वल्लभाचार्य और शुद्धाद्वैत वेदान्त

✍ डॉ. गिरिधर गोपाल शर्मा

वैदिक साहित्य के सिद्धान्तों की स्थापना उपनिषद् साहित्य में प्राप्त होने से उपनिषदों को वेदान्त कहा जाता है। अतः वेदान्त दर्शन की ज्ञान गंगा इन उपनिषदों में से ही प्रवाहित होती है। कालान्तर में इन सिद्धांतां में एकरूपता की स्थापना के लिए व्यास मुनि के द्वारा सूत्रों की संरचना हुई जिन्हें ब्रह्मसूत्र कहा जाता है। वेदान्त दर्शन में वर्णित विविध सिद्धांतों, सम्प्रदाओं का मूल उपनिषद्, ब्राह्मण और श्रीमद्भगवद्गीता रूप प्रस्थानत्रयी हैं। वेदों के अर्थों को दाशर्निक शैली में उपनिषदों में व्याख्यायित किया गया है। वही तार्किक शैली के द्वारा ब्रह्मसूत्र एवं नैतिक शैली के द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता में प्रकट किया गया है। उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म, जीव और जगत् के स्वरूप और पारस्परिक सम्बन्ध के आधार पर वैष्णव दर्शन में प्रमुखतः चार सम्प्रदायों का निर्माण हुआ। जिनके नाम श्री वैष्णव-रामानुज सम्प्रदाय, ब्रह्मसम्प्रदाय, निम्बार्क सम्प्रदाय और रूद्र सम्प्रदाय। श्री वैष्णव सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य श्री रामानुज हैं और उनका सिद्धांत विशिष्टाद्वैत है। ब्रह्म सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य आनन्दतीर्थ यानि माध्वाचार्य हैं और उनका सिद्धांत द्वैतवाद है। सनक सम्प्रदाय यानि निम्बार्क सम्प्रदाय के आचार्य श्री निम्बाकाचार्य हैं और उनका सिद्धांत द्वैताद्वैत वाद के नाम से प्रतिष्ठित हैं। इसी प्रकार रूद्र सम्प्रदाय के आचार्य श्रीविष्णु स्वामी तथा इन्हीं की आचार्य परम्परा में वल्लभाचार्य हुए जिनके द्वारा ही रूद्र सम्प्रदाय के सिद्धांतों की अभिनव रूप में स्थापना हुई जो वेदान्त दर्शन में शुद्धाद्वैत दर्शन के नाम से जाना जाता है।

वैष्णव दर्शन में इन चारों सम्प्रदाओं को वैष्णव सम्प्रदाय चतुष्टयी के नाम से जाना जाता है। इन वैष्णव सम्प्रदाय चतुष्टयी में रूद्र सम्प्रदाय के आचार्य श्री विष्णुस्वामी भगवान् श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे। बाल्यकाल से ही वह श्री कृष्णोपासना में निमग्न रहते थे। एक बार इन्होंने भगवान के दर्शन की उत्कट अभिलाषा में अन्न, जल का परित्याग कर दिया। इनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् ने इन्हें साक्षात् दर्शन दिए। विष्णुस्वामी उनसे साधन भक्ति का उपदेश लेकर भगवान् के बाल रूप की उपासना में लग गए। वल्लभ मान्यता के अनुसार बल्लभाचार्य विष्णु स्वामी के परम्परा में उत्पन्न हुए थे।

एक समय विष्णुस्वामी ने भारत भ्रमण करते हुए दक्षिण भांरत के राज्य आन्ध्रप्रदेश के निवासी परमभागवत् श्रौत्रिय श्रीयज्ञनारायण के घर में आतिथ्य ग्रहण किया। श्रीयज्ञनारायण ने सपत्नीक इनका खूब आदर-सत्कार किया तथा अत्यन्त भगवदीय भाव से भगवान के साक्षत् दर्शन करने के लिए अपनी जिज्ञासा इच्छा को प्रकट किया। इनकी इस प्रकार की भक्ति से द्रवीभूत होकर श्रीविष्णुस्वामी ने श्रीयज्ञनारायण को श्रीकृष्ण मंत्र से दीक्षित किया और श्रीकृष्णोपासना के साथ अपनी कुल परम्परानुसार सोमादि यज्ञ करने का आदेश दिया। गुरु आज्ञानुसार श्रीयज्ञनारायण सपत्नीक और अधिक मनोयोग के साथ श्रीकृष्णोपासना में लग गए साथ ही उन्होंने सोम यज्ञ के निरन्तर अनुष्ठान किए। 32 वें सोम यज्ञ के पूर्ण होने पर श्री विष्णु यानि श्री मदनमोहन ने साक्षात् प्रकट होकर वर माँगने को कहा। तब यज्ञनारायण भट्ट ने भगवान् को ही पुत्र रूप में प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की। तब यज्ञेश्वर मदन मोहन ने कुल में शत सोमयज्ञों के पूर्ण होने पर पुत्र रूप में प्रकट होने का वरदान दिया। इस सोमयज्ञ परम्परा को यज्ञनारायण भट्ट के पुत्र श्री गंगाधर सोमयाजी एवं उनके पुत्र श्री गणपति सोमयाजी और श्री वल्लभभट्ट ने कुल में आगे अग्रसरित किया। इन्हीं वल्लभ भट्ट के यहाँ विशेष अनुष्ठानों के बाद भगवान् की कृपा से एक पुत्र हुआ जिसका नाम लक्ष्मण भट्ट रखा गया। इन लक्ष्मण भट्ट ने अपने पूर्व पुरुषों के संकल्प को पूरा करते हुए सौंवा सोम यज्ञ पूर्ण किया। तब इनकी पत्नी देवी इल्लमागारू के गर्भ से भगवान श्रीकृष्ण ने वल्लाभाचार्य के रूप में अवतार लिया ऐसी साम्प्रदायिक मान्यता है।

15 वीं शताब्दी में उत्तर भारत पर मुगल शासकों का क्रूर प्रशासन था। काशी भी इन क्रूर राक्षसों के आंतक से अछूती नहीं थी। उस समय श्री लक्ष्मण भट्ट अपनी पत्नी देवी इल्मागारू के साथ अपने परिकर सहित निवास करते थे। राजनैतिक विवशताओं एवं यवनों के दुराचारों के कारण आपन्नसत्वा (सगर्भा) पत्नी के साथ श्री लक्ष्मणभट्ट को काशी छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। तब वह सपरिकर चम्पारण्य मध्यप्रदेश का रामपुर जनपद की ओर चल दिए। यात्रा की कठोरता एवं मार्ग की विषमताओं के मध्य इल्लमागारु को चम्पारण्य में असमय प्रसव वेदना ने पीड़ित कर दिया।

तब उन्होंने विक्रम सम्वत् 1535 सन् 1479 की वैशाख कृष्णा एकादशी गुरुवार को सप्तमासीय बालक को जन्म दिया और वह नवजात बालक को मृत समझ कर वही त्याग कर दुःखी मन से चौड़ानगर के लिए प्रस्थान कर गए। चौड़ा नगर में निवास के कुछ दिन बीतने पर और काशी में मुगलों के उपद्रवों के शांत होने की सूचना प्राप्त होने पर आपने पुनः काशी की ओर प्रस्थान करने का निर्णय लिया। लौटते समय उसी स्थान पर अग्नि से समावर्त खेलते हुए उस तेजस्वी बालक को प्राप्त किया। देवी इल्लमागारू ने प्रसन्नता से उस बालक को हृदय से लगा लिया। श्री लक्ष्मण भट्ट का हृदय आनन्द से भर गया। दीर्घावधि तक उस भयंकर अरण्य में बालक के सुरक्षित रहने से उसे भगवद्कृपा मानकर प्रसन्नमना वे काशी में अपने स्थान पर आ गए। अग्नि से समावृत होने से वल्लभाचार्य की प्रारम्भिक शिक्षा संस्कृत माध्यम से काशी में हुई। आप बाल्यकाल से ही अत्यत्न मेधावी छात्र थे। इनकी विद्वता और सीखने की अद्भुत क्षमता से प्रभावित होकर काशी के आचार्यों ने सर्व सम्मति से बाल-सरस्वती-वाक्पति की उपाधि से विभूषित किया।

यावज्जीवमधीतो विप्रः इस शास्त्राज्ञा को शिरोधार्य कर किशोरावस्था तक आते-आते वल्लभाचार्य ने वेद-वेदांग, दर्शन, पुराण, इतिहास आदि विषयों के ग्रंथों को आत्मसात् कर लिया। पिता के परलोक गमन के पश्चात् आपने शांकर मायावाद का खण्डन कर सम्पूर्णकाशी में ब्रह्मवाद के सिद्धांत की स्थापना की। उस समय सम्पूर्ण भारत में सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक क्रान्ति फेली हुई थी। सर्वत्र मायावाद का प्रभाव और प्रचार था। किन्तु वल्लभाचार्य ने माया के सम्बन्ध से रहित शुद्ध ब्रह्मवाद की स्थापना कर भगवान् श्रीकृष्ण की रसोपासना का विस्तार किया। काशी के विद्वान वल्लभाचार्य के तर्कों से प्रभावित होकर श्रीकृष्ण की सेवा पद्धति और शुद्ध ब्रह्मवाद का आश्रय ग्रहण करने लगे। काशी में भक्तिवेदांत की स्थापना होने लगी और वैष्णव सिद्धांतों के प्रति समाज आकर्षित होने लगा।

काशी में शुद्धाद्वैत वेदान्त की स्थापना के बाद वल्लभाचार्य ने दक्षिण भारत की यात्रा की। विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय के निमंत्रण को स्वीकार किया। सर्वोत्कृष्ट उपासना का मार्ग क्या है इस जिज्ञासा को लेकर कृष्णदेव राय ने भारत के समस्त विद्वानों एवं विभिन्न मतों के आचार्यों को बुलाकर महासभा का आयोजन किया। उस सभा में वल्लभाचार्य ने शुद्ध ब्रह्मवाद की स्थापना में अकाट्य तर्कों को प्रस्तुत करके शांकरोक्त मायावाद का प्रामाणिक खण्डन प्रस्तुत करके सभी विद्वानों को चमत्कृत कर दिया। इस अभूतपूर्व शास़्त्र चर्चा के बाद शास्त्र विजयी वल्लभाचार्य का राजा विजयदेव के द्वारा कनकाभिषेक किया गया। जो विशेष रूप से जगत में विख्यात हुआ। साथ ही आपको विद्वानों की सभा में जगद्गुरु श्रीमद् आचार्य की उपाधि से अलंकृत किया गया।

विष्णु स्वामी संप्रदाय के प्रमुख शिष्य भक्त हरिस्वामी एवं शेष स्वामी द्वारा वल्लभाचार्य की विष्णुस्वामी की आचार्य गद्दी पर प्रतिष्ठित किया गया। यह अवसर न केवल वल्लभाचार्य के लिए अपितु सम्पूर्ण अनुआयियों के लिए भी विशेष था। इसके बाद आचार्यपाद अपनी माँ इल्लमागारू की इच्छानुसार उनको विजय नगर में अपने मामा के यहाँ छोड़कर शुद्धाद्वैत और पुष्टिमार्ग के प्रचार के लिए उत्तरभारत की यात्रा की और वहाँ पहुँचकर सर्वप्रथम श्रीमद्भागवत सप्ताह का परायण किया। व्रज यह पुनः पण्डरपुर, प्रयाग आदि पहँचकर आपने अपनी प्रथम भारत यात्रा को विश्रान्ति प्रदान की। द्वितीय यात्रा वल्लभाचार्य ने 19 वर्ष आयु में प्रारम्भ की जो सम्वत् 1554 में आरम्भ करके सम्वत् 1559 में समाप्त हुई। इस यात्रा में पण्डरपुर में विट्ठलनाथ के दर्शन करने के बाद आपको विवाह करने की प्रेरणा प्राप्त हुई। सम्वत् 1558 आषाढ़ मास में मधुमंगल नाम के सजातीय ब्राह्मण की कन्या महालक्ष्मी से आपका विवाहोत्सव सम्पन्न हुआ। कुछ दिन काशी में निवास के उपरान्त आपने सम्वत् 1561 में पुष्टिमार्ग के प्रचार के लिए तृतीय यात्रा प्रारम्भ की जो सम्वत् 1566 में सम्पन्न हुई। 31 वर्ष की अवस्था तक वल्लभाचार्य ने अपनी तीन यात्राएँ यानि भारत की तीन परिक्रमाएँ पूर्ण कर ली थी जिन में आपने शुद्धाद्वैत वेदान्त के साथ पुष्टि भक्ति की समाज में स्थापना की।

वल्लभ सम्प्रदाय में यात्राएँ पृथ्वा परिक्रमा तथा दिग्विजय के नाम से प्रसिद्ध है। पूरे भारत के साथ आपने विशेषतः उत्तर पश्चिम भारत में गुजरात और राजस्थान में पुष्टि मार्ग भक्ति की स्थापना की। इन यात्राओं में स्थान-स्थान पर श्रीमद्भागवत के सप्ताह पारायण किए, उन स्थानों को वल्लभ सम्प्रदाय में बैठक के नाम से जाना जाता है। ये स्थान (बैठक) चित्रकूट, काशी, जगन्नाथपुरी, हरिद्वार, सिद्धपुर, विद्यानगर, द्वारका, चरणाद्रि, चम्पारण्य, पण्डरपुर आदि 84 स्थानों पर है। इन बैठकों को वल्लभ सम्प्रदाय में अत्यन्त आदर से जाना जाता है। वल्लभाचार्य ने विष्णु स्वामी के मत को मानकर उनके मत को आधार बनाकर अपने मत को अभिनव रूप में प्रस्तुत किया। जो विशेष रूप से भक्ति, उपासना पद्धति को उनसे भिन्न करता है।

विष्णु स्वामी ने सगुण और तामस भक्ति का प्रचार किया किन्तु वल्लभाचार्य ने प्रेम लक्षणा भक्ति को स्थापित कर पुष्टिमार्ग और अपने विशिष्ट सेवा मार्ग का निरूपण किया। इस प्रकार की भक्ति का नूतन रूप वल्लभाचार्य की अपनी विशिष्ट देन है जो विष्णु स्वामी के मत में प्रचलित नहीं थी। 16 वीं शताब्दी तक भारतीय संस्कृति की रक्षा में वल्लभाचार्य की महती भूमिका निश्चित होती है। उन्होंने श्रीमद्भागवत का आधार लेकर भगवद् अनुग्रहमार्ग को जन सामान्य के हृदय में स्थापित किया। उस समय के मुगल शासक सिकन्दर लोदी के किसी कर्मचारी ने मथुरा के नगर द्वार पर ऐसा यन्त्र बाँध दिया था कि जो भी हिन्दू उसके नीचे से निकलता था वह मुस्लिम हो जाता था। वल्लभाचार्य को जब यह विदित हुआ तब उन्होने भी नगर द्वार पर ऐसा यंत्र स्थापित किया जिससे परवर्तित मूसलमान पुनः हिन्दू बन जाता था। यह देखकर मुगल शासक सिकन्दर लोदी वल्लभाचार्य से बहुत प्रभावित हो गया। इस प्रकार वल्लभाचार्य ने अनेक मुसलमानों को पुनः हिन्दू बनाया।

अनेक स्थानों पर आपने श्रीनाथजी के विग्रहों की स्थापना कर जीव कल्याणार्थ भगवद् अनुग्रह रूपी प्रपत्तिमार्ग का प्रचार-प्रसार किया। वल्लभाचार्य ने व्रजभूमि को अपना केन्द्र बनाकर वहीं के पुष्टिमार्ग के प्रवाह को सम्पूर्ण उत्तरभारत में फैलाया। वल्लभाचार्य का व्यक्तित्व अत्यन्त आकर्षक, प्रभावशाली और महान था। वे वेद, वेदांग के सहित श्रीमद्भागवत आदि धर्मशास्त्रों के अत्यन्त सरल व्याख्याता थे। ब्रह्मसूत्र पर अपने सरल शब्दों में अणुभाष्य को लिखकर अपनी विद्वता को प्रस्तुत किया। वल्लभाचार्य के अनेक शिष्य और भक्त हुए जिनमें 84 शिष्य प्रमुख हैं। इन्होंने अपने शिष्यों के निज घरों में श्रीकृष्ण के बाल स्वरूपों की स्थापना करवायी। जिनमें श्रीनारायण ब्रह्मचारी के यहाँ, श्री गोकुलचन्द्रमा, पद्मनाभ दास के यहाँ श्री मथुरेश जी, श्री गज्जनधावन के घर में श्रीनवनीत प्रिया जी और दामोदर सेठ के यहाँ श्री द्वारकानाथ की सेवा प्रदान की।

वल्लभाचार्य के दो पुत्र गोस्वामी गोपीनाथ और गोस्वामी विट्ठलनाथ हुए। सम्वत् 1857 यानि सन् 1532 में उनका 52 वर्ष की आयु में काशी में परलोक गमन हुआ।

वल्लभाचार्य संस्कृत भाषा के अद्भुत विद्वान थे। आफ्रेक्ट के केटेलाग्स केटेलेगोरम के अनुसार वल्लभाचार्य 84 ग्रथों की रचना की। किन्तु आज इनके लगभग 30 ग्रंथ प्राप्त होते हैं। जिनमें अणुभाष्य, तत्त्वार्थदीप निबन्ध, सुबोधिनी, पूर्वमीमांसा भाष्य, षोडश ग्रंथ, पत्रावलम्बन, शिक्षा श्लोक, मधुराष्टक, न्यासादेश, श्री पुरुषोत्तमनामसहस्त्र, त्रिविधनामावली, सेवाफलविवरण, भगवत्पीठिका और गायत्रीभाष्य प्रमुख हैं।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर है और विशेषतः वैदिक साहित्य के अध्येता है।)

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