– वासुदेव प्रजापति
“ज्ञान की बात” एक पाक्षिक स्तंभ है, जिसकी अब तक 24 कड़ियां आ चुकी हैं। अर्थात् इसे प्रारंभ हुए अब तक एक वर्ष की अवधि पूर्ण हो चुकी है। इस एक वर्ष की अवधि में हमने ज्ञान-अज्ञान को समझा। ज्ञानार्जन के साधनों कर्मेंद्रियां, ज्ञानेंद्रियां, मन, बुद्धि, अहंकार एवं चित्त को जाना। ज्ञानार्जन के साधनों का विकास शिक्षा के द्वारा किस प्रकार होता है, यह समझा। आदर्श विद्यार्थी तथा आदर्श आचार्य के लक्षण जाने, आचार्य-विद्यार्थी के सम्बन्धों का महत्त्व समझा तथा अध्ययन-अध्यापन प्रक्रिया को जाना। आज की शिक्षा जो अर्थ के साथ जुड़ी हुई है, उसे अर्थ निरपेक्ष बनाने की दृष्टि से साधन रूप में गुरु दक्षिणा, भिक्षा और दान का महत्त्व समझा और इनकी आवश्यकता अनुभव की।
इस एक वर्ष की विषय वस्तु को पढ़कर आपके ध्यान में आया होगा कि ज्ञान की बात में केवल भारतीय ज्ञान का प्रतिपादन हुआ है। आज भारतीय ज्ञान शिक्षा में किसी भी स्तर पर दिखाई नहीं देता, चाहे वह शिशु शिक्षा का स्तर हो चाहे प्राथमिक या माध्यमिक शिक्षा का स्तर हो अथवा उच्च शिक्षा का क्षेत्र हो सर्वत्र अभारतीय शिक्षा का बोलबाला ही दिखलाई पड़ता है। कक्षा कक्ष में विद्यार्थी को जो पढ़ाया जाता है, उसी से विद्यार्थी की रुचि, दृष्टि एवं उसका मानस बनता है। इस अभारतीय शिक्षा को प्राप्त कर देश की भावी पीढ़ी का मानस अभारतीय बनता है। यही कारण है कि आज की पीढ़ी केवल अपने करियर की अंधी दौड़ में लगकर अपना जीवन व्यर्थ में बिगाड़ रही है। आज ऐसे बेरोजगार युवा अपने परिवार, समाज और देश पर भार ही सिद्ध हो रहे हैं।
इस परिस्थिति में भारतीय ज्ञान को शिक्षा की मूलधारा में पुनः प्रतिष्ठित करना नितांत आवश्यक लगता है। भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा से ही देश की भावी पीढ़ी में देशभक्ति, स्वाभिमान एवं श्रमनिष्ठा का भाव जगाकर उन्हें कुल का दीपक, समाज का सेवक तथा देश का भक्त बनाया जा सकता है। देश की ऐसी भावी पीढ़ी केवल अपने लिए नहीं अपितु अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए जीवन जीने वाली बनेगी। भारतीय शिक्षा के द्वारा श्रेष्ठ भावी पीढ़ी का निर्माण करने वाले शिक्षक वर्ग हेतु यह स्तम्भ “ज्ञान की बात” प्रारंभ हुआ है।
अब “ज्ञान की बात” का दूसरे वर्ष में प्रवेश हो रहा है। इस वर्ष का विषय बताने से पूर्व कुछ बिन्दु आपके विचारार्थ रखे जा रहे हैं –
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आप व्यक्ति शब्द का अर्थ जानते हैं?
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आप व्यक्तित्व और पर्सनेलिटी का अन्तर समझते हैं?
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आप विकास की पाश्चात्य अवधारणा तथा भारतीय अवधारणा में क्या अन्तर मानते हैं?
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समग्र विकास की भारतीय संकल्पना क्या है?
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पंचकोशों के बारे में आप क्या जानते हैं?
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आपकी दृष्टि में पंचकोशों का विकास कैसे होता है?
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आप व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि एवं परमेष्ठी के बारे में क्या जानते हैं?
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समष्टि में कौन से पद आते हैं और इनकी शिक्षा का स्वरूप क्या है?
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आप औपचारिक शिक्षा की पूर्व तैयारी किसे मानते हैं?
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आप आजीवन शिक्षा का स्वरूप क्या मानते हैं?
इन दस प्रश्नों को पढ़ने के पश्चात् आपके मन में अनेक नये प्रश्न उठे होंगे और आपके ध्यान में आया होगा कि –
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इनमें से कुछ शब्द तो ऐसे हैं, जिन्हें मैंने पहली बार पढ़ा है।
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कुछ शब्द ऐसे हैं जिन्हें सुना है किन्तु उनके बारे में कुछ भी जानता नहीं।
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शेष के बारे में कुछ-कुछ जानता हूँ परन्तु उनका शिक्षा से क्या सम्बन्ध है?
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यह समझ में नहीं आ रहा।
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आपमें से कुछ के मन में यह मूलभूत प्रश्न भी उठा होगा कि यह सारा ज्ञान हमें क्यों नहीं पढ़ाया गया?
इन दस प्रश्नों के माध्यम से यह बताने का प्रयत्न किया गया है कि आज की शिक्षा में भारतीय ज्ञान नहीं पढ़ाया जाता, जबकि सारा विश्व स्वीकार करता है कि भारत का ज्ञान सर्वश्रेष्ठ है। तनिक विचार करें कि स्वतंत्र भारत में भारतीय ज्ञान अब तक क्यों नहीं पढ़ाया गया? बिल्कुल स्पष्ट है, अब से पहले की सरकारें वैचारिक दृष्टि से राष्ट्र को सर्वोपरि न मानने वाली थीं। पहली बार राष्ट्रवादी सरकार आई है। इस सरकार ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में पहली बार भारतीय ज्ञान व विरासत को सम्मिलित किया है। इसलिए अब भारतीय ज्ञान कक्षा कक्षों में पढ़ाया जायेगा। इसलिए शिक्षकों को इस श्रेष्ठ ज्ञान की समझ होना आवश्यक है।
इस पाक्षिक स्तंभ “ज्ञान की बात” के दूसरे वर्ष का विषय है – “व्यक्तित्व विकास की भारतीय अवधारणा” इस विषय के अन्तर्गत वर्ष भर में ऊपर जो दस प्रश्न दिये गये हैं, उनके उत्तर तो मिलेंगे ही, साथ ही साथ भारतीयता की समझ भी स्पष्ट होती जायेगी। भारतीयता करियर में विश्वास नहीं रखती, वह तो पंच कोशात्मक विकास के द्वारा सदाचार, सद्गुण एवं चरित्र निर्माण करके योग्य नागरिक बनाने में विश्वास रखती है।
आज यहाँ योग्यता का महत्त्व बताने वाली एक कथा प्रस्तुत की गई है –
योग्यता की परीक्षा
एक प्रजा वत्सल राजा थे, उनके तीन पुत्र थे। वे तीनों राजकुमार युवा हो गये थे और राजा भी अब वृद्ध हो चुके थे। राजा के ध्यान में आया कि अब मुझे अपना उत्तराधिकारी चुन लेना चाहिए। किन्तु राजा के समक्ष प्रश्न खड़ा था कि तीनों राजकुमारों में से किसे राज्य की बागडोर सौंपी जाय? तीनों में से किसमें प्रजा को पुत्रवत मानकर राज्य संचालन की योग्यता है? इस प्रश्न का हल निकालने के लिए राजा ने एक योजना बनाई। तीनों राजकुमारों को बुलाया और कहा, मैं एक वर्ष के लिए यात्रा पर जा रहा हूँ। जाने से पूर्व मैं एक-एक बीज तुम तीनों को दे कर जा रहा हूँ। तुम अपने-अपने बीज गमले में बो देना, जब मैं लौट कर आऊॅंगा तब तुम्हारे पौधों को देखूंगा और निर्णय करूंगा कि तुम में से राजा बनने योग्य कौन है। यह बताकर राजा यात्रा पर चले गये।
इधर तीनों राजकुमार राजा के बाग में गए और माली से अपनी-अपनी पसंद के गमले ले लिए। तीनों ने उन गमलों में अपने अपने बीज बोए। तीनों प्रतिदिन बाग में आते और अपने गमलों में पानी डालते। राजकुमारों की देखरेख में पौधे बढ़ने लगे। इस प्रकार पौधों की सेवा करते-करते एक वर्ष की अवधि बीत गई। इधर राजा भी यात्रा पूर्णकर लौट आए।
राजा ने तीनों राजकुमारों को अपने-अपने गमले लेकर आने की सूचना भिजवाई। दोनों बड़े राजकुमार प्रसन्नता से अपने-अपने गमले लेकर राजा के सम्मुख आ खड़े हुए। सबसे छोटा राजकुमार खाली हाथ धीरे-धीरे चलकर आया और उनके पीछे गरदन नीची कर खड़ा हो गया। राजा ने तीनों को ध्यान से देखा और बोले – अब मैं अपना निर्णय आपको सुनाऊॅंगा। दोनों बड़े राजकुमार अति प्रसन्न थे कि राजा तो मैं ही बनूंगा। उधर तीसरा राजकुमार सोच रहा था कि मुझे तो राजा बनायेंगे नहीं, क्योंकि मैं तो खाली हाथ आया हूँ। राजा ने छोटे राजकुमार से पूछा तुम्हारे दोनों बड़े भाई तो अपने-अपने पौधे लेकर आए हैं, तुम खाली हाथ क्यों आए हो? उसने बताया महाराज मैंने भी वर्ष भर अपने गमले में पानी डाला परन्तु मेरा बीज तो अंकुरित ही नहीं हुआ।
छोटे राजकुमार की बात सुनने के बाद राजा ने अपना निर्णय सुनाया – “मेरे बाद छोटे राजकुमार इस राज्य के राजा होंगे।” दोनों बड़े राजकुमार राजा के निर्णय से नाराज हुए और बोले, महाराज! यह कैसा निर्णय है? जो एक पौधा भी नहीं उगा सका, उसे आपने राजा घोषित कर दिया! यह तो अन्याय है। तब राजा बोले मैंने जो तीनों बीज तुम्हें दिये थे, वे तीनों ही बीज उबले हुए थे, उबले हुए बीज कभी अंकुरित नहीं होते। तुम्हीं बताओ तुम्हारे बीज अंकुरित कैसे हो गये? केवल राजा बनने के लिए तुम दोनों ने सत्य और धर्म का मार्ग छोड़कर असत्य वह अधर्म का मार्ग अपना लिया। जबकि छोटे राजकुमार ने सत्य व धर्म का मार्ग अंत तक नहीं छोड़ा। जो सत्य व धर्म में अडिग निष्ठा रखता है, वही राज्य का उत्तराधिकारी बन सकता है। दोनों बड़े राजकुमार लज्जित हो, वहां से चुपचाप चले गए। इस प्रकार योग्यता की परीक्षा हुई और राज्य को एक योग्य धर्मनिष्ठ राजा मिल गया।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
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