कोविड पश्चात् शिक्षा – विद्यालय व अभिभावकों की भूमिका

 – विजय नड्डा

विद्यालय प्रारम्भ होते ही सुनसान पड़े विद्यालय परिसर बच्चों की किलकारियों से फिर से गूंजने लगे हैं। विद्यालय प्रारम्भ होने से बच्चों, अभिभावकों तथा विद्यालयों ने राहत की सांस ली है। ज्ञात इतिहास में शायद ही ऐसा कोई कालखंड रहा हो जब दो वर्ष तक शिक्षा का औपचारिक प्रवाह रुका हो। बच्चे घरों की चारदीवारी में सहमे से स्वयं को कैद अनुभव करते थे। बदली हुई परिस्थिति से बच्चे सबसे जल्दी सामंजस्य बैठा लेते हैं इसलिए उन्होंने तो अपनी दुनिया घर व गलियों में बसा ली थी। बच्चों के भविष्य को लेकर अभिभावकों की चिंता तथा विद्यालयों प्रबंधन की परेशानी चरम पर थी। गैरसरकारी विद्यालयों में सेवारत आचार्य व अन्य कर्मचारी अपनी जीविका पर मंडराए संकट से घबरा कर धैर्य खो रहे थे। देर से ही सही लेकिन सब कुछ सामान्य होने पर सब ने राहत की सांस ली है। बच्चों के शोर शराबे तथा बेमतलब की भागदौड़ से सभी के चेहरे पर मुस्कराहट देखी जा सकती है।

लर्निंग गैप्स को करना होगा कवर

दो वर्ष तक औपचारिक पढ़ाई का रूक जाना अपने आप में एक बड़ी घटना है। ऐसे में सबसे ज्यादा प्रभावित नन्हें-मुन्ने बच्चों की पढ़ाई हुई है। वैसे तो ऊपर से सब कुछ सामान्य दिखता है, कक्षाकक्ष की पढ़ाई भी शुरू हो गई है लेकिन शिक्षाविद बच्चों में आए लर्निंग गेप के कारण हुए लर्निंग लॉस को लेकर चिंतिंत हैं। इस चिंता को वे लोग ही समझ पा रहे हैं जिन्होंने शिक्षा को पूजा या साधना माना है। विद्या भारती के अधिकारी व आचार्य लगभग एक  वर्ष से इस विषय पर कार्य कर रहे हैं। लर्निंग गेप को कवर करने के लिए प्रत्येक विषय के कक्षानुसार ब्रिज कोर्स बनाए जा रहे हैं। विद्या भारती के विद्यालयों में अवकाश में विशेष कक्षाओं तथा शेष समय में अतिरिक्त कक्षाओं की योजना की जा रही है। लर्निंग गेप को कवर करना अत्यंत आवश्यक है। यह नहीं हो पाने पर बच्चे के जीवन में यह लॉस हमेशा कमी बन कर दस्तक देता रहेगा।

ऑनलाइन शिक्षा को रखना होगा साथ

आपदा अवसर लेकर भी आती है। कम से कम शिक्षा जगत ने तो इस कहावत को ‘मनसा-वाचा-कर्मणा’ चरितार्थ किया है। कल तक ईमेल देखने व करने में असहाय हमारे आचार्य अब आत्मविश्वास पूर्वक ऑनलाइन कक्षाओं का प्रभावी ढंग से संचालन कर रहे हैं। कोविड संकट के कारण ही सही लेकिन आभासी दुनिया में शिक्षकों के प्रवेश ने स्वयं उनके विकास की अनन्त संभावनाएं खोल दी हैं। कोविड से पूर्व बहुत सारे शिक्षक स्वयं को डिजिटली अशिक्षित मानते थे। वे अपने फोन पर कुछ करने के लिए अपने छात्रों पर पूर्णतः निर्भर से थे। बच्चे घर में माता-पिता तथा विद्यालय में आचार्यों की इस बेबसी का खूब आनंद लेते थे। कोविड की इस आपदा में आचार्यों को डिजिटली साक्षर किया है। आवश्यकता है कि औपचारिक शिक्षा प्रारम्भ हो जाने पर भी शिक्षक ऑनलाइन शिक्षा का दामन न छोड़ें। आचार्य व छात्रों को समझना होगा कि गूगल गुरु का विकल्प नहीं हो सकता है लेकिन गूगल व गुरू की जुगलबंदी गुरू को शक्तिशाली अवश्य बना सकती है।

कोविड पश्चात छात्र मन को भी समझना होगा

कोविड के पश्चात शिक्षा प्रारम्भ होने पर अधिकांश विद्यालय व अभिभावक पढ़ाई को लेकर बच्चों पर पिल गए हैं। सबको लग रहा है कि दो वर्षों की सारी पढ़ाई छः महीनों में ही छात्रों पर उड़ेल दें। इस सारी परिस्थिति में सबको समझना होगा कि जब तक छात्र स्वयं पढ़ने की आवश्यकता अनुभव नहीं करेगा तब तक सबके प्रयास न केवल विफल होंगे बल्कि छात्र के मन मे आक्रोश, गुस्सा व निराशा बढ़ा कर समस्या को और गम्भीर बना देंगे। स्थिति कमोवेश ऐसी ही बन जाएगी- मर्ज बढ़ता ही गया ज्यूँ ज्यूँ दवा की…। पढ़ाई का आग्रह बढ़ाने से पहले बच्चे के मन को सहज करना होगा। इस परिस्थिति में आचार्यों व अभिभावकों को धैर्य व कुशलता से काम लेना होगा। प्यार, दुलार तथा तकनीकी कुशलता को माध्यम बनाना होगा। विद्यालयों को बड़े स्तर पर खेलों व सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करना होगा। प्रतिदिन खेल का कालांश तथा जहां खेल के मैदान नहीं है वहां योग कक्षा तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों की मात्रा बढ़ानी होगी। पढ़ाई से भी पहले छात्र के चेहरे पर हंसी लाना सबकी प्राथमिकता होनी चाहिए। शिक्षाविदों के इस निष्कर्ष को आचार्य, अभिभावकों तथा विद्यलयों को समझना होगा कि प्रसन्न मन से छात्र शीघ्र सीखता तथा याद रखता है।

विद्यालय पर श्रद्धा व विश्वास बनाना आवश्यक

कोविड के इन तीन वर्षों ने रिश्तों को भी आइना दिखाया है। मानव जाति पर आए उस भयंकर संकट में जहां एक ओर अनजान लोगों ने मदद का हाथ बढ़ाया है वहीं बहुत जगह अपने भी मुंह मोड़ते देखे गए हैं। कोविड के भयंकर दौर में लोग केवल ऑक्सीजन के लिए भाग दौड़ करते नहीं दिखे बल्कि अनेक जगह पर मानवता खुद भी वेंटिलेटर पर देखी गई है। बहुत जगह विद्यालयों के प्रति अभिभावकों का रवैया चिंताजनक दिखाई दिया। जो संस्था हमारे बालकों के जीवन को आकार देती है उसके प्रति बच्चों के मन में श्रद्धा व विश्वास पैदा करना अत्यंत आवश्यक है। विद्यालय व छात्र के रिश्ते को बाजार के नजरिये से नहीं देखा जाना चाहिए। छात्र के मन में विद्यालय व आचार्यों के प्रति श्रद्धा निर्माण करना आज की प्रथम आवश्यकता है। ध्यान रखें! आज विद्यालय के प्रति बच्चे के मन में श्रद्धा कम हुई तो कल हमारा नम्बर लगना निश्चित है। अनेक गैरसरकारी विद्यालयों में शिक्षकों को आंशिक वेतन ही मिला है। सरकार ने भी शिक्षकों का हाथ पकड़ने के बजाए एक प्रकार से अभिभावकों को फीस न देने के लिए ही उकसाया है। कोविड की इस त्रासदी में सरकार ने समाज के लगभग सब वर्गों की सहायता की, पैकेज दिए लेकिन गैरसरकारी विद्यालय, उन में सेवारत लाखों आचार्य व अन्य स्टाफ उपेक्षित हो गए। शिक्षा जगत के लिए सरकार का रवैया ‘हुए तुम दोस्त जिनके दुश्मन की उन्हें जरूरत क्या’, जैसा रहा। ऐसे में समाज को अपने आचार्य परिवार की चिंता करनी होगी। अभिभावकों को अन्य आवश्यक खर्चों की श्रेणी में डाल कर पिछली फीस स्वयं हो कर जमा करानी चाहिए।  याद रखें! हंसता, मुस्कराता व प्रसन्न आचार्य ही पूरे मनोयोग से हमारे बच्चे के जीवन को संवार सकता है।

(लेखक विद्या भारती उत्तर क्षेत्र के संगठन मंत्री है।)

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