– डॉ शिवभूषण त्रिपाठी
एक ही परमात्मा-सत्ता सर्वत्र विद्यमान है। अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, महातम, पाताल और भू: भुव: स्व:, मह, जन:, तप:, सत्यम्- इन चौदह भुवनों में सूर्य, चंद्रमा, नक्षत्र, भूधर, सागर और गगन आदि जो कुछ भी दृश्यमान जगत है अथवा अदृश्य है – सब उसकी ही महिमा है। तथापि भारत को अवतार भूमि–देवभूमि कहना क्या किसी के मन की संकल्पना है? अथवा सर्व-सम असीम परमात्मा को एकदेशीय-ससीम बनाना है। इस विषय पर सम्यक मीमांसा करना उचित होगा।
विधाता की सृष्टि में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ समझा जाता है, क्योकि मनुष्य ही पूर्णता का अधिकारी है। मनुष्य के अतिरिक्त किसी भी जीव को मुक्ति पूर्णता का अधिकार नहीं दिया गया है। पूर्णतया या मुक्ति ही धर्म का सच्चा उद्देश्य है। ऋषियों ने उस सत्तत्तव के अनेक नामकरण किए हैं। किसी ने ‘ब्रह्मा’ कहा, किसी ने परमात्मा। दुसरे जीव पूर्णता के अधिकारी नहीं, वे प्रकृति के दास हैं। वे अपने स्वभाव को नहीं बदल सकते। स्वभाव-संगठन अभाव के अनुभव से होता है। अभाव को दूर कर पूर्ण हो जाने के लिए ही मनुष्य की सृष्टि हुई है। मनुष्य में भोग-वृत्ति दुसरे जीवों की अपेक्षा कम है। भोगवृत्तियों के कमजोर हो जाने के कारण ही मनुष्य में ज्ञान की मात्रा अधिक होती है। ज्ञान के द्वारा भोग वासना को दबाकर मनुष्य प्रेम, त्याग, विवेकादि सद्दगुणों से श्रेष्ठ जीवन धारण करता है। ऐसे मनुष्य सृष्टि के जिस भूभाग पर रहते है, वह भूभाग भी तदनुकूल धनता को प्राप्त होता है।
प्राचीन भारतीय जीवन के नियमों की जाँच करने पर धर्म का पूरा-पूरा परिचय प्राप्त होता है। यथा – षडऋतुओं का प्रभाव भारत की शांत प्रकृति पर कोई अस्वाभाविक क्रिया नहीं उत्पन्न करता। हिमालय जैसे गंभीर सात्विक प्रकृति के क्षेत्र पर दृष्टि पड़ते ही दर्शकों का मन स्वभावत: अंतर्मुखी हो जाता है। उपजाऊ भूमि पेट के प्रश्न की समस्या हल कर देती है। गंगा जैसी स्वच्छतोया नदियां उसके मनोबल को धो डालने के लिए समर्थ हैं। प्रकृति की सारी क्रियाएं मानो भारत के धर्म की रक्षा करने के लिए ही तत्पर हो रही हैं। साथ ही गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में –‘जड़ चेतन गुण दोषमय विश्व कीन्ह करतार’ से यह अभिव्यक्त होता है कि विरोधी तत्व ही मानव सृष्टि रचना का मूलाधार है। विरोधी गुणों का परस्पर सामंजस्य न होने पर, अनुपात बिगड़ने पर भगवान कृष्ण को कहना पड़ा –
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तादात्मनं सृजाम्यहम् ।।
संसार के बंधनों में फंसे हुए धर्म के मार्ग पर चलने वाले मनुष्य बंधन मुक्ति के लिए कातर होकर मुक्त स्वभाव परमात्मा से प्रार्थना करते हैं। उनकी प्रार्थना पूर्ण करने के लिए नित्यमुक्त निराकार परमेश्वर को माया राज्य में मन, बुद्धि, चित्त और अंहकार के घेरे में पदार्पण करना पड़ता है, उसे साकार होना पड़ता है।
आनादि काल से धर्म-अधर्म, कार्य-अकार्य कर्मों के निर्णायक वेदादि शास्त्र ही रहे हैं। इन शास्त्रों के निर्णय वचनों को संकुचित समझने में, दोष समझने वाले का है न कि शास्त्र का। सत्य का पालन करने वालों की संख्या यद्यपि कम है तथापि वह संकीर्ण धर्म नहीं कहा जा सकता। परमतत्व का साक्षात्कार यद्यपि करोड़ो में से किसी एक को प्राप्त होता है, तो भी वह परम आवश्यक व्यापक धर्म नहीं है। इसी तरह वैदिक शास्त्र और धर्म यद्यपि व्यापक और सार्वभौम हैं तथापि कालक्रम से लोगों में उद्दंडता बढ़ जाने से बहुत लोग च्युत हो गए और वेदादि की मर्यादाओं से दूर हो गए। स्वर्गादि के समान के भूलोक में भी बहुत से खंड भोग-भूमि ही थे, कर्म-भूमि नहीं, अत: सामान्य रूप से वहां मानव धर्म (सत्य आदि) की प्रतिष्ठाना की गई।
भारत कर्मभूमि है, अत: यहां पर वर्णधर्म, आश्रमधर्म, यज्ञयोगादि विशिष्ट धर्मों का पूर्ण विकास हुआ। यहां कर्म और उपासना, ज्ञान की सिद्धि सरलता से होती है। शतक्रतु इन्द्र यहीं के कर्मों से ऐन्द्र पद को प्राप्त करते हैं। देवता भी भारत भूमि में जन्म चाहते हैं। जैसे घर के एक स्थान पर रहकर दीपक समस्त भवन को प्रकाशित करता है। शरीर के एक स्थान में अंतर आत्मा की अभिव्यक्ति होती है, परंतु समस्त शरीर का कार्य उसी से होता है। वैसे ही भारतवर्ष समस्त भूमंडल की नाभि है, शक्ति केंद्र है। पुराणों के अनुसार, जंबुद्वीप समस्त पृथ्वी के मध्य में है। उसी में मेरु पर्वत है। अत: भारत में ही धरती का ह्रदय है। भारत के ज्ञान और धर्म के प्रभाव से विश्व आलोकित हुआ। मनु जी कहते हैं –
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं-स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्या सर्वमानवा: ।।
शरीर के समस्त अंगों की रक्षा के लिए जैसे ह्रदय की रक्षा का ध्यान अधिक रखना होता है, वैसे ही यहां धर्म और शास्त्रों के रक्षार्थ भगवान का प्राकटय भी होता है।
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि भारत ही पुण्य भूमि है।
(लेखक शिक्षाविद है और भारतीय शिक्षा शोध संस्थान लखनऊ में कोषाध्यक्ष है।)