– लज्जा राम तोमर
अपने धर्म एवं संस्कृति के प्रति ज्ञानयुक्त श्रद्धा और राष्ट्रभक्ति से प्रेरित व्यक्तियों में नैतिक आचरण की भूमि तैयार होती है। इस प्रकार राष्ट्रीय जीवनादर्श छात्रों को नैतिक बनने की प्रेरणा प्रदान करते हैं। हमें सदाचार एवं सद्गुणों का विकास छात्रों के मनोविज्ञान के आधार पर नैतिक शिक्षा के माध्यम से करना हैं। सदाचार या सच्चरित्रता के अन्तर्गत शील और नैतिकता की वे भावनाएं निहित हैं जिसमें मनुष्य अपना सुख दुःख छोड़कर दूसरों को सुख दें, अपना स्वार्थ छोड़कर परोपकार करें और मन, वचन या कर्म से किसी को कष्ट न दें, सत्य बोलना, बड़ों का आदर करना, पारस्परिक प्रेम और सम्मान की भावना का विकास, त्याग, दया, न्याय, सहानुभूति, चोरी न करना, धोखा न देना, साहस, निर्भयता आदि सद्गुणों का विकास विभिन्न कार्यकर्मों के माध्यम से किया जा सकता हैं।
यह बात महत्त्वपूर्ण है कि सदाचार संस्कृति एवं समाज के नैतिक धारणा के अनुसार मान्य होते हैं। उदाहण के लिए – भारतीय समाज में स्त्री को स्पर्श करना भी नैतिक दोष माना जाता है। किन्तु यूरोप में पर-स्त्री के साथ नृत्य करना, शिष्टाचार का अंग माना जाता है। अत: चरित्र की शिक्षा के अंतर्गत समाज के नैतिक नियमों का पालन करना चरित्र-शिक्षा का विशेष अंग होना चाहिए। यह बात आज के संदर्भ में अधिक महत्वपूर्ण हैं।
पश्चिमी सभ्यता एवं शिष्टाचार का अन्धानुकरण हमारे समाज में तीव्र गति से हो रहा है। कामुक भावों का प्रदर्शन, विवाह आदि सामाजिक कार्यक्रमों में पाश्चात्य ढ़ंग से नृत्य करना, यह हमारे देश में बढ़ रहा है। भारतीय समाज में इन प्रवृत्तियों को नैतिक दृष्टि से पतन ही माना जायेगा। पश्चिमी सभ्यता में संयुक्त परिवार की प्रथा नहीं है। माता-पिता की वृद्धावस्था में सेवा करना भारत में धर्म और नैतिकता का अनिवार्य अंग है, जबकि यूरोप और अमेरिका आदि देशों में माता-पिता वृद्धाश्रमों में जीवन बिताते है। उनकी संतानें केवल उनके जन्मदिन पर उन्हें पुष्पगुच्छ (गुलदस्ता) भेंट करने जाती हैं। भारतीय संस्कृति में माता-पिता की सेवा नैतिक कर्तव्य माना जाता है।
गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है – “श्रवण कुमार की पितृभक्ति और हरिश्चंद्र की सत्यनिष्ठा – इन दो पौराणिक कथाओं ने मुझे बहुत प्रभावित किया। माता पिता और शिक्षक की सेवा करने का महत्त्व सहस्त्र पृष्ठों के ग्रन्थ अध्ययन करने से भी महान है। मेरी बुद्धि और ह्रदय के विकास, मेरे चरित्र के निर्माण तथा संर्वधन और अविरत प्रगति का रहस्य यही है कि मैने बचपन में पिता जी की सेवा की।”
अत: सदाचार की शिक्षा में माता-पिता और आचार्यों की सेवा को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान करना है। माता-पिता व आचार्य व्यक्ति नहीं हैं, यह पद एवं संस्थाएं है जिनमें हमें निरपेक्ष भाव से सम्मान प्रदान करना चाहिए। यह सत्य है कि सदाचार का बीज जीवन की प्रारंभिक अवस्था में पड़ता है और परिवार से उसका अंकुरण होता है। बालक के परिवार और समाज के संस्कार ही आगे चलकर उसकी शिक्षा के संबल बनते हैं। अत: माता-पिता को बालक के चारित्रिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने की आवश्यकता है। सत्य बोलना, चोरी ना करना, बड़ों का आदर करना, पारस्परिक प्रेम और सहयोग की भावना, अतिथियों के प्रति सम्मान एवं शिष्टाचार आदि की शिक्षा घर पर ही दी जानी चाहिए। माता-पिता द्वारा अपना उदाहरण प्रस्तुत कर के परिवार में सदाचार एवं नैतिक आचरण का वातावरण निर्मित करके यह किया जा सकता हैं।
विद्यालय में ‘सरल से कठिन एवं स्थूल से सूक्ष्म की ओर’ इस मनोविज्ञान के शिक्षण-सिद्धांत के अनुसार स्वच्छता, व्यवस्थाप्रियता, समयशीलता, अनुशासन-पालन, शिष्टाचार परस्पर सहयोग एवं उत्तरदायित्व की भावना आदि स्थूल एवं सरल गुणों का विकास सहपाठ्य क्रियाकलापों के माध्यम से प्रारंभ किया जाना चाहिए। विद्यालय में शिक्षक छात्र के चरित्र निर्माण में सबसे प्रभावी होता है। यह ध्यान रखना चाहिए कि नैतिक शिक्षा या चरित्र का निर्माण उपदेशों से नहीं होता है। नैतिक शिक्षा का प्रथम नियम है : सुझाव देना। सुझाव देने का सबसे उत्तम ढंग है व्यक्तिगत उदहारण, अनौपचारिक वार्ता तथा महापुरुषों के जीवन के दृष्टांत, उनके श्रेष्ठ विचार एवं उत्तम भावों को जागृत करने वाले साहित्य के अंश एवं इतिहास के प्रसंग छात्रों के सम्मुख रोचक एवं सरस शैली में प्रस्तुत किए जायें। यदि स्वयं शिक्षक का जीवन आदर्शों में ढ़ला हो जिन्हें वह छात्रों के सामने रख रहा है तो यह अत्याधिक प्रभावशाली पद्धति होती हैं।
अंत में यह बात समझना आवश्यक है कि नैतिक शिक्षा अथवा धर्म शिक्षा का शिक्षण अन्य विषयों के समान एक विषय के रूप में करना उपयोगी एवं प्रभावकारी नहीं होता। सभी शिक्षकों को सभी विषयों के शिक्षण के साथ नैतिकता विषयक बातों को छात्रों के सामने प्रस्तुत करना चाहिए। नैतिक शिक्षा के लिए विद्यालय का संस्कारक्षम वातावरण बहुत सहायक होता है।
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