-डॉ प्रज्ञा शरद देशपांडे
चौंसठ कलाओं में से एक और सबसे महत्त्वपूर्ण कला ‘बाल क्रीडा कर्म’ (बच्चों का खेल) है।
बाल का अर्थ है- “बलति इति प्राणेन”। अर्थात्, वह बालक कहलाता है जो जीवन शक्ति के साथ सांस लेता है। अमरकोश, शब्द रत्नावली, राजनीघंटु, मेदिनी आदि ग्रंथों में बालक-शब्द के लिए अलग-अलग विकल्प दिये हैं, जैसे अर्भक, माणवक, बालक, माणव, किशोर, बटु, मुष्टिन्धय, बटुक, किशोरक, पाक, गर्भ, हितक, पृथुक, शिशु, शाव, अर्भ, डिम्भक, डिम्ब इत्यादि।
स्मृति ग्रंथ में ‘बाल’ किसे कहा जाए यह बताया हैं-
“आषोडशाद्भवेद्बालस्तरुणस्तत उच्यते।
वृद्धः स्यात् सप्ततेरूर्द्ध्वं वर्षीयान् नवतेः परम्॥”
यानि 16 साल की उम्र से पहले का बचपन और 16 साल की उम्र के बाद किशोरावस्था। सत्तर के बाद पुराना और नब्बे के बाद बहुत पुराना। इसलिए, बचपन याने संस्कृति, नैतिकता, शिक्षा, अभिरुचि आदि के बीजारोपण करने का (को बोने का) समय है।
रघुवंश का वर्णन करते हुए, पहले सर्ग में, रघुवंशी राजाओं की जीवन शैली का वर्णन करते हुए, कालिदास कहते हैं-
“शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्।
वार्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम् ॥”
-(रघुवंशम्-1.8)”
शैशवावस्था में विद्याध्ययन व अध्ययन विविधता, युवावस्थाओं में विषयों का उपभोग, वृद्धावस्था में निवृत्ति और अंत में योग द्वारा मृत्यु से मुक्ति। (प्राप्त करने वाले रघुवंशी राजाओं का वर्णन करता हुँ।)
‘यथा राजा तथा प्रजा’ इस उक्ति के आधार से हम निष्कर्ष निकाल सकते है कि राजा के जीवनमान के समान उस समय के समाज में भी उच्च जीवन स्तर स्वाभाविक है। शैशवावस्था में ऐसी तैयारी सुनिश्चित करें कि युवावस्था, वार्धक्य और अतिवार्धक्य सहजता से उन कर्तव्यों की परिपूर्ति करते हुए संतुष्टी से बितता हो।
इसका अर्थ यह हुआ कि समाज द्वारा बाल्यकाल को अत्यंत शैक्षिक एवं ग्रहणशील बनाने का प्रयास किया जा रहा था। बच्चे को कुलीन, सबसे अच्छा, सबसे चतुर, सबसे मजबूत और सबसे देशभक्त व्यक्ति बनाने का कोई तरीका निश्चित ही तत्कालीन समाज को ज्ञात था, किन्तु दुर्भाग्य से जिसके दस्तावेज आज उपलब्ध नहीं हैं।
धर्मपालजी की पुस्तक ‘एजुकेशन इन द 18वीं सेंचुरी – ए ब्यूटीफुल ट्री’ में कहा गया है कि 18 वीं शताब्दी में अंग्रेजों द्वारा किए गए शिक्षा के सर्वेक्षण ने साबित कर दिया कि “भारतीयों का नैतिक, आर्थिक और शैक्षिक विकास तत्कालीन यूरोपीय देशों की तुलना में बहुत अधिक था।” इन सर्वेक्षणों से स्पष्ट है कि ‘मानव-निर्माण’ के लिये भारतीय संस्कृति सर्वोत्तम है। इसके अलावा, ‘बाल-विकास’ पुस्तक में लिखने का विषय नहीं था बल्कि वास्तविक व्यवहार का विषय था।
आधुनिक युग में हम देखते हैं कि बाल मनोविज्ञान, बाल केन्द्रित शिक्षा आदि विषयक वैज्ञानिक पुस्तकों का विस्तारपूर्वक विकास हुआ है। क्या प्राचीन भारत में भी यह शाखा विकसित थी? यदि आप इसके बारे में सोचते हैं, तो चाइल्डकैअर, चाइल्ड स्पोर्ट्स, चाइल्ड साइकोलॉजी आदि पर अलग से कोई ग्रंथ प्राचीन भारतीय साहित्य में नहीं हैं।
चौसट (64) कलाओं में से कुछ कलाओं, जैसे शुकप्रलपन, (द्यूतविद्या) जुआ, खाना पकाने, धर्ममातृका, पहेलियों, सौंदर्य प्रसाधन आदि की अभिव्यक्तियाँ संस्कृत साहित्य, धार्मिक-पौराणिक कथाओं में आसानी से मिल जाती हैं। लेकिन बच्चों के खेल पर शास्त्र शुद्ध तंत्र से पुस्तकों का अधिक उल्लेख नहीं है।
भागवत में कृष्ण के बाल लीलाओं का उल्लेख है। कृष्णभक्ति संप्रदाय में कृष्ण और उनके बाल गोपालों के साथ-साथ संदीपनी आश्रम की कई कहानियाँ, अभंग, रचनाएँ हमें देखने मिलते हैं।
यही विषयवस्तु लोककथा व ‘पाळणा’ (मराठी साहित्य-रचना विशेष) जैसे स्त्री साहित्य में भी प्रचुरता से दिखाई पडते हैं। बाल गौतम की कथा भी यही कहती है। बाल गौतम की ‘किसका हंस?’ यह कहानी हर जगह सुनी जाती है।
गुरु द्रोणाचार्य से पांडवों का विद्याभ्यास, राम और उनके तीन भाइयों के बचपन की कहानियाँ आदि पढ़ने के बाद ‘खेलकूद के माध्यम से जीवन शिक्षण’ कैसे दिया जाता था, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण ही मिलता है। प्राचीन वैदिक साहित्य में गुरुकुल का वर्णन, गुरुशिष्यों की कहानियाँ, इस बात का अंदाजा देती हैं कि ‘बालकों के सर्वांगीण विकास’ के लिए क्या-क्या किया जाता था।
परावर्ति संस्कृत साहित्य में, ‘बच्चे के लिए खिलौना-गाडी’ इस बिंदू को मध्यवर्ती रख कर विख्यात नाटक ‘मृच्छकटिकम्’ प्रख्यात हैं।
मराठी-संत-साहित्य में भी बालकृष्ण की लीलाओं पर कई रचनाएँ मिलती हैं। शिवाजी महाराज के बचपन का वर्णन करने वाला साहित्य, आज भी सभी मराठी लोगों के लिए एक आदर्श व्यक्तित्व बनाने का सबसे अच्छा साधन माना जाता है।
भारतीय संस्कृति में चार आश्रम माने जाते हैं-
1) ब्रह्मचर्यश्रम
2) गृहस्थश्रम
3) वानप्रस्थश्रम
4) संन्यासश्रम।
इनमें से पहला आश्रम-काल सही ढंग से व्यतित किया गया तो बाकी सभी आश्रमकाल सही ढंग से ही व्यतीत होते ही है। यह आश्रम व्यवस्था सुचारू रूप से चलाने के लिए ही भारतीय संस्कृति में सोलह संस्कार महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।
निम्नलिखित संस्कार बाल्यावस्था से संबंधित हैं-
1) पुंसवन संस्कार – यह संस्कार गर्भावस्था के दूसरे या तीसरे महीने में भ्रूण की रक्षा के लिए किया जाता है।
2) सिमन्तोन्नयन संस्कार – शुक्लपक्ष में विशिष्ट नक्षत्रयुक्त चन्द्रमा होने पर चौथे से आठवें महीने तक बच्चे की बौद्धिक शक्तियों के विकास करने के लिए यह अनुष्ठान किया जाता है।
3) जातकर्म संस्कार – शिशु के जन्म के बाद उसकी समग्र सुरक्षा के लिए किया जाता है।
4) निष्क्रमण संस्कार (निकास) – शिशु को चौथे महीने में पहली बार घर से बाहर मंदिर ले जाया जाता है।
5) अन्नप्राशन संस्कार – आमतौर पर 6 से 8 महीने के बच्चे को पहली बार भोजन दिया जाता है।
6) चूड़ाकर्म संस्कार – तीन से पांच वर्ष के बच्चे के केशमुंडन करते है।
7) कर्णवेध संस्कार( कान छिदवाने का) – तीन से पांच वर्ष तक कान छिदवाना का विधि।
8) उपनयन संस्कार – 5 से 12 साल की उम्र के बालक को गुरुकुल-आश्रम में भेजने के लिये यह संस्कार किया जाता है।
9) वेदारम्भ संस्कार – गुरु के पास रहकर वेद/ज्ञान सीखना।
इन सोलह संस्कारों में से नौ संस्कार बाल्यावस्था से संबंधित हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि ‘बाल विकास’ के विषय को भारतीयों ने बहुत सोच-समझकर परिपोषित किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि भारतीयों की यह परंपरा थी कि हर बच्चा शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से सबसे अच्छा पैदा हो, इस में दो राय नहीं है।
‘बालक’ याने समग्र समाज के लिए संस्कारबिंदू होता है। अष्टांग आयुर्वेद का एक महत्त्वपूर्ण अंग ‘कौमारभृत्य’ है। कौमारभृत्य शाखा के विविध ग्रंथों में बालक के समग्र व एकात्म विकास हेतु मौलिक पथदर्शक जानकारी उपलब्ध है।
माँ और उसके गर्भस्थ भृण की अवस्था तथा बालक के जन्म से लेकर सोलह वर्ष तक हर चरण के, भरण-पोषण-उपचार आदि विषय की शास्त्रशुद्ध जानकारी देना ‘कौमारभृत्य’ शाखा का विषय है।
बच्चे के सर्वांगीण विकास के लिए क्रीडा (खेलकुद) जरूरी है। लेकिन खेल के लिए पूर्वसिद्धता क्या हो, इस पर भी काफी गहन विचार ‘कौमारभृत्य-शाखा में’ किया गया है।
कुमारागार – बालक का आवास कैसा होना चाहिए?
प्रशस्तवास्तुशरणं सज्जोपकरणं शुचि।
निर्वातं च प्रवातं च वृद्धस्त्रीवैद्यसेवितम् ॥
निर्मत्कुणाखुमशकमतमस्कं च शस्यते।
-(अष्टांग संग्रह १/३५)
कुशल-वास्तुकार द्वारा विशेष रूप से कुमारागार (बालक-आवास) को तैयार किया जाना चाहिए। जैसे-
कुमारागार सुंदर और आकर्षक बनें। वहाँ न अधिक अँधेरा, न अधिक उजाला हो। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हवा का सिधा स्पर्श बच्चे के शरीर को ना हो। मच्छर, चूहे, खटमल आदि नहीं होने चाहिये। कमरे के पास बच्चे के लिए अलग स्वतंत्र स्नानगृह, शौचालय, रसोई आदि व्यवस्था हो। मौसम के अनुसार आरामदायक बिस्तर, आसनव्यवस्था, पालना (झुला) आदि होना चाहिए। खिलौने ऐसे हो जो बच्चे की अभिरुचि को बढ़ावा दें। बालक के देखभाल के लिए कुशल वैद्य, वयस्क सेविका होनी चाहिए।
2) कुमारधार – बालक के लिए दास/दासी नियुक्त करना।
बालक के परिपूर्ण देखभाल हेतु सहायक, परिचारक, सेवक रखना आवश्यक हैं। बच्चे के परिपूर्ण विकास के लिये सही देखभाल महत्त्वपूर्ण है। आचार्य वाग्भट कहते हैं-
अभियुक्तः सदाचारो नातिस्थूलो न लोलुपः।
कुमारधारः कर्तव्यस्तत्राद्यो बालचित्तवित् ॥
अधार्मिकं दुराचारः स्थूलो विकटगामिनम्।
करोति लोलुपो बालं घस्नरत्वेन रोगिणम् ॥
-(अ. सं. १/३१/३२)
बालक के लिये नियुक्त सेवक सदाचारी होना चाहिए। लालची, धनलोभी नहीं। बच्चे को प्राथमिकता और वरीयता देने वाला चाहिए। बच्चे के मूड को जान कर उस को उचित संस्कार देने वाला सेवक हो। अधर्मी, दुष्ट, दुराचारी, कपटी, स्थूलशरीरवाला, लोभी ऐसा सेवक बालक को रोगी बना देता है।
3) बालक के लिये खेलभूमि तैयार करना।
बच्चों के लिए खेल का मैदान बनाना आवश्यक हैं। अष्टांग संग्रह नामक ग्रंथ में बच्चों के लिए खेल का मैदान बनाने के बारे में मार्गदर्शन किया है।
क्रीडाभूमि समा कार्या निश्शेस्त्रोपलशर्करा।
कणाम्भोभिः सिक्ता निम्बोदकेन वा ॥ (१)
बच्चे के खेलने के लिए जमीन समतल और साफ होनी चाहिए। उस भूमि पर कोई शस्त्र (नाखून, कील, कांटे, शीशा आदि) नहीं होना चाहिए। तथा चीनी/गुड आदि नहीं होनी चाहिए। मिट्टी को कृमिनाशक जल जैसे विडंग, काली मिर्च, नीम आदि से उपचारित करना चाहिए।
4) क्रीडनक (बच्चे का खिलौना)
बच्चे का खिलौना ऐसा होना चाहिए जिससे बालक के शरीर, मन और भावनाओं का परिपूर्ण विकास हो सके। आयुर्वेद में कहा है-
क्रीडनकानि खलु कुमारस्य विचित्राणि घोषवन्त्यभिरामाणि चागुरुणि चातीक्ष्णाग्राणि चानास्यप्रवेशितानि चाप्राणहराणि चावित्रासनानि स्युः॥
-(चरकसंहिता ८.६३)
बच्चों के खिलौने रंगीन होने चाहिए। विविध व मधुर ध्वनि करने वाले (मुखर) खिलौने होने चाहिये। (वजन में) बहुत भारी या (आकार में) बहुत बड़े नहीं होने चाहिए। चुभने वाले, गढने वाले खिलौने नहीं होना चाहिए। मुंह में आसानी से निगले जाने वाले खिलौने नहीं होना चाहिए। जान को कोई खतरा हो ऐसा खिलौना नहीं होना चाहिए। भयकारक खिलौना नहीं होना चाहिए।
महर्षि चरक के आशय को आचार्य वाग्भट अधिक स्पष्ट विशद करते हैं-
जातुषं घोषवच्चित्रमत्रासं रमणं बृहत्।
अतीक्ष्णाग्रं गवाश्वादिमङ्गल्यमथ वा फलम् ॥
-(अष्टांग संग्रह १/७६)
बच्चों के खिलौने लाक्षा (लाह/लाख) के बने होने चाहिए क्योंकि लाक्षा ठंडा, पित्तनाशक, ज्वरनाशक, जलनरोधी और बलवर्धक व वर्णवर्धक होता है। गलती से बालक खिलौने को चाटें, चखे, तो भी इससे कोई नुकसान नहीं होगा।खिलौने का आकार गाय, घोड़ा, फल आदि के होना चाहिए। जिससे बच्चे को उन चीजों का परिचय हो।
जब बच्चे को पहली बार उपवेशन (बिठाना) और अन्नप्राशन (भोजन कराना) कराते है, उस समय का वर्णन कश्यप संहिता में (जातकर्मोत्तराध्याय 12) किया गया है। शिशुओं के लिए विशेष बरामदा (चबुतरा) तैयार करना चाहिए। (उपर उल्लेखित क्रीडाभूमि पुनः संदर्भ ले।)
उस बरामदें पर बच्चेके लिये विभिन्न खिलौने रखे जाये। ये खिलौने, पके और मुलायम भोजन (चावल, दाल) या खोया (दूध से बनाया हुआ) से बनाने चाहिये। जैसे- विभिन्न जानवरों, पक्षियों, रोजमर्रा की वस्तुओं, परिचित लोगों आदि के प्रतिकृतियाँ हो। सभी खिलौनों को बरामदे पर आकर्षक तरीके से सजाया जाना चाहिए। बरामदे को सुशोभित करने के बाद बच्चे को (बरामदे पर) सहारा दे कर बिठाना चाहिए।
बच्चा अपनी पसंद का कोई भी खिलौना उठाएगा। यही बच्चे के मूलप्रवृत्ति की परीक्षा होगी। बालक की मूल अभिवृत्ति को जान कर इसका पोषण व संगोपन सही तरीके करना चाहिए।
इस प्रकार बालक के पूर्ण विकास का विज्ञान ‘बाल क्रीडा कर्म’ है।
समारोप
दाम्पत्यजीवन याने गृहस्थधर्म की नींव मुख्यतः अर्थ और काम इन दो पुरुषार्थ पर आधारित है। इन्ही पुरुषार्थों का शास्त्रशुद्ध विवरण वात्स्यायन द्वारा लिखित ‘कामसूत्र’ ग्रंथ में किया गया है। इसी ग्रंथ में गृहस्थ जीवन के लिए आवश्यक चौसठ (64) कलाओं का उल्लेख है। इन महत्त्वपूर्ण 64 कलाओं में से एक है ‘बाल क्रीडा कर्म’ हैं।
सुखी और संतुष्ट गृहस्थ जीवन के लिए वंश की सातत्यता बनाए रखना महत्त्वपूर्ण व अनिवार्य है। मराठी भाषा में एक उक्ति है, “शुद्ध बीजा पोटी फळे रसाळ गोमटी”। अर्थात् शुद्ध बीज से ही शुद्ध फल उपजता है। यह उक्ति गृहस्थधर्म में भी आवश्यक है।
सर्वोत्तम व कुलीन समाज बनाने के लिए बीजारोपण से लेकर परिपक्वता तक सभी संस्कारों का सानंद उपभोग लेना अत्यंत जरूरी है। इसी कारणवश कामसूत्र ग्रंथ में ‘बाल क्रीडा कर्म’ नामक कला का भी बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है।
‘बाल क्रीडा कर्म’ इस नाम से स्वतंत्र ग्रंथ या पुस्तक नहीं है। फिर भी आयुर्वेद, कौटिल्य अर्थशास्त्र आदि ग्रंथों में इस विषय की जानकारी इतस्ततः बिखरी है। भारतीय-ज्ञान-महासागर में युगानुकूल सभी विषयों के मौलिक ज्ञानरत्न विपलता से उपलब्ध है। विभिन्न आयामों को समृद्ध करने वाले, विभिन्न ग्रंथों से जानकारी एकत्र करना तथा अनेक स्वतंत्र ग्रंथों को रूप में प्रकाशित करना चाहिये। आगामी स्वर्णिम भविष्य के लिये भारतीयों का यह आद्यकर्तव्य होगा।
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(लेखिका हडस जूनियर कॉलेज नागपुर में संस्कृत की व्याख्याता है और मराठी, हिन्दी, संस्कृत एवं अंग्रेजी में सतत लेखन करती हैं।)
अति सुन्दरम्
खूप छान मनापासून अभिनंदन
बहू उत्तम