भारतीय शिक्षा की सनातन दृष्टि

 ✍ शिरोमणि दुबे

कोई भी देश बदलाव-विकास के रास्ते पर सरपट दौड़ता है जब उस देश की शिक्षा व्यवस्था में उस देश के साहित्य में युवाओं को संभालने-संवारने के बीज निहित होते हैं। आज शिक्षा के क्षेत्र में जो चुनौतियाँ दिखाई देती हैं उनको भी आमंत्रण हमने ही दिया है। यदि 15 अगस्त 1947 को देश ने गरजकर बोल दिया होता कि नर्सरी से सर्जरी तक तथा ओलम से अनुसंधान तक परायी भाषा के चलन को समाप्त किया जाता है। मीर कासिम से लेकर जिन्ना जैसे लीगियों का झूठ की बुनियाद पर गढे़ गये इतिहास के पाठों को हटाने का फरमान सुना दिया होता तो देश का चित्र और चरित्र बहुत उजला होता बहुत चमकदार होता। हमने संकल्प लिया है कि वर्तमान में अभारतीयता को मस्तिष्क में ठूंस-ठूंस कर भरने वाले शिक्षा के ढर्रे में आंशिक नहीं आमूलचूल परिवर्तन किया जायेगा और शिक्षा का ऐसा स्वदेशी प्रादर्श-प्रतिमान खड़ा करेंगे जिसके द्वारा ऐसी युवा पीढ़ी का निर्माण हो सके जो आत्म विकास तथा विश्व मानवता के कल्याण में अपनी सार्थक भूमिका निभा सके। ऐसे ही विरल, विरले व्यक्तित्वों को गढ़ने का कार्य ही शिक्षा का वास्तविक हेतु है। किसी साहित्यकार ने लिखा है-

है समय नदी की धार कि अक्सर सब बह जाया करते हैं।

है समय बड़ा तूफान प्रबल पर्वत भी झुक जाया करते हैं।।

अक्सर दुनिया के लोग समय में चक्कर खाया करते हैं।

पर कुछ ऐसे भी होते जो इतिहास बनाया करते हैं।।

जीवन का सही अर्थ क्या है? जीवन का अभीष्ट क्या है? जीवन के गहरे गूढ़ रहस्यों को शिक्षा उद्घाटित करती है। शिक्षक कक्षा में प्रश्न उठाते है बताओ! आप में से स्वर्ग कौन-कौन जाना चाहता है? नरेन्द्र को छोड़कर सभी छात्र हाथ खड़ा करते हैं। शिक्षक नरेन्द्र से पूछते है- क्या तुम नर्क में जाना चाहते हो? नरेन्द्र उत्तर देते हैं- गुरूवर! न मैं स्वर्ग में जाना चाहता हूँ और न नर्क में जाना चाहता हूँ, मैं स्वर्ग को धरती पर उतार लाना चाहता हूँ। मेरे जीते जी धरती कैसे स्वर्ग बन सकती है यही सनातन जीवन दृष्टि एवं विवेक दृष्टि निर्माण करना शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य है। राष्ट्र बलिदान मांगता है। राष्ट्र के नवनिर्माण के लिए त्याग करने वाले बलिदानी चाहिए। वही देश दुनिया में टिक सके जिनके नागरिकों का अपने देश के लिए जीने का जज्बा कायम रहा। मैं इतिहास की क्रूर सच्चाई को जरूर उद्घाटित करना चाहता हूँ। जब-जब भारत में सुभद्राएं सो जाया करतीं हैं तब-तब किसी अभिमन्यु को मरना पड़ता हैं, किसी महापुरूष को दुनिया से जाना पड़ता है। इसीलिए कन्हैयालाल सेठिया लिखते है-

किसी के स्वर्ण पर हमने नहीं अधिकार चाहा है।

न सीमा पर हमारे देश ने विस्तार चाहा है।।

पर यह बात कहने में न चूके है न चूकेंगे।

लहू देंगे मगर इस देश की मिट्टी नहीं देंगे।।

भारत इसलिए बड़ा नहीं है कि यहाँ आकाश की ऊँचाई वाला हिमालय है। भारत इसलिए भी महान नहीं है कि यहाँ अतल गहराई वाला सागर है। यहाँ पतित पावनी गंगा बहती है इतना भर नहीं है। भारत इसलिए जगत का सिरमौर नहीं है कि यहाँ दुनिया का सबसे बड़ा जनतन्त्र है। इस सबसे इतर देश महान तब बनता है जब कोई विष्णुगुप्त शिखा में गांठ बांधकर ललकारता है सुनो घनानंद, “शिक्षक साधारण नहीं होता, सृजन और विनाश उसकी गोद में खेलते है।” उसे सत्ता की कोई चाह नहीं होती। कलश-कगूरे नुमा प्रासाद-परकोटे उसकी नियति का हिस्सा नहीं बनते। सदियों से चलती आयी आचार्य परंपरा देश को आश्वासन है, उस अध्यात्म का जिसमें राष्ट्र के चिरंजीवी होने का स्वर अनंतकाल तक सुना जाता रहेगा-

ध्येय की देवी मगन हो बोलती है।

पुण्य के प्रासाद का पट खोलती है।।

त्याग के पथ पर मशालों सा जिया जो।

लेखनी भी जय उसी की बोलती है।।

आचार्य कोई पद नहीं है, पदवी भी नहीं है। वह ओढ़ा हुआ आवरण-अलंकरण भी नहीं है। वह टीचर-मास्टर तो कतई नहीं है। आचार्य उपदेशक भी नहीं है। “आचरति इति आचार्यः” आचरण का नाम आचार्य है। जो अपने जीवन से सिखाता है, वह आचार्य है। हमारे देश में आचार्यों की दो धाराएं प्रचलित रही है। पहली आचार्य द्रौण की परंपरा है जो सिंहासनों से बंधकर साम्राज्यों की चौखट पर नाक रगड़ने के लिए विवशश-परवश दिखाई देती है। दूसरी चाणक्य की परंपरा है जो सत्ता सिंहासनों को ठोकर मारकर सामान्य परिवार में जन्मे चन्द्रगुप्त को मगध का साम्राज्य सौप देती है। अनादिकाल से चलती आयी चाणक्य परंपरा के खरल में कुटे हुए संन्यासी सूरमा देश के लिए अपना सर्वोत्तम न्योछावर करने लिए आतुर दिखाई देते है। समाधियां उन्हीं की महकती है जो समिधा बनकर देश के लिए खर्च हो जाते हैं-

इस अर्पण में कुछ और नहीं केवल उत्सर्ग छलकता है।

मैं दे दूं और न फिर कुछ लूं इतना ही तरल छलकता है।।

महापुरूष पैदा नहीं होते, वे तो आचार्यों-उपाध्यायों के चरणों में बैठकर महामानव बनते हैं। लेकिन देश की विडम्बना यह है कि आज वे आचार्यकुल दिखाई नहीं देते हैं। सृजन के संस्थान सहमें से लगते है। चेतना की शताब्दी का स्वर कहीं गहरे मौन में खो गया प्रतीत होता है। आज विश्वविद्यालयों को एक अदद वशिष्ठ की तलाश हो जो धनुर्धारी राम दे सके। सान्दीपनी कुल की प्यास है जहाँ अध्यात्म के तपोवन का कृष्ण कुरूक्षेत्र में अर्जुन को धर्मयुद्ध का पाठ सिखाता है। मेरे मन में एक प्रश्न उमड़ रहा है, कहीं ऐसा न हो कि शिक्षा का राहुकाल पूरे शिक्षा तन्त्र को ही निगल जाये। इसलिए शिक्षा में पसरे पडे़ वामपंथियों तथा विदेशी बिरादरियों से गलबहियां करने वाले कथित सैक्युलर ईकोसिस्टम को ध्वस्त करना होगा। अन्यथा-

निकले थे कहां जाने के लिए पहुँचे हैं कहां मालूम नहीं।

अब अपने भटकते कदमों को मंजिल का निशां मालूम नहीं।।

समय कम है, कार्य बहुत बड़ा है। चुनौतियां स्वीकार करने से ही जीवन पुष्प महकता है तथा सदियां भी उसी का गुणगान करती हैं जो समाज का जीवनपंथ बुहारनें में खुद को खपा देते हैं। अन्यथा कविवर नीरज बार-बार याद आयेंगे-

जो लूट ले कहार दुल्हन की पालकी।

हालात यही है आज कल हिन्दुस्थान की।

कारवां गुजर गया गुवार देखते रहे।

हम खड़े-खडे़ बहार देखते रहे।

उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।।

अन्ततः अंतर्मन की गहराई से आप से बात करना चाहता हूँ। आज भी माँ की आंखां में आंसू है। एक वक्त था जब माँ हाथ में प्लेट लेकर घूमती थी, मेरा छोरा खाता नहीं है। अब स्थितियां बदल गई है, मेरा बेटा खिलाता नहीं है। ये स्थितियां स्पष्ट संकेत दे रही है कि हमारे समाज में करूणा का स्त्रोत कहीं सूखता जा रहा है। भारतीय दर्शन में मातृदेवो भवः, पितृदेवो भवः, अतिथिदेवो भवः की परंपरा रही है। हम घर के बाहर अपने मित्रों से खूब बतियाते है, घण्टों बातें करते है। लेकिन जब घर में आते है माँ इंतजार कर रही होती है। मेरा बेटा ऑफिस से आया है, बाजार से आया है, दुकान से आया है। मेरे पास बैठेगा, मुझसे बात करेगा। बेटा घर में आता तो है लेकिन स्नान करता है, टी. वी. देखते हुए भोजन करता है और बेडरूम में चला जाता है। माँ सोचती है कि बेटा थक गया होगा। कल ऑफिस से आने के बाद मेरे पास आयेगा। लेकिन माँ के इंतजार की घड़ियां कभी समाप्त नहीं होती, क्योंकि बेटे के पास वक्त नहीं है। वास्तव में ये हमारे देश के संस्कार नहीं है। हमारे देश की संस्कृति भी नहीं है।

जिन परिसरों में, विश्वविद्यालयों में ‘स्व’ का संगीत बजना चाहिए, आज भी वहां पर आजादी-आजादी के नारे लगते हैं। ए.एम.यू. से जे.एन.यू. तक “अफजल हम शर्मिदा है, तेरे कातिल जिन्दा है” जैसे श्लोगन सुनाई देते है। तब किसी साहित्यकार की पीड़ा बरबस छलक जाती है-

लेखनी के पास हस्ताक्षर नहीं है।

यक्ष प्रश्नों के उत्तर नहीं है।

अग्निगर्भा कोख बंध्या लग रही है।

अक्षरों के बंश में दिनकर नहीं है।।

बंधुओं, आज देश को ऐसे ही दिनकरों की तलाश है। तो घटाटोप अधियारों में उजाला बिखेर सकें।

(लेखक विद्या भारती मध्यभारत प्रान्त के प्रदेश सचिव है।)

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