रह्मवादिनी’ कहा जाता था। पाणिनी ने अपने ग्रंथ में लड़कियों की शिक्षा के बारे में लिखा है। छात्राओं के लिए छात्रावास (हॉस्टल) भी बनाए जाते थे। इसके लिए पाणिनी ने ‘छत्रिशाला’ शब्द का उपयोग किया है।
विश्वविद्यालयों में शिक्षा सत्र प्रारंभ होने तथा सत्र समाप्त होने के समय बड़ा उत्सव होता था। सत्रारंभ उत्सव को ‘उपकर्णमन’ तथा सत्र समाप्ति पर होने वाले उत्सव को ‘उत्सर्ग’ कहा जाता था। उपाधि (डिग्री) प्रदान किए जाने वाले उत्सव को ‘समवर्तना’ कहा जाता था।
‘हारून-अल-रशीद’ इस नाम का अरबी कथाओं का नायक (वर्ष 754 से 849) बगदाद में राज करता था। इस हारून-अल-रशीद ने और अरबी सुलतान अल मंसूर ने भारतीय विश्वविद्यालयों से प्रतिभाशाली युवाओं को लाने के लिए अपने विशेष दूत भेजे थे। यह था विश्व का पहला ‘कैम्पस इंटरव्यू’, 1200 वर्ष पहले!
किंतु लगभग नौ सौ वर्ष पहले, जब मुस्लिम आक्रांताओं का आक्रमण होता गया, तब परिस्थिति बदली। बख्तियार खिलजी जैसे अनपढ़ और खूंखार सरदार ने नालंदा समवेत अधिकतर विश्वविद्यालय नष्ट कर दिये। हमारी ज्ञान परंपरा खंडित हो गई। तो हमने समझा, हमारी सारी शिक्षा व्यवस्था ठप्प हो गई। किन्तु ऐसा नहीं था।
मुस्लिम आक्रांताओं ने हमारे बड़े, छोटे विश्वविद्यालय ध्वस्त किए। अनेक गुरुकुल जला दिये। लेकिन उनके पास कोई शिक्षा का समानांतर मॉडल थोड़े ही था। उनके पास तो शिक्षा का ही मॉडल नहीं था। वे खैबर के दर्रे के उत्तर–पश्चिम में स्थित अनेक कबाइलियों में से थे। ये कबाइले अनपढ़, गंवार, खूंखार, लेकिन अपने धर्म के प्रति अत्यधिक कट्टर थे। कट्टरता के इसी जुनून ने उन्हें भारत में सत्ता दिलाई। लेकिन इस विशाल देश में प्रशासन चलाने का कोई विशेष ज्ञान या कोई व्यवस्था उनके पास नहीं थी। आज जिसे हम मुगल आर्ट और मुगल स्थापत्य कहते हैं, वह मूलतः भारतीय स्थापत्य ही है जो इस्लामी राजाओं के लिए या इस्लामी व्यवस्था के लिए बनाया गया है। यदि यह वास्तुकला इन आक्रांताओं के पास होती, तो इस शैली के अनेक वास्तु हमें भारत के बाहर अफगानिस्तान, ईरान, इराक, किरगिस्तान, उज्बेकिस्तान आदि में मिलते। किन्तु ऐसा नहीं है।
इसलिए बड़े विश्वविद्यालय न सही, किन्तु प्राथमिक/माध्यमिक स्तर की शालाओं का जाल सारे देश में था। जहां हिन्दू राजा मांडलिक के रूप में थे, वहां उन्होंने शालाएं बनवाई और चलवाई।
अंग्रेज़ जब भारत में हुकूमत करने की स्थिति में आए तो उन्होंने सबसे पहले भारत की शिक्षा प्रणाली का सर्वेक्षण किया। सर्वेक्षण की रिपोर्ट इंग्लैंड, स्कॉटलैंड और कुछ अंशों में भारत में भी उपलब्ध है। ये सारी रिपोर्ट सनसनीखेज है। हमारी सारी मान्यताओं को और हमें आज तक पढ़ाए गए इतिहास को झुठलाने वाली ये सब रिपोर्ट्स हैं।
सन् 1757 में प्लासी का युद्ध जीतने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी का बंगाल पर कब्जा हो गया। जब उन्होंने अपना प्रशासन तंत्र अमल में लाने का प्रयास किया तो उन्हें पता चला कि पूरे बंगाल में कर वसूली लायक भूभाग में से ३४ प्रतिशत जमीन से कोई कर वसूली नहीं होती है। इसका कारण है कि ये सारी जमीन पाठशालाओं के लिए है। इसको देखते हुए अंग्रेजों ने (अर्थात ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों ने) उनका शासन जहां था, ऐसे क्षेत्रों में शिक्षा का सर्वेक्षण करने की योजना बनाई। वर्ष 1818 में अंग्रेजों ने मराठों को परास्त कर अखंड भारत के बड़े से भूभाग पर अपना नियंत्रण कर लिया था। अब उनकी प्राथमिकता थी, शासन चलाना। शिक्षा पद्धति यह शासन व्यवस्था का ही एक अंग था। उन दिनों मद्रास प्रेसीडेंसी में गवर्नर जनरल के पद पर मेजर जनरल सर थॉमस मुनरो आसीन थे। इन्होंने 25 जून, 1822 को एक आदेश निकाला, जिसके तहत मद्रास प्रेसीडेंसी के सभी कलेक्टर्स को कहा गया था कि वे गांवों की पाठशालाओं के बारे में जानकारी इकठ्ठा कर भेजें।
थॉमस मुनरो (Sir Thomas Munro : 27 मई 1761 – 6 जुलाई 1827) यह स्कॉटिश योद्धा थे और ईस्ट इंडिया कंपनी में तरक्की पाकर मेजर जनरल के पद पर पहुंचे थे। 10 जून, 1820 से लेकर तो 10 जुलाई, 1827 तक यह मद्रास प्रेसीडेंसी के गवर्नर जनरल रहे। ईस्ट इंडिया कंपनी और अंग्रेजी हुकूमत के प्रति अत्यधिक समर्पित थॉमस मुनरो, भारतीयों को दी जाने वाली शिक्षा के प्रति सजग थे। इसलिए उनके कलेक्टर्स द्वारा भेजी रिपोर्ट्स का अध्ययन करने में उन्हें चार वर्ष लगे। 10 मार्च, 1826 को उन्होंने इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट को जारी किया। इसका शीर्षक था : ‘The early measures for education in the Madras Presidency – Sir Thomas Munro’s minutes on education in 1822 and 1826.’ इस रिपोर्ट में जनरल मुनरो के शब्द हैं – ‘प्रेसीडेंसी के सभी गांवों में पाठशालाएं हैं’। (Every village has a school) इस रिपोर्ट की सातवें अध्याय (Chapter) में जनरल मुनरो लिखते हैं, “State of native education here exhibited, low as it is compared with that of our own country, it is higher than it was in most European countries at no very distant period’. अर्थात् ‘मद्रास प्रेसीडेंसी में शिक्षा का स्तर अपने देश (इंग्लैंड) से कम है, किन्तु लगभग सभी यूरोपियन देशों से अच्छा है’। जनरल मुनरो, इंग्लैंड के शिक्षा के स्तर को कम कैसे बोल सकते थे..? किन्तु बाकी लोगों ने क्या कहा? अनेक समकालीन ब्रिटिश अधिकारियों और ईसाई मिशनरियों ने यह लिखकर रखा है कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था, इंग्लैंड की शिक्षा प्रणाली से अच्छी है।
इसी मद्रास की रिपोर्ट में लिखा है, ‘(मद्रास) प्रेसीडेंसी में 12,498 पाठशालाएं हैं, जिनमें 1,88,650 विद्यार्थी पढ़ते हैं’।
जनरल मुनरो मद्रास में जब शिक्षा पद्धति के सर्वेक्षण का आदेश दे रहे थे, लगभग उसी समय बॉम्बे प्रेसीडेंसी के गवर्नर, माउंट स्टुअर्ट एलफिंस्टन (1819 से 1827 के बीच बॉम्बे के गवर्नर रहे) ने भी इसी प्रकार के आदेश कमिशनर ऑफ डेक्कन को तथा गुजरात और कोंकण के कलेक्टर्स को दिये। 10 मार्च, 1824 का, Government of Bombay का, गांवों की संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था के बारे में जानकारी देने का पत्र है। एलफिन्स्टन ने इसके लिए जो कमेटी बनाई, उसमें जी एल प्रेण्डरगास्ट का समावेश, ‘बॉम्बे गवर्नर काउंसिल’ के सदस्य के रूप में था। प्रेण्डरगास्ट ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, “There is hardly a village, great or small, throughout our territories, in which there is not at least one school, and in large villages, more.”
उन्हीं दिनों बंगाल में इस सर्वेक्षण का काम किया विलियम एडम ने। 1796 में स्कॉटलैंड में जन्मे विलियम, बाप्टिस्ट मिशनरी के रूप में सन् 1818 में भारत आए। तब मराठों को हराने के बाद, अंग्रेजों ने लगभग पूरे देश पर अपनी हुकूमत कायम कर ली थी। विलियम 27 वर्ष भारत में रहे। यहां वे राजा राम मोहन रॉय के संपर्क में भी रहे।
लॉर्ड विलियम बेंटिक उन दिनों भारत के गवर्नर जनरल हुआ करते थे। अंग्रेजी सत्ता की राजधानी कलकत्ता थी। बेंटिक ने, विलियम एडम्स को शिक्षा विभाग में अधिकारी पद पर नियुक्त किया तथा उन्हें बंगाल और बिहार की पाठशालाओं के बारे में रिपोर्ट देने को कहा।
विलियम एडम्स ने सन् 1835 से 1838 तक, तीन रिपोर्ट प्रस्तुत किए, जो ‘एडम्स रिपोर्ट्स’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। अपनी पहली रिपोर्ट में एडम लिखते हैं, ‘बंगाल (उस समय का पूरा बंगाल, अर्थात आज का बंगला देश मिलाकर) और बिहार में एक लाख के लगभग स्कूल्स हैं। इन दोनों प्रान्तों की जनसंख्या चार करोड़ के बराबर है। अर्थात् प्रति 400 व्यक्तियों पर एक शाला है’।
विलियम एडम ने जिसे शालाएँ कहा है, वे सारी बड़ी-बड़ी शालाएँ नहीं हैं। उनमें से अधिकतर शालाएँ, मंदिरों में, खुले आहाते में, बरगद के पेड़ के नीचे या पढ़ने वाले मास्टर जी के घर पर लगती हैं। सभी प्रकार की मूलभूत प्राथमिक शिक्षा यहां दी जाती है।
उन दिनों पूरा पंजाब अंग्रेजों के कब्जे में नहीं था। महाराजा रणजीत सिंह ने लाहौर को राजधानी बनाकर पेशावर तक अपना शासन बना कर रखा था। इसमें जितना भी पंजाब अंग्रेजों के पास था, उसका गवर्नर जनरल था, चार्ल्स स्टुअर्ट हार्डिंग (Charles Stewart Harding)। इन्होंने भी मद्रास और बॉम्बे के जैसा सर्वेक्षण पंजाब में करवाने का प्रयास किया। किन्तु उत्तर-पश्चिम सीमा पर युद्ध परिस्थिति रहने के कारण यह संभव न हो सका।
पंजाब में यह सर्वेक्षण हुआ, लगभग 50 वर्षों के बाद, जब अंग्रेजों का पूरे पंजाब पर स्वामित्व हो गया। जी.डब्लू. लेटनर नाम के ब्रिटिश आई सी एस अधिकारी ने इस सर्वेक्षण का काम किया था। उनमें से कुछ सर्वेक्षणों की रिपोर्ट के आधार पर उन्होंने पुस्तक भी लिखी – History of Indigenous Education in Punjab : Since Annexation and in 1882. इसमें लेटनर बड़ी जबरदस्त बातें लिखते हैं। वो कहते हैं, ‘भारत में बड़ी अच्छी विकेंद्रित शिक्षा व्यवस्था है। लगभग प्रत्येक गांव की अपनी पाठशाला है, जो गांव वाले चलाते हैं। इन पाठशालाओं को जमीन आवंटित है, जिसकी आमदनी से पाठशाला का खर्चा निकलता है।’ लेटनर आगे लिखते हैं, ‘इनमें से अनेक स्कूलों का स्तर तो हमारे ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज विश्वविद्यालय के बराबर का है। शिक्षकों को अच्छा वेतन दिया जाता है’।
यह जी डब्लू लेटनर (G.W.Leitner) बड़े जबरदस्त व्यक्तित्व के धनी थे। Dr. Gottlieb Wilhelm Leitner का जन्म 14 अक्तूबर, 1840 में हंगेरी की राजधानी बुडापेस्ट में हुआ था। लेटनर का परिवार यहूदी (ज्यू) था। उन्हें भाषाओं पर विलक्षण प्रभुत्व हासिल था। जब वे आठ वर्ष के थे, तब कोन्स्टेंटिनोपोल (आज का ‘इस्तांबुल’) गए और वहां से अरबी तथा तुर्की भाषा सीख कर आए। दस वर्ष की आयु में वह इन दो भाषाओं के साथ, अधिकतर यूरोपियन भाषाएं सहजता से बोल लेते थे। पंद्रह वर्ष की आयु में वह क्रिमिया में ब्रिटिश कमिशनरेट में अनुवादक की नौकरी करने लगे।
इस यहूदी नौजवान ने बाद में मुस्लिम धर्म अपना लिया, और वह अरेबिक का व्याख्याता बन कर विश्वविद्यालय में पढ़ाने लगा। लंदन के किंग्स कॉलेज में पढ़ाते समय, उन्हें ब्रिटिश सरकार ने भारत में पढ़ाने के लिए आमंत्रित किया। 1864 में लेटनर, लाहौर की Government University का प्रमुख बनकर, आई सी एस अधिकारी के रूप में, भारत आया। 1882 में उन्हीं ने पंजाब यूनिवर्सिटी की स्थापना की। भारत में इस मुकाम में, उन्होंने भारतीय प्रणालियों का गहन अध्ययन किया। लेटनर ने 1870-1875 के बीच में, उत्तर पंजाब के होशियारपुर जिले का वृहद सर्वेक्षण किया, जो पुस्तक के रूप में उपलब्ध है। लेटनर ने लिखा है, ‘इस होशियारपुर जिले में साक्षरता की दर 84% है’। (अंग्रेजों के भारत से जाते समय सन 1948 में किए गए सर्वेक्षण में यह दर मात्र 9% बची थी। इस दौरान अंग्रेजों ने, गांव की पाठशालाओं को आवंटित जमीन हड़प ली। विकेंद्रित शिक्षा व्यवस्था बंद की। उसे केंद्रीकृत किया और अंग्रेजों के अनुसार पाठ्यक्रम निर्धारित होने लगा।)
ईस्ट इंडिया कंपनी के एक और अधिकारी, अलेक्जेंडर वॉकर (1764-1831) ने दस वर्ष से ज्यादा समय भारत में गुजारा। वे अमेरिका भी गये और वहां से वापस भारत आए। उन्होंने केरल के मलाबार में शिक्षा और साक्षरता का जो वातावरण देखा, उसके बारे में लिखकर रखा है। उन्होंने लिखा है कि अत्यंत सादे और प्राकृतिक संसाधनों से इन भारतीयों ने अपने शिक्षा प्रणाली की रचना की है।
वॉकर लिखते हैं, “The literature of Malabar has the same foundation, and consists of the same materials, as that of all Hindoo nations. Education with them is an early and important business in every family. Many of their women are taught to read and write. The children are instructed without violence and by a process, peculiarly simple. The system was borrowed from the Bramans and brought from India to Europe. It has been made the foundation of National Schools in every enlightened country. The pupils were the monitors of each other and the characters (अक्षर/आंकड़े) are traced with finger on the sand.’ (page no 263 of his book)
वॉकर ने आगे लिखा है, “The Missionaries have now honestly owned that the system upon which these (British) schools are now taught, was borrowed from India.”
क्रमश:
संदर्भ –
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The British System of Education – Joseph Lancaster (1778 – 1838)
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The Practical Parts of Lancaster’s improvements and Bell’s experiments – Joseph Lancaster and Andrew Bell. Edited by David Salmon (1932)
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Improvement in Education, as it respects the Industrious Classes of the Community – Joseph Lancaster
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Cambridge Essay’s on Education – Arthur Christopher Benson (1919)
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The Beautiful Tree: Indigenous Indian Education in the Eighteenth Century – Dharmpal
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Education System in Pre-British India – Ram Swarup
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A Report on the State of Education in Bengal – William Adam
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Alternate Perceptions of India: Arguing for a Counter Narrative – Dr. Anirban Ganguly (VIF)
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British India, its races and its history, considered with reference to mutinies of 1857 – John Malcom Ludlow
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Background of Macaulay’s Minute – Elmer H. Cutts (Published in American Historical Review – Vol 58, No 4, July 1953)
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Missionaries in India – Arun Shourie
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Impact of British Raj on the Education System in India: The Process of Modernization in the Princely States of India – The case of Mohindra College, Patiala – Kanika Bansal (2017)
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The Tormented Indian Spirit: Redemption or Regression – Bhagini Nivedita
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The History of British India – James Mill (1848)
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Sir John Malcolm and the Creation of British India – Jack Harrington (2011)
और पढ़े : स्वामी विवेकानंद का शिक्षा दर्शन