– प्रशांत पोळ
गुजरात के सोमनाथ मंदिर के बाण-स्तंभ पर एक श्लोक उकेरा हुआ (लिखा हुआ) है – “आसमुद्रांत दक्षिण ध्रुव पर्यंत अबाधित ज्योतिर्मार्ग…!”
[‘इस मंदिर से दक्षिण ध्रुव तक सीधे रास्ते में एक भी बाधा (जमीन) नहीं है। यहां से ज्योति (अर्थात प्रकाश) का मार्ग सीधा वहां तक पहुँच सकता है।]
अर्थात् डेढ़-दो हजार वर्ष पहले भी अपने भारतीयों को दक्षिण ध्रुव के बारे में सटीक जानकारी थी। इसका अर्थ यह भी हुआ कि उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी की प्रदक्षिणा की होगी। अर्थात् इस विश्व की धरती पर भारतीयों के पदचिन्ह निश्चित ही होंगे। आज से एक हजार वर्ष पूर्व विश्व के व्यापार में भारत का 29 से 30 प्रतिशत हिस्सा था, और वह पहले क्रमांक पर स्थित था। स्वाभाविक है कि व्यापार करने वाला व्यक्ति सम्बन्धित क्षेत्र में भले ही छोटी सी क्यों न हो, अपनी एक बसाहट निर्माण करता ही है। जैसे कि भारत में राजस्थान के मारवाड़ी समुदाय ने ठेठ बांग्लादेश से लेकर असम, और दक्षिण भारत तक अनेक स्थानों पर छोटी-छोटी रहवासी बस्तियों का निर्माण किया है।
हालांकि इस प्रकार का, प्राचीन भारतीयों के वैश्विक पदचिन्हों का, कोई स्पष्ट दस्तावेजीकरण दिखाई नहीं देता था। अंबेजोगाई के डॉक्टर शरद हेबालकर ने एक अच्छी पुस्तक लिखी है – ‘भारतीय संस्कृति का विश्व संचार’। लगभग 1980 में लिखी गई इस पुस्तक के बाद अनेक स्थानों पर उत्खनन होने पर नई-नई जानकारी मिली है। इस कारण इस विषय पर बहुत सा शोधकार्य होना आवश्यक है। डॉक्टर रघुवीर ने समूचे विश्व में भारतीय लोगों की उपस्थिति के बारे में भरपूर लेखन कार्य किया है। विशेषकर मंगोलिया पर हिन्दू संस्कृति का प्रभाव यह उनका पसंदीदा विषय रहा है। डॉक्टर चमनलाल की पुस्तक ‘हिन्दू अमेरिका’ भी काफी प्रसिद्ध रही है।
इन सभी पुस्तकों में हिन्दू अथवा भारतीय संस्कृति का वैश्विक प्रवास दिखाई देता है। परन्तु इतिहास का शोध करने के लिए प्रमाण (सबूत) चाहिए होते हैं। ये प्रमाण एकत्रित करने का काम पिछले बीस / पच्चीस वर्षों में बहुत कम हुआ है।
डॉक्टर विष्णु श्रीधर वाकणकर, एक नामचीन पुरातत्ववेत्ता हैं। मध्यप्रदेश में आदिम युग के चिन्हों से युक्त ‘भीमबेटका’ गुफाओं की खोज इन्होंने ही की है। डॉक्टर शरद हेबालकर की पुस्तक में प्रस्तावना लिखते समय वाकणकर जी ने उनके वर्ष 1984 के अमेरिका और मैक्सिको प्रवास का अनुभव लिखा है। इस प्रस्तावना में उन्होंने अमेरिका स्थित सैन दिएगो के पुरातत्व संग्रहालय के अध्यक्ष बेरीफेल का उल्लेख किया है। बेरीफेल महोदय ने मैक्सिको के उत्तर-पश्चिम में स्थित युकाटन राज्य के तावसुको नामक स्थान पर, माया संस्कृति के मंदिरों से प्राप्त ‘वासुलून” नाम के भारतीय महानाविक की भाषा एवं लिपि में लिखे गए सन्देश का उल्लेख किया है। और इसी तथ्य के माध्यम से बेरीफेल ने निर्विवाद रूप से सिद्ध किया है कि आठवीं और नौंवी शताब्दी में वहां भारतीय आते-जाते रहे हैं। दुर्भाग्य से इस ‘वासुलून’ नामक महानाविक के शिलालेख का कोई भी फोटो कहीं भी उपलब्ध नहीं है। अर्थात् वह शिलालेख निश्चित रूप से वहां के संग्रहालय में होना चाहिए, परन्तु किसी ने उस संग्रहालय में जाकर वह फोटो प्रकाशित करने का प्रयास भी नहीं किया। कोई भी सिद्धांत प्रतिपादित करने के लिए ठोस प्रमाण आवश्यक होते हैं। इन्हें एकत्रित करने का बड़ा काम किए जाने की तत्काल आवश्यकता है।
हालांकि अब ऐसे प्रमाण मिलने लगे हैं। भारतीय/हिन्दू/वैदिक ऐसा कोई भी नाम हम दें, तब भी अपनी प्राचीन संस्कृति का अस्तित्त्व समूचे विश्व भर में दिखाई देता है।
भारत की पूर्व दिशा में तो अपनी संस्कृति के काफी अंश आज भी बड़े पैमाने पर देखने को मिल जाते हैं, परन्तु भारत के पश्चिम में, विशेषकर इजिप्त, यूरोप में भी दो-तीन हजार वर्ष पुराने वैदिक संस्कृति के अस्तित्व के प्रमाण विशिष्ट रूप से दिखते हैं।
कुछ वर्ष पूर्व, मध्यकाल के Out of India Theory (OIT), सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया। इस सिद्धांत के अनुसार भारत के कुछ सुसंस्कृत पंथ/जमात/समूह, भिन्न-भिन्न कारणों से यूरोप एवं अफ्रीका में स्थायी रूप से जा बसे। इन्हीं में से एक नाम है, केल्टिक (Celtic) लोगों का।
केल्टिक, यह यूरोप में बोली जाने वाली भाषा है। कई शोधों से ऐसा सिद्ध हो चुका है कि यह भाषा (अथवा भाषा समूह) बोलने वाले लोग, ईसा पूर्व एक हजार वर्ष पहले यूरोप में थे। ईसा पूर्व सातवीं और आठवीं शताब्दी में इनके अस्तित्त्व के बहुत से तथ्य भी मिलते हैं। उस कालखंड में रोमन लोग इन्हें ‘गल्ली’ बोलते थे, जबकि ग्रीक लोग इन्हें ‘केलटेई’ कहते थे। इन दोनों ही शब्दों का अर्थ बार्बेरिक होता है। ईसा पूर्व लगभग चौथी शताब्दी में यह केल्टिक लोग ब्रिटेन के आसपास आए और स्थायी रूप से बस गए। आज भी आयरलैंड, स्कॉटलैंड, वेल्स, कॉर्नवाल, ब्रिटेन के कुछ क्षेत्रों में चार प्रकार की केल्टिक भाषाओं को मातृभाषा के रूप में बोला जाता है।
उन्नीसवीं शताब्दी से पहले इस केल्ट समुदाय को फ्रांसीसी एवं जर्मन मूल के आसपास का माना गया था। परन्तु आगे चलकर उनके मूल स्थान के बारे में अनेक सिद्धांत प्रतिपादित किए गए।
द्रुईस बेलीनोईस आतेग्नातोस (Druuis Belenois Ategnotos) नामक पुरातत्व शोध वैज्ञानिक ने केल्टिक समुदाय, हिन्दू/वैदिक समुदाय का ही एक भाग है, यह प्रतिपादित किया। उनके सिद्धांत के अनुसार केल्टिक लोगों का मूल ‘उत्तर कुरु’ राज्य में स्थित है। उत्तर कुरु अर्थात हिमालय का उत्तर-पश्चिमी भाग। अनेक इतिहास शोधकों के मतानुसार हिमालय के उत्तर में भी पहले वैदिक संस्कृति ही थी। विशेषकर पश्चिम में किर्गिस्तान से लेकर पूर्व में तिब्बत तक एक बड़े विशाल भूभाग में वैदिक संस्कृति अपने चरम पर थी। आगे चलकर बौद्ध धर्म के प्रभाव की वजह से इस समुदाय के कुछ लोगों ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। हालांकि वे लोग वहीं निवासरत रहे। और जिन्होंने वैदिक सनातन परंपरा का त्याग नहीं किया, वे लोग यूरोप की दिशा में स्थानांतरित होते चले गए। यही थे वे ‘केल्टिक’ लोग…!!
आज भी उनकी कथाओं एवं गाथाओं में अनेक प्रथाएं व पद्धतियां वैदिक प्रकारों के आसपास वाली हैं। अनेक यूरोपियन इतिहासकारों ने इन केल्टिक लोगों को ‘यूरोपियन ब्राम्हण’ नाम भी दिया है। क्योंकि वैदिक धर्म के अनुसार चलने वाली अनेक प्रथाएं, यह समुदाय आज भी पालन करता है। पीटर बेरेसफोर्ड एलिस (Peter Berresford Ellis) नामक इतिहासकार ने भी केल्टिक समुदाय यह प्राचीन वैदिक संस्कृति मानने वाला हिन्दू समूह ही है, जो कालान्तर में यूरोप में स्थानांतरित हो गया, ऐसा लिखा है।
श्री श्रीकांत तलगेरी नामक इतिहास शोधार्थी एवं अभ्यासक द्वारा इस विषय पर विपुल लेखन किया हुआ है। तलगेरी के सिद्धांत के अनुसार ऋग्वेद पूर्व के कालखंड से ही अनेक हिन्दू समूहों ने अफगानिस्तान एवं यूरोप की दिशा में स्थानान्तरण करना शुरू कर दिया था। इसी कारण अनेक यूरोपियन संस्कृतियों के मूल में हिन्दू संस्कृति के छोटे-बड़े कई पदचिन्ह स्पष्ट दिखाई देते हैं।
तलगेरी के अनुसार ऋग्वेद लिखे जाने का कुल कालखंड दो से तीन सौ वर्षों का है। ‘द ऋग्वेद – ए हिस्टोरिकल अनालिसिस’ नामक अपने ग्रन्थ में उन्होंने ऋग्वेद में वर्णित राजवंशों का अध्ययन किया है। उनके मतानुसार भारत से बाहर स्थानांतरित हुए अन्य हिन्दू समूह इस प्रकार से हैं –
पार्थस अथवा पार्थव्स (ऋग्वेद ७-८३-१) – पार्थियंस
पार्सस अथवा पर्सवास (ऋग्वेद ७-८३-१) – पर्शियन (पारसी)
पख्तास (ऋग्वेद ७-१८-७) – पख्तून
भालानास (ऋग्वेद ७-१८-७) – बलूची
शिवस (ऋग्वेद ७-१८-७) – किवास
कोनराड एल्स्ट (Koenraad Elst) नामक प्रसिद्ध लेखक ने भी श्रीकांत तलगेरी के मत से अपना समर्थन व्यक्त किया है।
ऐसा ही एक समूह है, जो ईराक, सीरिया, जर्मनी, आर्मेनिया, रशिया में रहता है। ये ‘यजीदी’, मुस्लिम नहीं है, ईसाई भी नहीं हैं। पारसी धर्म मानने वाले भी नहीं। इनका स्वयं का एक ‘यजीदी पंथ’ है। परन्तु यह पंथ हिन्दू धर्म के एकदम नजदीक सा लगता है। अनेक शोधार्थियों ने इस ‘यजीदी’ पंथ को पश्चिम एशिया में हिन्दुओं का एक ‘खोया हुआ पंथ’ कहा है। यजीदियों की निश्चित जनसंख्या के बारे में भिन्न-भिन्न मत हैं। अनेक लोगों के अनुसार इस पंथ के लोगों की संख्या 15 लाख है। इस पंथ को मानने वाले लोग प्रमुखता से ईराक और सीरिया में रहते हैं।
मजेदार बात यह है कि पाकिस्तान का एक पोर्टल है – ‘पाकिस्तान डिफेन्स’ (www।defence।pk)। इस पोर्टल पर उन्होंने विस्तारपूर्वक एक लेख दिया हुआ है, जिसका शीर्षक है – The Yazidi Culture is Very Similar to a Hindu Sect. इस लेख में दी गई जानकारी के अनुसार केवल सात लाख यजीदी ही अब दुनिया में बचे हुए हैं और वे मुख्यतः ईराक के पास स्थित कुर्दिश इलाके में निवास करते हैं। इस लेख में अनेक सबूत देकर यह बताने का प्रयास किया गया है कि ‘यजीदी’ वास्तव में प्राचीन हिन्दुओं का ही स्थलांतरित हुआ एक समूह है।
इन यजीदियों के प्रार्थना स्थल एकदम हिन्दू मंदिरों जैसे ही दिखाई देते हैं। उनके मंदिरों पर नागों के चित्र उकेरे हुए होते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यजीदी लोगों के जो पवित्र निशान हैं, उनमें पंख पसारकर नाचता हुआ मोर प्रमुख है। मजे की बात ये है कि ईराक, सीरिया इत्यादि किसी भी देश में मोर नामक प्राणी पाया ही नहीं जाता। और यजीदियों के इस मोर की साम्यता तमिल देवता भगवान सुब्रह्मण्यम की परम्परागत प्रतिमा / चित्र से मिलती है। यजीदियों का प्रतीक चिन्ह पीले रंग का सूर्य है, जिसमें 21 किरणें दर्शाई हैं। 21 की संख्या हिन्दू धर्म में भी पवित्र मानी जाती है। हिन्दुओं की ही तरह उनकी समाई, दीप प्रज्ज्वलन, स्त्रियों के माथे पर पवित्रता की बिंदी, पुनर्जन्म में उनकी श्रद्धा… इत्यादि हिन्दुओं के अनेक रीतिरिवाज यजीदियों में स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं।
हिन्दुओं की ही तरह वे भी हाथ जोड़कर भगवान को नमस्कार करते हैं। हिन्दुओं की ही तरह यज्ञ भी करते हैं, हमारी ही तरह पूजा-पाठ करते हैं, आरती के थाल तैयार करते हैं। ऐसी कई-कई समानताएं इन दोनों संस्कृतियों में एक जैसी दिखाई देती हैं।
इसका अर्थ स्पष्ट है। अत्यंत सम्पन्न एवं वैभवशाली हिन्दू / वैदिक संस्कृति के वाहक ये समूह, ईसा पूर्व दो से तीन हजार वर्ष पहले भिन्न-भिन्न कारणों से स्थानांतरित होकर विश्व के अलग-अलग भागों में गए। कुछ लोगों ने आसपास की परिस्थिति एवं वातावरण के साथ मेलजोल बना लिया और अपनी संस्कृति को किसी तरह बचाए रखा, और वहीं, किसी-किसी समुदाय ने संस्कृति को काफी अक्षुण्ण रखा। इन समुदायों के इस सांस्कृतिक प्रवास के पदचिन्ह खोजने पर सरलता से मिल जाते हैं।
रूस के दक्षिण में एक देश है, यूक्रेन, जो पहले रूस का ही एक भाग था। यूक्रेन में काले सागर किनारे एक बड़ा सा शहर है, जिसका नाम है ‘ओदेसा’ (उड़ीसा।।?)। इसकी अंग्रेजी में स्पेलिंग है Odessa। इस शहर में पुश्किन संग्रहालय है। इस संग्रहालय में भारतीय देवताओं की तीन प्रतिमाएं रखी हुई हैं, जो हूबहू जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की तरह दिखाई देती हैं।
भारतीय संस्कृति के विश्वव्यापी और मजबूत पदचिन्ह यदि देखने हों तो बेरेनाईक (Berenike) परियोजना का अभ्यास करना आवश्यक हो जाता है। बेरेनाईक, इजिप्त का सर्वाधिक प्राचीन बंदरगाह है। स्वेज नहर के दक्षिण में 800 किमी दूर स्थित यह बंदरगाह समुद्र के पश्चिमी तट पर है।
बेरेनाईक परियोजना, पुरातत्त्व उत्खनन के कई प्रकल्पों में से एक बहुत बड़ा प्रकल्प है। इस पर 1994 में कार्य प्रारम्भ हुआ और आज भी खुदाई जारी है। नीदरलैंड फॉर साइंटिफिक रिसर्च, नैशनल जियोग्राफी, नीदरलैंड विदेश मंत्रालय, यूनिवर्सिटी ऑफ डेलावर एवं अमेरिकन फिलोसोफिकल सोसायटी इन सभी ने संयुक्त रूप से इस परियोजना में अपना पैसा लगाया हुआ है।
ईसा पूर्व 275 में टोलेमी-द्वितीय (Ptolemy-II) नामक इजिप्त के राजा ने लाल समुद्र के किनारे इस बंदरगाह का निर्माण किया था और उसे अपनी माता का नाम दिया – बेरेनाईक। स्वाभाविक रूप से बेरेनाईक एक उत्तम बंदरगाह तो था ही, परन्तु जलवायु की दृष्टि से भी व्यापारिक माल के लिए अनुकूल था। इस बंदरगाह से ऊंटों के माध्यम से माल की आवाजाही इजिप्त और अन्य पड़ोसी देशों में सहजता से होती है।
भारत की दृष्टि से इस परियोजना का महत्त्व यह है कि यहां पर खुदाई में अत्यधिक प्राचीन भारतीय वैश्विक व्यापार के ठोस सबूत प्राप्त हुए हैं। इस पुरातत्त्व उत्खनन में लगभग आठ किलो कालीमिर्च प्राप्त हुई है, जो निर्विवाद रूप से दक्षिण भारत में ही उगाई जाती थी। इसके अलावा भारत से निर्यात किए हुए कुछ कपड़े, चटाईयां और थैलियां भी मिली हैं। कार्बन डेटिंग में यह सारा सामान ईस्वी सन् 30 से ईस्वी सन् 70 तक के बीच का निकला है। इस उत्खनन में शोधकों को एक रोमन पेटी भी मिली, जिसमें भारत के ‘बटिक प्रिंट’ वाले कपड़े एवं भारतीय शैली में चित्रित कुछ कपड़े भी मिले।
इन सभी उत्खननों से सभी शोध वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि ईसापूर्व से दो-तीन हजार वर्ष पहले हिन्दू अपनी समृद्ध एवं सम्पन्न संस्कृति लेकर विश्व भर में प्रवास करते थे, व्यापार करते थे एवं अपने ज्ञान-विज्ञान की विरासत संसार को देते रहते थे। विश्व के अनेक स्थानों पर सबसे पहले पहुंचने वाले यदि कोई थे, तो वे हिन्दू नाविक एवं हिन्दू व्यापारी थे।
दुर्भाग्य से हमने अपने इतिहास को सही तरीके से संजोकर, संभालकर नहीं रखा, इसीलिए कोलंबस, वास्को-दि-गामा, मार्को पोलो, ह्वेन सांग जैसे नाम विश्वप्रसिद्ध हुए… लेकिन भारत के अनेक पराक्रमी नाविकों/व्यापारियों एवं राजाओं के नाम इतिहास की कालकोठरी में गुम हो गए।
परन्तु कभी-कभी अचानक बेरेनाईक जैसी उत्खनन परियोजना दुनिया के सामने आती है, भारतीय ज्ञान-संस्कृति के प्रकाश की किरण झलकती है और उन प्रकाश की किरणों में प्राचीन भारत का वैभवशाली इतिहास चमकदार तरीके से पुनः उठ खड़ा होता है…!!
और पढ़ें : भारतीय ज्ञान का खजाना – 5 (भारत का उन्नत नौकायन शास्त्र – भाग दो)
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