साहस शील हृदय में भर दे

✍ गोपाल माहेश्वरी

सत्येंद्र आठवीं कक्षा का बहुत प्रतिभाशाली विद्यार्थी है। आज उसकी वार्षिक परीक्षा का तीसरा प्रश्नपत्र था। उसने बहुत अच्छी पढ़ाई की थी और वह पूरे आत्मविश्वास से उत्तर लिख रहा था। एकाग्रता ऐसी कि मानो पूरे परीक्षा कक्ष में कोई और है ही नहीं। बस मस्तिष्क में उत्तर निरंतर स्पष्ट होता जा रहे थे और कलम मशीन की तरह मोतियों जैसे अक्षरों में उसे उत्तर पुस्तिका पर लिखे जा रही थी कि “ऐ लड़के! खड़े हो जाओ।” एक रोबदार अपरिचित और कठोर स्वर से उसका ध्यान बँटा पर अगले ही पल वह उसको अनसुना कर फिर लिखने लगा। उसने सोचा उसे भला कोई क्यों रोकेगा? लेकिन अगले ही क्षण “रोल नं. 21235 तुम्हीं से कह रहा हूँ।” किसी अन्य विद्यालय से आए पर्यवेक्षक का भारी हाथ उसके कंधे पर गिरा, लिखते-लिखते वाक्य भी पूरा नहीं हुआ और उसकी उत्तर पुस्तिका छीन ली गई।

“क्यों? मेरा प्रश्नपत्र अभी बहुत बाकी है। अभी तो समय भी पूरे आधा घंटा बचा है।” आश्चर्य, विनम्रता और विरोध का मिला-जुला भाव था उसकी इस प्रार्थना में लेकिन उत्तर और घबराने वाला ही मिला “अपनी टेबल के नीचे देखो।”

उसने देखा उसकी मेज और कुर्सी के नीचे कागज के चार गोले पड़े थे। “ये मेरे नहीं है।” स्पष्ट प्रतिरोध किया उसने।

“किसके हैं यह केंद्राध्यक्ष के सामने तय करते हैं, आओ मेरे साथ।” उसकी उत्तर पुस्तिका और प्रवेश पत्र के साथ वे उन गोलों को उठाकर कक्ष के बाहर जाने लगे और सत्येन्द्र को विवश होकर उनके पीछे चल पड़ा।

केन्द्राध्यक्ष ने त्योंरियाँ चढा़ कर पूछा “नकल कर रहे थे?”

“मैंने कभी नकल करने का सोचा तक भी नहीं। नहीं। ये गोले मेरे नहीं है।”

केन्द्राध्यक्ष ने एक गोला खोलकर पढ़ा “विषय तो आज का ही है और मिले भी तुम्हारी मेज से हैं। क्यों?” उन्होंने  पर्यवेक्षक की ओर देखा।

“जी, बिलकुल।” पर्ववेक्षक को अपनी सतर्कता का लोहा मनवाना था।

“मैं झूठ नहीं बोलता मेरे साथियों मेरे अध्यापकों से पूछ लीजिए। ये किसी ओर के होंगे। किसके हैं मैं नहीं जानता।”

“तो क्या हम झूठ बोल रहे हैं? हमारी दुश्मनी है तुमसे?” पर्यवेक्षक कठोरता से कह रहे थे “या ये तुम्हारी मेज से नहीं मिले?”

“जी, वहीं पड़े थे।”

“क्या आज के विषय के नहीं हैं?”

“मैंने पढ़े नहीं, मुझे क्या मालूम?”

“लो पढ़ लो।” एक गोले के सलवटों भरे कागज को मेज पर रख दिया। सत्येंद्र ने बिना उठाए ही थोड़ा पढ़ा फिर बोला “विषय आज का ही है पर पर्ची मेरी नहीं है।”

“तुम्हारे कहने से मान लें, तुम्हारी नहीं हैं? और ये बेचारे घूम घूम कर देख रहे हैं ये झूठे हैं क्या?” केंद्राध्यक्ष ने कहा।

“यह मेरी लिखावट ही नहीं है?”

“तुमने कभी लिखा होता तो नकल ही क्यों करते? लिखावट तुम्हारी न होने से तुम छूट नहीं सकते।”

“मैं विश्वासपूर्वक कहता हूँ कि इन पर्चियों में से मेरी उत्तर पुस्तिका में कुछ भी लिखा हुआ नहीं मिलेगा?”

“बड़ा खतरनाक दावा कर रहे हो, तुम्हारे आज के प्रश्नपत्र से संबधित पर्चियाँ हैं, तुम्हारी न भी हुई तो कुछ तो मेल खा ही सकता है।”

“नहीं, अभी आपने जो पर्ची बताई है वह किताब की नकल है। मैं रटे रटाए किताबी उत्तर नहीं लिखता, आप मेरी उत्तर पुस्तिका देख लें।”

केन्द्राध्यक्ष उसके आत्मविश्वास से अप्रभावित न रह सके पर पर्यवेक्षक को पासा पलटता दिख रहा था। वे बोले “बड़े ढीट हो। चोरी की चोरी ऊपर से सीनाजोरी। तुम्हें कैसे मालूम पर्ची में क्या है? पर्ची तो तुम्हारी नहीं है न, कि तुम्हारी ही है?”

केन्द्राध्यक्ष मुस्कुरा उठे पर्यवेक्षक के पैंतरे पर। उन्होंने प्रश्नात्मक दृष्टि से सत्येंद्र को देखा।

“आपने मुझे अभी दिखाई थी एक पर्ची वह किताब की नकल है। मैंने किताब पढ़ी है, कई बार पढी़ है आचार्य जी!”

“आचार्य जी? तुम सरस्वती शिशु मंदिर के हो? पर वहाँ के बच्चे तो ऐसे मुँहजोर नहीं होते! झूठे और नकलची भी नहीं।” केन्द्राध्यक्ष का भतीजा भी शिशुमंदिर में पढ़ता था इसलिए वे चकित थे।

“मैंने न नकल की है न मुँहजोरी कर रहा हूँ। विनम्रता से अपना पक्ष रखना मेरे भविष्य के लिए आवश्यक है वही कर रहा हूँ।”

परीक्षा का निर्धारित समय समाप्त हो चुका था। तभी एक छात्रा साधना ने अनुमति लेकर प्रवेश किया।

“नमस्ते आचार्य जी! सत्येंद्र मेरे ही विद्यालय का मेरी ही कक्षा का भैया है। हमारे विद्यालय का सबसे श्रेष्ठ छात्र। यह नकल कर ही नहीं सकता। नकल से कोई प्रावीण्य सूची में आ सकता है क्या? “उसने विनम्र पर दृढ़ शब्दों में कहा। पर्यवेक्षक उसे रोकना चाह रहे थे पर केन्द्राध्यक्ष ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया और छात्रा से पूछा “अच्छा तो ये पर्चियाँ किसकी हैं?”

“वो .. वो ..आचार्य जी इसकी नहीं हैं।” वह संकोच से बोली।

“फिर तुम्हारी होंगी।” प्रश्न दागा।

“नहीं मेरी भी नहीं है हम सरस्वती विद्या मंदिर के बच्चे नकल नहीं करते।” पलभर को डगमगाई निर्भयता पुनः लौट आई थी।

“फिर किसकी हैं, यह भी बता दो।”

“सत्येंद्र के पीछे की तीसरी बैंच पर बैठे लड़के की।”

“तुम्हें कैसे मालूम?”

“वह मेरे पास की बैंच पर बैठा था।”

“उसका नाम?”

“नहीं पता।”

“रोल नं.?”

“मेरे पास वाला।”

तब तक उत्तर पुस्तिकाएँ आ गईं थीं। बताई गई उत्तर पुस्तिका का पर्चियों की लिखावट और लिखे हुए से पूरा मिलान हो गया था। अब परीक्षा तो हो चुकी थी प्रकरण कैसे बनता? पर सत्येंद्र सही सिद्ध हो चुका था।

“हमसे गलती हुई बेटा!”

“पर आचार्य जी! मेरा एक प्रश्न तो छूट गया उत्तर देने से।” सत्येंद्र का स्वर भीगा हुआ था।

“मैं तुम्हें अतिरिक्त समय देता हूँ। यहीं बैठकर लिख लो।”

“पर नियमानुसार ..” पर्यवेक्षक का ढीला-सा विरोध हुआ।

“वह मैं देख लूँगा।” केन्द्राध्यक्ष बोले।

केन्द्राध्यक्ष ने देखा इतने विवाद के बाद भी सत्येंद्र तो ऐसी एकाग्रता से उत्तर लिखने में डूबा था जैसे कुछ हुआ ही न हो।

केन्द्राध्यक्ष अपना और उनके बहुत पहले सत्येंद्र अपना काम करके घर चल दिए। साधना पहले ही जा चुकी थी।

लगभग एक माह बीत गया। ‘आठवीं बोर्ड में सरस्वती का सत्येंद्र 98% अंकों के साथ प्रथम स्थान पर।’ समाचार पत्र का शीर्षक समाचार था। उसी विद्यालय की साधना ने पाए 97% प्रावीण्य में द्वितीय स्थान नीचे का उपशीर्षक था।

केन्द्राध्यक्ष ने पड़ौस में ही रहने वाले उस दिन वाले पर्यवेक्षक महोदय को फोन किया। “समाचार पढ़ा आपने?”

“मैं लज्जित हूँ सर!” उधर से उत्तर मिला।

“लज्जित मत होइए, आइए बच्चों को बधाई देनें चलें।” केन्द्राध्यक्ष बोले। रास्ते से मिठाई लेकर वे सरस्वती विद्या मंदिर पहुँचे। अनेक बच्चों ने उन्हें पहचान लिया और चरण स्पर्श करने लगे। सबने मुँह मीठा किया।

लौटते समय पर्यवेक्षक बोले “सर! मेरे साथ चल सकेंगे एक मित्र के घर? रास्ते में ही है।”

“मुझे क्यों चलना है भाई!” उन्होंने पूछा।

“आवश्यक है सर! उस दिन वे पर्चियाँ जिसकी थीं मुझे तब तो पता न था पर बाद में पता लगा वह मेरे ही एक मित्र का पुत्र था। पूरक मिली है उसे।”

“तो मुझे क्या करना है उससे मिलकर? आप ही पूछिए एक होनहार छात्र के भविष्य से क्यों खिलवाड़ किया था उसने?”

“चलिए न सर! रास्ते मैं बताता हूँ।” वे अनुरोध कर रहे थे। गाड़ी चल पड़ी। पर्यवेक्षक जी ने बताना आरंभ किया। “पहले प्रश्नपत्र में ही उसने इस लड़की से नकल करवाने को कहा था। लड़की ने स्पष्ट मना कर दिया। उस दिन परीक्षा खत्म होते ही बाहर वह लड़का साधना को गंदी गंदी बातें सुनाकर परेशान करने लगा। उसने जैसे ही साधना का रास्ता रोक कर उसका हाथ पकड़ना चाहा, पीछे आ रहे इस सत्येंद्र ने ऐसा थप्पड़ जड़ा कि वह चक्कर खाकर गिर पड़ा। सत्येंद्र और साधना तो शांत होकर आगे बढ़ने लगे, पर यह गाली देते हुए चिल्लाया “क्या लगती है बे ये तेरी ?” वह अपना बेल्ट निकाल कर लहरा रहा था।

सत्येंद्र पलटा “बहन है मेरी। हर रक्षाबंधन पर विद्यालय में राखी बँधवाता हूँ इससे समझा?” इसका बेल्ट सत्येंद्र को छूता तब तक तो सत्येंद्र ने ही वह बेल्ट हाथों में लपेटकर झटका दिया तो ये महाशय फिर जमीन पर। खिसियाए से चिल्लाए “देख लूँगा तुझे तो?” सत्येंद्र और साधना तो सामान्य भाव से बिना उत्तेजित हुए चले गए पर इस दुष्ट ने उस दिन परीक्षा में ऐसे देखा सत्येंद्र को।” पर्यवेक्षक जी एक साँस में सारी घटना बता गए जो उन्हें बाकी छात्रों ने बाद में सुना दी थी।

“अच्छा! तो यह बात है पर यह तो बताओ अभी वहाँ क्यों ले जा रहे हो?”

“सर! मैं चाहता हूँ उसका भी स्कूल बदल दूँ। आपको बात करनी होगी सर!”

“कहाँ डालना है?”

“वहीं जहाँ रोज गवाते हैं ‘साहस शील हृदय में भर दे, संयम सत्य स्नेह का वर दे।’ सर वे गवाते ही नहीं सिखाते भी हैं हमने सत्येंद्र और साधना को देखा है सर!”

“तो उसे पूरक में उत्तीर्ण करवाओ फिर अच्छी तैयारी करवाओ और सरस्वती विद्या मंदिर के स्तर योग्य तैयारी करवाओ।”

“सर! वह तो मैं जानता हूँ वहाँ सिफारिश या डोनेशन देकर तो प्रवेश मिलेगा नहीं।”

“फिर क्या है?”

“सर! वह हिंदुओं का स्कूल है और यह लड़का तो मुसल…।”

केन्द्राध्यक्ष जोर से हँस पड़े “वह भारतीयों का स्कूल है किसी भी मजहब, जाति, संप्रदाय या वर्ग के लोग जो भारतीय होने का विश्वास रखते हैं भारत माता को मानते हैं सब हिंदू ही हैं और वहाँ भर्ती भी हो सकते हैं। उस विद्यालय का लक्ष्य है भारत को जग सिरमोर बनाने का, कुछ लोगों का भारत नहीं। बस सारे लोग भारतीय हो जाएँ केवल मतदाता परिचय या आधार कार्ड पर नहीं मन से, मत से, भारतीय सनातन संस्कृति के आधार पर।”

“सच में सर!!”

“मेरा भतीजा भी पढ़ता है शिशु मंदिर में ही यहाँ नहीं दूसरे नगर में।”

“मैं समझ गया सर! यहाँ कैसे बनते हैं लव-कुश ध्रुव प्रह्लाद और सीता सावित्री दुर्गा। ये केवल हिंदूधर्म के देवी देवता और चरित्र नहीं अच्छे भारतीय के लक्षण बताने वाले प्रतीक हैं आदर्श हैं।”

“अच्छा, तो अब करें भारत माता की जय।” केन्द्राध्यक्ष भेंट पूर्ण करने के मन्तव्य से बोले।

“भारत माता की जय सर! भारतमाता की जय।” पर्यवेक्षक विभोर हो हाथ जोड़ रहे थे।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

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