शिक्षा के मॉडल में आमूलचूल परिवर्तन का सही समय : कोरोना पूर्व एवं पश्चात्

 – डॉ० विकास दवे

इस समय संपूर्ण विश्व कोरोना के संकट काल से गुजर रहा है। इस विषाणु ने पूरी दुनिया को एक बार फिर से सोचने पर मजबूर कर दिया है। प्रत्येक शास्त्र में विगत ऐतिहासिक अध्ययन को कालों में विभाजित करके पढ़ने की एक सुव्यवस्था हमारे विद्वान पूर्वजों ने बनाई हुई है। पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगता है कि कोरोना वायरस संकटकाल प्रत्येक शास्त्र के काल विभाजन में एक मील का पत्थर साबित होने वाला है। हम जब इतिहास पढ़ते हैं तो उसमें जिस प्रकार मौर्य काल, गुप्त काल, मुगल काल आदि का अध्ययन हम सब करते हैं उसी प्रकार राजनीति शास्त्र या दर्शनशास्त्र में भी अरस्तु आदि के काल की गणना हम सब लोग करते आए हैं। जब हम काल गणना करते हैं तो भी अंग्रेजी कालगणना में ईसा पूर्व और ईसा पश्चात् जैसे शब्द हम सब सहज रूप से उपयोग करते चले आए हैं। संभवतः आने वाले समय में भावी पीढ़ियां इन सभी शास्त्रों का अध्ययन करते समय जिस काल की चर्चा करेगी उनमें कोरोना पूर्व काल और कोरोना पश्चात् काल जैसे शब्दों का उल्लेख हो तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए।

चूंकि कोरोना वायरस विश्व को एक बार फिर यह विमर्श करने पर बाध्य कर रहा है कि मनुष्य को प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाते हुए कैसे अपनी आवश्यकताओं को सीमित करके और भौतिक दूरियां बनाए रखते हुए अपने समस्त कामों को संपन्न करना है। मेरे इस आलेख के विमर्श का मूल विषय शिक्षा है।

कोरोना संक्रमण के आक्रमण के पश्चात् सर्वाधिक प्रभावित बचपन हो रहा है। विशेषकर आज की बच्चों की पीढ़ी ने पहली बार यह सब देखा होगा कि चलती परीक्षाएं रोक दी गई, शेष बचे हुए प्रश्नपत्र निरस्त हो गए और विद्यालयों को ताले लगाकर बंद कर दिया गया। बच्चे आज यह समझ नहीं पा रहे कि कहां तो वे अपने विद्यालय में खूब जगह होने के बाद भी एक ही बेंच पर 3-3 के बजाय जानबूझकर 4-4 मित्र एक साथ बैठकर मस्तियां कर रहे होते थे किंतु अब उन्हें यह कहा जा रहा है एक टेबल पर एक ही विद्यार्थी अथवा अधिकतम दो विद्यार्थी ही बैठ सकेंगे और वह भी भौतिक दूरी बनाए रखते हुए।

अध्ययन अध्यापन में सर्वाधिक महत्व का विषय होता है शिक्षकों से प्रत्यक्ष मार्गदर्शन प्राप्त होना और उसमें भी भारतीय शिक्षा पद्धति के मनीषी गण बताते हैं कि जब तक गुरु का स्नेहिल स्पर्श विद्यार्थी अपने मस्तक पर नहीं प्राप्त करता तब तक विद्या अध्ययन सहज रूप से संभव ही नहीं हो पाता, ऐसे में भौतिक दूरी जैसा यह शब्द आज के विद्यार्थियों को अपने मित्रों, अपने गुरुओं सबसे दूर करता-सा प्रतीत हो रहा होगा।

इस समय शिक्षा क्षेत्र में काम करने वाले सभी मनीषियों को इस विषय पर अत्यंत संवेदनशीलता से विचार करना चाहिए कि वर्षानुवर्ष से हम जिस भारतीय शिक्षा पद्धति का गुणगान करते चले आ रहे हैं क्या उसके मूल स्वरूप में से थोड़ा-सा अंश भी इस कोरोना काल में मूर्त रूप में विद्यालयों में उतारा जा सकता है क्या? अंग्रेजी शिक्षा पद्धति में भारतवर्ष को राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हो जाने के बाद भी मानसिक रूप से एक लंबी गुलामी के दौर में धकेल दिया है। इस समय अंग्रेजों को कोसते रहने के स्थान पर भारतीय शिक्षा पद्धति के सकारात्मक पक्ष को शिक्षण पद्धति का भाग बनाया जाना अत्यंत आवश्यक लग रहा है।

इस समय भारत के अधिकांश बड़े, छोटे और मध्यम वर्ग के विद्यालय अपने बच्चों को एजुकेशन के नाम पर ज़ूम ऐप डाउनलोड करवा कर ई-क्लासेस लगा रहे हैं। कहां तो बच्चों को हमने बार-बार मोबाइल जैसे राक्षस से दूर रहने के लिए प्रेरित किया और कहां केजी से लेकर पीजी तक के विद्यार्थी मोबाइल की चार बाय चार इंच की स्क्रीन में अपनी मोटी मोटी पुस्तकें पढ़ रहे दिखाई देते हैं। क्या हमने कभी यह समझने का प्रयास किया है कि यह विद्यार्थी मोबाइल स्क्रीन की कक्षा में होने के साथ-साथ अपने घर के पारिवारिक वातावरण का भी हिस्सा बने हुए हैं । मैंने तो कई बच्चों को इस प्रकार की कक्षाओं में ऊबकर उबासियां खाते हुए और पारिवारिक व्यवधान पर झुंझलाते भी देखा है। क्या हम इन विद्यार्थियों के लिए कुछ नए प्रयोग नहीं सोच सकते? यदि मोबाइल का उपयोग करना ही है तो हम बच्चों को केवल कुछ सामग्री देने और उनके उत्तर प्राप्त करने तक ही सीमित करके अधिक से अधिक समय उन्हें पढ़ने और समझने के लिए देने का प्रयास कर सकते हैं क्या? जिसे हम लर्निंग प्रोसेस कहते हैं वह प्रक्रिया उबाऊ नहीं बल्कि आनंददायक होनी चाहिए।

इस दृष्टि से महाराष्ट्र के एक प्रख्यात शिक्षाविद और मनोविज्ञान के चिकित्सक का प्रसंग मुझे याद आ रहा है। उन्होंने शिक्षकों के प्रशिक्षण में एक बड़ा अच्छा प्रयोग किया। उन्होंने अपना मोबाइल निकाल कर शिक्षकों की ओर करते हुए कहा कि मैं एक पुरानी फिल्म का बहुत मधुर गीत चला रहा हूं आप सब इस का आनंद लीजिए। सभी शिक्षकों ने झूमते हुए उस गीत का आनंद लिया। बाद में उन्हीं प्रशिक्षक ने सभी शिक्षकों से कहा कि मैं आप सब से इस गीत के पूरे होने के बाद कुछ प्रश्न करने वाला यह प्रश्न इस गीत के शब्दों, इसके मुखड़े, इसके अंतरे आदि के विषय में हो सकते हैं । आप एक बार फिर से इस गीत को सुनें। सभी शिक्षकों ने उस गीत को पुनः सुना। मोबाइल को नीचे रखते हुए उन मनोविज्ञान के जानकार प्रशिक्षक ने शिक्षकों से पूछा आपने दूसरी बार गीत सुनते हुए मन में क्या अनुभव किया? शिक्षकों ने कहा हम तनाव में थे क्योंकि उसके प्रत्येक शब्द के आधार पर कोई प्रश्न हमसे पूछा जा सकता है।  हम अत्यंत सतर्क रहकर सुनने के बाद भी इस तनाव के कारण उस गीत के शब्दों को संगीत को और भाव को ठीक प्रकार से ग्रहण नहीं कर पा रहे थे। जबकि पहली बार सुनने पर भले ही हमने उसमें से कुछ याद न रखा किंतु आनंद की प्राप्ति अत्यधिक हुई। मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षक ने कहा मैं भी यही चाहता हूं कि आप सब शिक्षक बनकर बच्चों को अनावश्यक तनाव ना दें। बल्कि अपनी कक्षा में बच्चा संपूर्ण विषय को पढ़ते हुए आनंद की अनुभूति करे। 

प्रसंग भले ही कोई भी अर्थ दे सकता है किंतु आज बच्चों को इस आनंद मूलक अध्ययन-अध्यापन से हमने दूर कर दिया है। क्या ही अच्छा होता कि सारे विद्यालय मिलकर बच्चों को केवल इतना संदेश देते कि आप इस समय अपने घरों में रहकर रामायण, महाभारत, चाणक्य और उपनिषद गंगा जैसे श्रेष्ठतम धारावाहिक देखें और उनके आधार पर अपने परिवार से चर्चाएं करें। हम आपको इन चारों धारावाहिकों के आधार पर कुछ प्रश्न मोबाइल पर भेजेंगे आपको उनके वैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर को इंगित करना होगा।

मुझे लगता है यदि यह लर्निंग प्रोसेस भारत के 80% विद्यार्थियों के साथ भी मूर्त रूप ले लेती तो हमारे यह सभी विद्यार्थी न केवल अपने देश की मिट्टी के साथ जुड़ते बल्कि अपनी संस्कृति के प्रति उनके मन में अगाध श्रद्धा भी पैदा होती। क्या आवश्यक है कि हम बच्चों को बने बनाए पाठ्यक्रम में से आने वाले वर्ष में बोझिल प्रश्नोत्तरी में उलझायें? क्या बच्चों को सामान्य ज्ञान और जीवन मूल्य प्राप्त करने हेतु आगामी सत्र में इन्हीं चार धारावाहिकों में आई कथाओं के आधार पर अध्यापन करते हुए साहित्य,  भाषा, समाजशास्त्र आदि का अध्ययन नहीं करवाया जा सकता था?

जीवन मूल्यों से जोड़ने वाली नई पीढ़ी के लिए आने वाले समय में शिक्षा जगत को कुछ विशिष्ट तैयारियां करना होगी। यदि शिक्षा जगत के वरेण्य मनीषी आगामी सत्र में अपने पाठ्यक्रमों को आधा करते हुए केवल आधी इकाइयों को दो भागों में बांट कर पढ़ा दे तो भी पर्याप्त अध्ययन हो सकता है। विगत अनेक वर्षों से पूरी 10 इकाइयां रट लेने वाली पीढ़ियां भी अब तक कौन से तीर मार रही हैं? यदि वही पीढ़ियां आगामी सत्र में केवल 5 इकाइयों को वर्ष भर के दो हिस्सों में पढ़ ले और छह माही और वार्षिक परीक्षा के माध्यम पृथक-पृथक उनका मूल्यांकन हो जाए तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा?

यह आवश्यकता इसलिए भी अनुभव हो रही है क्योंकि आने वाले समय में 40 बच्चों की कक्षा में से आपको इवन और ओड तारीखों में 20-20 बच्चे बुलाना पढ़ सकते हैं। उन्हें एक बेंच पर एक विद्यार्थी बैठाते हुए पढ़ाना पड़ सकता है। कोरोना पश्चात् युग में शिक्षा पद्धति में होने वाले परिवर्तनों में क्या हम परीक्षा पद्धति में भी परिवर्तन नहीं ला सकते?

यदि हम बच्चों को तनाव देने वाली परीक्षा के स्थान पर तनावमुक्त रखने वाली परीक्षण पद्धति विकसित करके इस समय लागू कर दें तो संभवतः शिक्षा जगत ही नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ियों के बच्चों पर भी बड़ा उपकार होगा।

आइए तालाबंदी में घरों में बंद हम सब शिक्षा का चिंतन करने वाले नागरिक ऐसे बिंदुओं पर विचार करें जिन्हें प्रायोगिक रूप से मूर्त रूप दिया जा सके।  जिनके कारण हमारी शिक्षा पद्धति में वर्षों से लंबित पड़े अपेक्षित परिवर्तन भी लागू किए जा सकें।

इस दृष्टि से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुषांगिक संगठन विद्या भारती द्वारा लगभग दो दशक से गुजरात से प्रारंभ किया गया एक प्रकल्प ध्यान आता है जिसे नाम दिया गया था “घरेज विद्यालय” अर्थात् घर ही विद्यालय। आज जबकि पूरे देश के विद्यार्थी घर में बैठकर पढ़ रहे हैं क्या भारत के शिक्षा जगत के लोगों को विद्या भारती के इस प्रकल्प का अध्ययन करते हुए इसे पूरे भारत में लागू करने का विचार नहीं बनाना चाहिए? इसी संगठन का “विज्ञान विहार” नामक एक तीन दशक से पुराना प्रकल्प तो मानों 3 इडियट्स फ़िल्म के अंतिम दृश्य का मूर्त रूप है जिसमे बच्चे खेल खेल में विज्ञान पढ़कर नवीन अविष्कार तक करते आ रहे हैं।

आइए संघ द्वारा संचालित देश भर के सरस्वती शिशु मंदिर और विद्या भारती के विद्यालयों में चल रही भारतीय पद्धति की शिक्षा के प्रकल्पों को निकट से अध्ययन करें और उनसे निकलने वाले विद्यार्थियों की गुणवत्ता का भी परीक्षण करें। यदि आप इन प्रयोगों को सफल पाते हैं तो मुझे लगता है कि इन प्रयोगों को बगैर किसी पूर्वाग्रह के संपूर्ण भारत में लागू करने से परहेज नहीं करना चाहिए।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)

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