भारतीय शिक्षा के मनीषी : श्री लज्जाराम तोमर

 – वासुदेव प्रजापति

मा. लज्जारामजी तोमर की जन्म जयंती के उपलक्ष्य में उनके शैक्षिक चिन्तन का पुण्य स्मरण करने हेतु यह लेख प्रस्तुत है। तोमरजी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व इतना विशद एवं प्रेरक है कि उसे एक लेख में समाहित कर पाना अत्यन्त दुष्कर है। अतः इस लेख में चिंतन के कुछ अंश ही सम्मिलित हैं।

श्री लज्जाराम जी तोमर का जन्म 21 जुलाई 1930 को मध्यप्रदेश के मुरैना जनपद के ग्राम बघपुरा के एक कृषक परिवार में हुआ था। आप 1945 में संघ के स्वयंसेवक बने। सन् 1957 में एम.ए.बी.एड. करने के उपरान्त 1958 में आपने प्राध्यापक पद छोड़कर संघ योजना से चलने वाले सरस्वती शिशु मंदिर आगरा के संस्थापक प्रधानाचार्य का दायित्व ग्रहण किया। आपने शिक्षा में अनेक नवाचार करते हुए प्रधानाचार्य के पद को सार्थक किया। यहाँ उनके शिक्षा दर्शन की चिन्तन कणिकाओं को आपके स्मरणार्थ दिया गया है।

लज्जारामजी का शिक्षा दर्शन

 मा. तोमर जी की दृष्टि में जीवन के प्रत्येक अनुभव को शिक्षा कहा जा सकता है। “वह व्यवहार जो मनुष्य के ज्ञान की परिधि को विस्तृत करें, उसकी अन्तर्दृष्टि को गहरा करे, उसकी प्रतिक्रियाओं का परिष्कार करे, भावनाओं और क्रियाओं को उत्तेजित करे अथवा किसी न किसी रूप में परिष्कृत करें वह शिक्षा है।” शिक्षा मनुष्य के सर्वांगीण विकास अर्थात् शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का विकास है। शिक्षा का सम्बन्ध जितना व्यक्ति से है, उससे अधिक समाज से है। वास्तव में शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक मानव शिशु सब प्रकार से विकसित होकर समाज में एक उत्तम नागरिक के नाते अपने कर्तव्यों का निर्वहन करता है।

शिक्षा मात्र अक्षर ज्ञान नहीं है

तोमरजी सन् 1961 में सरस्वती विद्या मंदिर इंटर मीडिएट कालेज के संस्थापक प्रधानाचार्य बने। और सन् 1972 में उन्होंने भारतीय शिक्षा समिति उत्तरप्रदेश के संस्थापक मंत्री का दायित्व सम्हाला और उत्तर प्रदेश के सभी शिशुमंदिरों का प्रवास कर उन्हें भारतीय शिक्षा की ओर उन्मुख किया।

आप साक्षर होने को ही शिक्षित होना नहीं मानते थे। आपका मानना था कि अनेक लोग अक्षर ज्ञान को शिक्षा समझते हैं। जबकि शिक्षा का क्षेत्र इससे बहुत विस्तृत है। केवल लिपि ज्ञान या भाषा ज्ञान से शिक्षा का उद्देश्य पूर्ण नहीं होता। शिक्षा के अन्तर्गत वे सभी क्रियाएँ आती हैं जिनके द्वारा व्यक्ति या समूह अपने ज्ञान को दूसरे को देने का प्रयास करता है। वास्तव में समस्त मानव जीवन शिक्षा है और शिक्षा ही जीवन है, यह कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

शिक्षा का आधार जीवन दर्शन है

सन् 1977 में इन्टर कालेज के प्रधानाचार्य पद से त्यागपत्र देकर तोमर जी रा. स्व. संघ के प्रचारक बने और अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र सेवा में खपा दिया। सन् 1979 में आपको विद्याभारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के संगठन मंत्री का दायित्व मिला। आपने संगठन को भारतीय शिक्षा दर्शन के अधिष्ठान पर आगे बढ़ाकर उसे सही अर्थों में संस्कार देने वाले विद्यालयों का गौरव दिलवाया।

मा. लज्जाराम जी की स्पष्ट मान्यता थी कि शिक्षा का अधिष्ठान जीवन दर्शन होना चाहिए। वर्तमान भारतीय शिक्षा का सबसे बड़ा दोष यही है कि आज की शिक्षा में जीवन दर्शन का विचार ही नहीं किया गया है। अंग्रेजों द्वारा स्थापित शिक्षा व्यवस्था स्वतंत्र भारत में आज भी उसी रूप में प्रचलित है, परिणाम स्वरूप भारतीय शिक्षा दिशाहीन है, जिससे शिक्षार्थी व शिक्षक दोनों दिशाहीन होकर बिना पतवार की नौका के समान भटकते हुए दिखाई दे रहे हैं। जीवन दर्शन आधारित शिक्षा ही सही मार्ग दिखा सकती है।

शिक्षा के भारतीय मनोवैज्ञानिक आधार

मा. तोमरजी शिक्षा मनोविज्ञान के अध्येता थे। वे यह जानते थे कि यदि मन को शिक्षित नहीं किया तो ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता। हम मनोवैज्ञानिक पद्धतियों के द्वारा मनुष्य की उन नैसर्गिक शक्तियों व साधनों को सजीव बना सकते हैं, जिनके द्वारा वह ज्ञान को आत्मसात करता है, नवीन रचना करता है तथा मेधा और ऋतम्भरा प्रज्ञा का विकास करता है। मनोवैज्ञानिक आधार पर विकसित शिक्षा ही भारतीय शिक्षा होगी। तोमरजी के अनुसार भारतीय मनोवैज्ञानिक आधार अधोलिखित हैं –

मनुष्य की मूल प्रकृति आध्यात्मिक है

मा. तोमरजी स्वयं अष्टांग योग के दक्ष शिक्षक थे, वे पूज्य महेशानन्द गिरि जी महाराज के शिष्यों को योग सिखाते थे। वे मनुष्य की प्रकृति के सम्बन्ध में कहा करते थे कि मनुष्य की मूल प्रकृति आध्यात्मिक है। मनुष्य के भीतर परम सत्य चेतन सत्ता अधिष्ठित है। यही परमसत्य मनुष्य में एकता का अधिष्ठान है। उस परम सत्ता की अनुभूति करवाना शिक्षा का लक्ष्य एवं धर्म है।

हमारे यहाँ मनुष्य और समाज परस्पर पूरक हैं। इस परस्पर पूरकता के सिद्धांत के फलस्वरूप हमारे यहाँ संघर्ष नहीं अपितु सहयोग है। इस सम्बन्ध में वे पूजनीय गुरुजी के वाक्य का स्मरण करते हुए बताते थे कि “समाज ही उस अव्यक्त ब्रह्म का विशाल एवं विराट रूप है। अतः अपने जीवन को इस समाज रूपी परमेश्वर की सेवा में पूर्णरूपेण समर्पित करना ही जीवन का परम लक्ष्य है।”

भारतीय शिक्षा दर्शन के प्रचार-प्रसार हेतु मा.लज्जारामजी ने सन् 1995 में इंग्लैंड व हालैण्ड आदि देशों की यात्राएँ की और अनेक शैक्षिक गोष्ठियों में भारतीय शिक्षा का विचार रखा।

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ज्ञान मनुष्य के अन्तर में है

तोमरजी भारतीय शिक्षा के गहन चिंतक वह कुशल लेखक थे।आप द्वारा लिखित पुस्तक “भारतीय शिक्षा के मूलतत्त्व” ने शिक्षा जगत में एक विशिष्ट स्थान बनाया है। इस पुस्तक का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है।

मा. लज्जारामजी अपनी इस पुस्तक में बताते हैं कि भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार आत्मा ज्ञानस्वरूप है। ज्ञान आत्मा का प्रकाश है। मनुष्य को ज्ञान बाहर से प्राप्त नहीं करना पड़ता, ज्ञान तो उसके भीतर ही स्थित है। आत्मा के अनावरण से ज्ञान का प्रकटीकरण होता है। महर्षि अरविन्द के अनुसार “मस्तिष्क को ऐसा कुछ भी नहीं सिखाया जा सकता जो जीव की आत्मा में सुप्त ज्ञान के रूप में पहले से ही गुप्त न हो।” इसी प्रकार स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि  “मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है।” अतः समस्त ज्ञान चाहे वह भौतिक हो या आध्यात्मिक मनुष्य की आत्मा में है।

अन्त:करण शिक्षा का साधन है

मा. तोमर जी वेदान्त के मर्मज्ञ थे। वेदान्त में ज्ञानार्जन भी है, यह बहुत कम विद्वान जानते हैं। ज्ञानार्जन के साधनों को समझाने के लिए मा. लज्जारामजी वेदान्त का एक श्लोक  बतलाते थे –

मनोबुद्धिरहंकारश्चित्तं  करणमन्तरम्।

संशयो निश्चयो गर्व: स्मरणं विषया इमे।। १/१७/१।।

अन्त:करण की वृत्ति के चार रूप व उनके कार्य इस श्लोक में बतलाए गए हैं। ये चार रूप हैं – मन, बुद्धि, अहंकार व चित्त। मन का कार्य वितर्क व संशय है। बुद्धि का कार्य निश्चय करना है। अहंकार से अहं भाव अर्थात् गर्व की अभिव्यक्ति होती है। और चित्त में स्मरण रहता है।अन्त:करण स्वयं जड तत्त्व है, आत्मा के प्रकाश से ही यह ज्ञान प्राप्त करता है। इस रूप में अन्त:करण ज्ञानार्जन का साधन है।

शिक्षा संस्कृति की प्रणाली है

तोमरजी संस्कृति का सही अर्थ बतलाते हुए कहते थे कि आजकल गीत-संगीत, नाटक व कला इत्यादि के कार्यक्रमों को सांस्कृतिक कार्यक्रम कहते हैं, जो उचित नहीं है। संगीत व कला इत्यादि संस्कृति का एक अंग है परन्तु संस्कृति का सर्वस्व नहीं है। संगीत व कला आदि के कार्यक्रम केवल मनोरंजन के लिए आयोजित  किए जाते हैं। जबकि भारतीय मनीषा में “संयम और साधना के द्वारा प्रकृति का परिष्कार और उन्नयन करना ही संस्कृति है। शिक्षा संस्कृति सिखाती है।

संस्कृति पूत लज्जाराम जी की संस्कृति सेवा को देखकर अखिल विश्व गायत्री परिवार के द्वारा आपको “संस्कृति भूषण” अलंकरण से विभूषित किया गया था, जो हम सबके लिए गौरव की बात है।

शिक्षा एक पवित्र प्रक्रिया है

तोमरजी शिक्षा को पवित्र कार्य मानते थे। वे इस सम्बन्ध में कहते थे कि भारतीय संस्कृति में शिक्षा को पवित्र प्रक्रिया माना गया है। गीता में भगवान ने ज्ञान को पवित्रतम कहा है – “न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।” ऐसे ही भाव का उल्लेख महाभारत में है – “नास्ति विद्यासमं चक्षु:।” अर्थात् विद्या के समान कोई दूसरा नैत्र नहीं है। भारतीय दर्शन में अज्ञान को अंधकार तथा ज्ञान को प्रकाश माना है। अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाना शिक्षा का कार्य है। अतः शिक्षा पवित्रकार्य है।

इस पवित्रकार्य को मा. लज्जारामजी ने पवित्रभाव से पूर्ण किया। उनके द्वारा समाज सेवा के 25 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में सन् 1986 में श्री अटल बिहारी वाजपेई के हाथों आगरा में आपका अभिनन्दन किया गया था।

भारतीय शिक्षण विधियाँ

लज्जारामजी कक्षा में प्रयुक्त शिक्षण विधि की ओर आचार्यों का ध्यान आकृष्ट करते हुए बतलाते थे कि प्राचीन भारतीय शिक्षण विधियों का अनेक शास्त्रों में वर्णन मिलता है। वे पांच भारतीय शिक्षण विधियों को विस्तार से समझाते थे। यहाँ उनका संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।

१. औपनिषदिक शिक्षण विधि २. प्रश्नोत्तर विधि ३.गीता में वर्णित विधि ४. स्मृति चन्दिका में वर्णित विधि ५. वाचस्पति मिश्र की विधि।

 (इन विधियों का वर्णन आप विद्याभारती द्वारा प्रकाशित पुस्तक “विद्याभारती चिंतन की दिशा” में पढ़ सकते हैं।)

प्राचीन भारतीय शिक्षण विधियों से शिक्षा प्राप्त ब्रह्मचारी शरीर, मन, बुद्धि एवं आत्मा के विकास से परिपूर्ण हो भावी जीवन के लिए पूर्णसिद्ध होकर समाज के सुयोग्य नागरिक के रूप में गृहस्थाश्रमी बनते थे।

भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में विशिष्ट सेवा हेतु तोमरजी को गुजरात सरकार ने विशेष सम्मान से सम्मानित किया। तत्कालीन राज्यपाल माननीय सुन्दरसिंह जी भंडारी ने आपको शाल, सम्मानपत्र व स्मृति चिह्न भेंट कर सम्मानित किया।

तोमरजी की शिक्षा जगत को मौलिक देन

 प्राचीन भारतीय शिक्षण विधियों का अनुशीलन कर माननीय लज्जारामजी ने शिक्षा जगत को युगानुकूल एक आधुनिक शिक्षण पद्धति दी है। इस नई शिक्षण पद्धति का नाम पंचपदी शिक्षण पद्धति है। यह शिक्षण पद्धति प्राचीन शिक्षण विधियों का सार है। इस पद्धति में पांच पद हैं –

१. अधीति  २. बोध ३. अभ्यास  ४. प्रयोग  तथा ५. प्रसार

विद्याभारती के विद्यालयों में पंचपदी शिक्षण पद्धति का विकास हुआ है। इस अभिनव शिक्षण पद्धति से छात्रों द्वारा अर्जित ज्ञान अनुभूत, सम्पूर्ण एवं स्थायी होता है। यह विषय आप द्वारा लिखित पुस्तक “पंचपदी शिक्षण पद्धति” में विस्तार से आया है। हमें इसका अध्ययन करना चाहिए।

आपके ऐसे ही मौलिक कार्यों के फलस्वरूप ही अमेरिकन बायोग्राफिकल इन्स्टीट्यूट द्वारा अन्तरराष्ट्रीय स्तर के इस शताब्दी के विशिष्ट शिक्षाविद् व सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में अपनी डायरेक्ट्री में श्री तोमरजी का जीवन परिचय प्रकाशित किया है।

उनकी जन्म जयंती पर हम सबका यह कर्तव्य बनता है कि हम उनके कार्यों को आगे बढ़ाने का संकल्प लें और उस संकल्प की पूर्ति तक अनथक लगे रहें। यही हमारी उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

चरैवेति! चरैवेति!! चरैवेति!!!

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)

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