– डॉ० मधुश्री सावजी
विश्व में जनवरी का प्रारंभ आनंद से होता है। 2020 का प्रारम्भ एक छोटी से समाचार से हुआ कि चीन में कोई बीमारी आई है। मार्च मास तक देखते-देखते उस ‘कोरोना’ नामक बीमारी ने हमारे दरवाजे खटखटाये। जागतिक महामारी कोरोना ने अमीर-गरीब, अशिक्षित-सुशिक्षित, नगरीय-ग्रामीण, स्त्री-पुरुष ऐसा किसी भी प्रकार का भेद नहीं रखा। सारा विश्व इस महामारी की चपेट में आ गया। विद्यालय, कोर्ट-कचेहरी सारा बंद होने से सड़कें बेजान-सुनसान हो गई। प्राणी खुली सड़क पर आये और बच्चे-बुढे सारे घरों में बंद! पड़ोसी से भी बातचीत बंद। भारत के माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की दूरदृष्टी से हम सब लोग सजग हुए। उनके द्वारा दी गई सूचनाओं का सावधानी से पालन किया, घर में रहकर काम किया, तालियाँ-थालीयाँ बजायी, काढे पीये, प्राणायाम की आदत डाली। मास्क/रुमाल का उपयोग शुरू करते हुए दूरी की आदत डाली। इस महामारी में सारा बाहरी जीवन ऑनलाइन हो गया। घर में ऑफलाइन रहते हुए सब ऑनलाइन काम करने लगे। कभी सोच भी नही सकेंगे कि ऐसा बदलाव शिक्षा में भी आया। आचार्य गण तंत्र स्नेही हुए। हर घर में कम से कम दो मोबाइल का उपयोग होने लगा। बदलाव तो शिशु-बाल-किशोर-युवा-प्रौढ-ज्येष्ठ-वृद्ध सब के जीवन में आया। फिर भी इस लेख में हम कोरोना के कारण किशोर अवस्था के परिवर्तन को देखेंगे। यह परिवर्तन विद्यालय बंद होने के कारण केवल परिवार की जीवन शैली, संवाद शैली, सहसंवेदन शीलता, परंपरा पद्धति से अधिक प्रभावित हुआ ऐसा प्रतीत होता है।
यूनिसेफ के 2019 के अनुसार पुरे विश्व में 2.2 बिलियन बच्चे 10 से 17 वर्ष के बीच की आयु के है, जो कि पूरी दुनिया की जनगणना का 26% हिस्सा है।
आजकल विद्यालय की शिक्षा बच्चों को विषय के साथ जीवन के अंग सिखाती नहीं है। विद्यालय फिर भी जीवन के अंगों को अनुभव करने के लिए माध्यम जरूर रहते हैं। जागतिक महामारी ‘कोरोना’ ने किशोर वयीन बच्चों से वह माध्यम छीन लिया। विद्यालय में खेल, मस्ती, हंसी-मजाक होता था। वह लगभग दो साल नहीं हो पाया उसके बदले अधिकांश घरों में माता-पिता के आदेश और उपदेश से किशोरों की मुस्कान गायब हो गयी। परिवार में सतत विरोध से विद्रोह बढ़ता गया और वे दु:खी व निराश हुए।
शारीरिक और मानसिक तौर पर किशोर अवस्था में होने वाले बदलाव पर मित्र या सहेली के साथ सहज रूप में बच्चों की बातचित होती थी, वह बंद हो गयी। मित्र-सहेलियों में खुली चर्चा नहीं हो पायी। मन में उभरने वाले कई प्रश्न अनुत्तरित रहे। इस आयु में पहले ही संभ्रम, अस्थिरता रहती है औऱ कोरोना काल ने उन्हें औऱ संभ्रमित किया है।
किशोर अवस्था में बच्चे स्वयं के पैर पर खड़े रहने का सपना देखते है और वैसा जीवन में व्यवहार करते है। कोरोना के कारण बाहरी जीवन नहीं रहा। इस काल में किशोरवयीन बच्चों को ‘अपने समूह या समाज में श्रेष्ठ या बड़ा कार्य हो गया’ ऐसा सिद्ध करना कठिन था। परिणाम स्वरूप नैराश्य और आत्मविश्वास का अभाव दिखता है।
किशोर अवस्था तो झंझावात की तरह रहता है। बहुत कुछ साहसी कार्य करने की इच्छा बच्चे मन में रखते हैं। उदाहरण के तौऱ पर साधारण स्कूटर चलाना सीखना हो, पर्वत की चोटी चढ़ना हो या नदी में तैरना हो, ऐसे औऱ अनेक व विविध प्रकार के अनुभव बच्चों को जीवन में साहस करने को प्रवृत्त करते हैं। कोरोना काल में पुरा समय घरों में बंधे होने की वजह से वह सारी शक्ति टटोलना बच्चों को संभव नहीं हो पाया। कोरोना के भय से अधिक, बच्चे जीवन से भयग्रस्त हुए।
इस आयु में कुछ आदर्श सामने आते हैं। बहुत बार ये आदर्श समवयीन मित्र, रिश्तेदार या उसे समय के फेमस व्यक्तित्व रहते हैं। बच्चों को उन आदर्श व्यक्ति का अनुभव, भाषण, कृति पुरस्कार प्रेरणा देता है। दो साल में खेल बंद, सांस्कृतिक कार्यक्रम बंद, प्रतियोगिताएँ बंद रही। उसकी वजह से मन का विस्तार रुक सा गया। जीवन का कुछ समय के लिए क्यों न हो ध्येय निश्चित हो नहीं पाया और बच्चे दिशाहीन जीवन बिताने लगे।
किशोर अवस्था में भावनाओं का संवेग अधिक होने से सहसंवेदना अधिक रहती है। आपत्काल में बच्चे सहज रूप से सेवा कार्य में लग जाते हैं। कोरोना महामारी में जो प्रतिबंध थे उसमें घर के लोगों की भी सेवा करने का अवसर इन बच्चों को नहीं मिला। सहसंवेदना की जगह अपना खयाल रखो, ये स्वार्थभाव का जागरण हआ।
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त्यौहार-उत्सव में परिवार के मेल-जोल की रोक-टोक थी, जिन घरों में मृत्यु हुई वहाँशोक व्यक्त हेतु मिलने पर पाबंदी थी, देश में स्वतंत्रता दिवस मनाना भी नामुमकिन था। ये सारा भावनाओं का विकास विद्यालय औऱ घर दोनों में होता था। जिस घर में संवाद नहीं था उन घरों में बच्चे भावनाओं को पहचान नहीं पाएं।
विद्यालय में बच्चे जब गलत काम करते थे तब जो भी दंड उनको भुगतना पड़ता था उससे अनीति के रास्ते पर चलने से कुछ समय ही क्यों न हो रोक लगता था। नीति-अनीति की सीमा रेखा में क्रोध आया तो भी मस्तिष्क अपनी जगह बना लेता था। ये सारा तो हुआ नहीं। बच्चे टीवी सिरियल्स, ऑनलाइन गेम, इंटरनेट सिरीज, फेसबुक मित्र से देर तक बातें करते थे। सुबह देर से उठते थे और विद्यालय ऑनलाइन होने से बिस्तर में ही क्लास जॉइन करते थे। परिणाम स्वरूप कोई दिनचर्या नहीं,अनुशासित जीवन नहीं रहा। ऑनलाइन उपस्थित होते तो थे पर पहले से ही चंचल मन के बच्चे विडियो बंद करके और कुछ करते थे। इससे ऑनलाइन शिक्षा में भी बच्चे पढ़ाई में पिछ्ड गये। जिन बच्चों को तंत्रज्ञान की सहायता नहीं मिली, वे शिक्षा नहीं पा सके।
कोरोना काल में बालिका की शिक्षा थम गयी और शादी का खर्चा कम हुआ इस वजह से भारत की नगरीय बस्ती, ग्रामीण क्षेत्र में बालिकाओं की शादी कम आयु में हुई। शारीरिक और मानसिक परिपक्वता न होते हुए गृहस्थी जीवन स्वीकारने के गंभीर परिणाम आने वाले दिनों की एक समस्या होगी।
किशोर अवस्था में आठ प्रकार के संयम, सदाचार के साथ आहार, निद्रा और व्यायाम ये त्रि-स्तंभों की आवश्यकता रहती है। इनका अभाव कोरोना काल में सहज रूप से सामने आया है।
ऐसे किशोर अवस्था के प्रश्न अधिकतर उसी परिवार में उत्पन्न हुए जिनको जीवन जीने की भारतीय दृष्टि नहीं थी।
(लेखिका शिक्षाविद है और विद्या भारती में अखिल भारतीय मंत्री है।)
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