– दिलीप वसंत बेतकेकर
अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था- “जब समस्या आती है तब हम जिस प्रकार विचार करते हैं वैसा ही विचार करके उस समस्या का निराकरण नहीं हो सकता।” इस बात का तात्पर्य यह है कि किसी समस्या का निराकरण करने के लिए हमें नई दिशा में नवीन पद्धति से विचार करना पड़ता है।
कोरोना की परिस्थिति के बाद शिक्षा के बारे में भी अलग प्रकार से विचार करना होगा। कोरोना के पहले और कोरोना के बाद शिक्षा पद्धति में बड़ा अंतर आ चुका है लेकिन इस बात का एहसास अभी भी अनेक लोगों को नहीं हो सका है। कोरोना के पहले जिस पद्धति का उपयोग शिक्षा प्रदान करने के लिए किया जाता रहा कोरोना के बाद स्कूल फिर से शुरू होने के बाद उसी पद्धति का उपयोग कर अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं हो सकते।
स्कूल फिर से शुरू हो गए हैं, कुछ स्थानों पर शिक्षकों ने नवीनता, रचनात्मकता का उपयोग कर बच्चों का स्वागत किया, इस प्रकार के समाचार और छायाचित्र मीडिया के माध्यम से दिखाई पड़े हैं। ये एक सकारात्मक पहल है। पहला कदम बहुत अच्छे से उठाया गया है। प्रत्येक स्कूल को ये अवसर मिला था।
अंग्रेजी की एक कहावत है- “सीक्रेट ऑफ एजुकेशन इज रिस्पेक्टिंग द चाइल्ड” बच्चों के लिए ये अहसास अत्यंत महत्वपूर्ण है कि उनके व्यक्तित्व का यथायोग्य सम्मान किया जा रहा है। मेरे स्कूल को मेरी आवश्यकता है। सीखने की मानसिकता की दृष्टि से ये अनुभूति अत्यंत आवश्यक है।
सीखने की मानसिकता तैयार करना पहली पायदान है। जिस प्रकार बीज बोने के लिए खेत की जमीन को तैयार करना होता है उसी तरह सीखने के लिए भी अनुकूल, योग्य और पोषक मानसिकता की आवश्यकता होती है। इस बात को ध्यान में ना रखते हुए जो कोई केवल अपना पाठ्यक्रम पूरा करने का प्रयत्न करता है वो केवल पत्थर पर बीज बोने का प्रयास करता है, इस बात को ध्यान में रखना चाहिए।
आज लगभग दो साल के बाद जब फिर से स्कूल शुरू हो रहे हैं तब इस परिस्थिति में यह आवश्यक है कि शिक्षक पहले विद्यार्थियों के मानस को समझे। इस महामारी का परिणाम अनेक परिवारों को भुगतना पड़ा है। किसी की आर्थिक स्थिति कमजोर हुई है तो किसी के परिवार में कोई व्यक्ति हमेशा के लिए बिछड़ कर चला गया है। किसी को अनेक दिनों तक अस्पताल में रहना पड़ा, तो किसी को अपने ही घर में परिजनों से दूर होकर रहना पड़ा। इन सारी बातों का बच्चों के कोमल मन पर घातक परिणाम हुआ है, इस बात को ध्यान में रखने की बड़ी आवश्यकता है।
वर्तमान में अपने पाठ्यक्रम को किसी तरह पूरा करने के स्थान पर आलस, उदासीनता, सुस्ती तथा सब चलता है की मानसिकता से बच्चों को बाहर निकालने का विचार करना होगा। स्कूलों में परामर्शदाता होते हैं लेकिन अब प्रत्येक शिक्षक को अपनी परामर्शदाता की भूमिका को बढ़ाना होगा। बच्चे निराशा, चिड़चिड़ापन आदि से किस तरह बाहर निकलेंगे इसका विचार करना होगा।
किसी भी विषय अथवा पाठ को पढ़ाने के पहले ये जानना जरूरी है कि बच्चों का मन किस तरह प्रफुल्लित होगा, उनके भीतर चेतना कैसे जागेगी, जिज्ञासा और इच्छा शक्ति कैसे बढ़ेगी इस बात को प्राथमिकता देना होगी।
एक चिंतक ने बड़ी महत्वपूर्ण बात कही है- “वन टीचर हु इज अटेम्प्टिंग विदाउट इंस्पायरिंग द पीपल विद डिजायर टू लर्न इज हैमरिंग ऑन कोल्ड आयरन।”
लोहे को किसी आकार में ढालने के पहले उसे भट्टी में तपाना पड़ता है, उसी तरह कुछ सिखाने के पहले बच्चों को प्रोत्साहित करना, प्रेरित करना आवश्यक होता है। विगत दो वर्ष की लंबी अवधि एक विचित्र परिस्थिति में बीती है, इस बात का ध्यान शिक्षकों को रखना होगा। यह एक बड़ी चुनौती है। बच्चों ने दो वर्ष के कार्यकाल में जो देखा, भुगता और अनुभूत किया है उसे व्यक्त करने का अवसर उन्हें मिलना चाहिए। मन के भीतर दबा के रखे गए भाव को प्रगट करना आवश्यक होता है। ये करते समय विविधता, कल्पनाशीलता नवीनता का प्रयोग करना होगा। परंपरागत प्रश्नों को पूछ कर और परिपाटी से चली आ रही शिक्षण पद्धति का उपयोग कर ये नहीं हो सकता।
कुछ शिक्षक दो साल के बाद बच्चों को अपने सामने प्रत्यक्ष उपस्थित पाकर पाठ्यक्रम को पूरा करने के लिए पीछे पड़ने वाले हैं। बैकलॉग को पूरा करने के लिए तीव्र गति से गाड़ी चलाने का प्रयत्न करने वाले हैं। दो साल की कसर किस तरह से पूरी की जाए इस बात को प्राथमिकता देने वाले हैं लेकिन ऐसे शिक्षकों को अपनी गति का ध्यान रखना होगा। विषय को पूरा करने की हठधर्मिता के सामने बच्चों के भीतर सीखने की रुचि ही समाप्त न हो जाय इस बात की सावधानी बरतना पड़ेगी।
शिक्षक किसी भी विषय को सिखाने के लिए कुल जितना समय, शक्ति व्यय करते है, परिश्रम करते हैं यदि वे उसका 25% समय, शक्ति और श्रम इस बात पर खर्च करेंगे कि “बच्चे सीखे कैसे” तो उनको अपेक्षित परिणाम अधिक प्राप्त होगा।
मार्क कॉलिंग ने कहा है- “वंस चिल्ड्रन लर्न हाउ टू लर्न नथिंग इज गोइंग टू नेरो देयर माइंड”।
पुस्तक ‘द वर्ल्ड इज फ्लैट’ के लेखक फ्राइड ने कहा है- “बीग अडॉप्टेबल इन ए फ्लैट वर्ल्ड नोइंग हाउ टू लर्न हाउ टू लर्न विल बी वन ऑफ द मोस्ट इंपोर्टेंट असेट्स एनी वर्कर विल हैव”।
पिछले दो सालों में ऑनलाइन शिक्षा प्रदान करने के अनेक प्रयोग हुए हैं। वास्तव में देखा जाए तो ये एक उत्तम और प्रभावी साधन है। कोरोना के कारण इसका प्रयोग किया गया लेकिन अपेक्षित परिणाम प्राप्त न हो सका। इस बात का दोष इस तकनीक अथवा पद्धति का नहीं है बल्कि इसका उपयोग करने वाले दोषी हैं और भविष्य में भी रहेंगे। इस पद्धति और तकनीक का लाभ लेने के लिए इस दिशा में अलग-अलग प्रयत्न और प्रयोग करना होंगे। प्रत्यक्ष पद्धति से शिक्षण शुरू होने के कारण ऑनलाइन पद्धति को पूरी तरह बंद करने की आवश्यकता नहीं है बल्कि इसका प्रभावी ढंग से उपयोग किस प्रकार किया जा सकता है इस दिशा में विचार शुरू करना होगा। तकनीक की विशेषता उसकी सीमाओं और उपयोगिता के बारे में शिक्षक, विद्यार्थी तथा पालकों को अधिक सजग, सतर्क और सुविज्ञ बनाना होगा।
ऑनलाइन और ऑफलाइन पद्धति का सही मिश्रण अगर जम जाता है तो सब को लाभ होगा। आज किसी भी विषय पर सर्वोत्तम और प्रभावी वीडियो उपलब्ध हो सकते हैं। शिक्षक इस प्रकार के वीडियो को देखकर स्वयं की कुशलता बढ़ा सकते हैं और विद्यार्थियों को उसका लाभ मिल सकता है। यदि शिक्षक अपने वीडियो तैयार कर अपलोड करते हैं तो विद्यार्थी भी उन्हें बार-बार देख कर अपनी उस विषय या पाठ के बारे में समझ को स्पष्ट कर सकते हैं। इसके लिए पालकों को भी इसके बारे में सारी बातें बता कर समझाना होगा।
स्कूल प्रबंधन को भी इस प्रकार की नई बातों पर ध्यान देना होगा। जिन स्कूलों के पास पर्याप्त स्थान उपलब्ध है वे अपना स्वयं का छोटा सा स्टूडियो बना सकते हैं। कम से कम स्थान और साधनों का उपयोग कर इस प्रकार का स्टूडियो तैयार किया जा सकता है। इस बात के लिए प्रबंधन की इच्छा शक्ति और कल्पना शक्ति की आवश्यकता है।
प्रत्येक स्कूल का अपने बच्चों के साथ जीवंत संपर्क होना आवश्यक है। नई शिक्षा नीति के अनुसार आने वाले समय में पालकों की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण होने वाली है। पालक एक बड़ी शक्ति है इस शक्ति का समुचित उपयोग करने वाली पाठशालाएं आगे बढ़ेगी।
पालको को नवीन तकनीक का महत्व, उपयोग और प्रभाव समझाना होंगे। नई तकनीक की सहायता से पाठशालाएं पालकों के साथ अपना संपर्क और संबंध अधिक सुदृढ़ कर सकते हैं। कक्षावार पालकों की ऑनलाइन बैठकों की संख्या बढ़ाई जा सकती है। परिस्थिति की गंभीरता और आने वाले अवसरों के बारे में पालकों को जागरूक करना चाहिए।
व्यापक स्तर पर विद्यार्थियों का डाटा संकलित करना चाहिए। ऐसा कहा जाता है कि डाटा आज का नया ईंधन है। डाटा अनेक दृष्टि से उपयोगी होता है। डाटा का सही पद्धति से विश्लेषण करने पर अनेक समस्याओं का निराकरण किया जा सकता है।
पाठशाला, परिसर की स्वच्छता को महत्व दिया जाना चाहिए। शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच स्वास्थ्य के विषय में जागरूकता बढ़ाई जाना चाहिए। शिक्षकों को इस बात की सावधानी बरतना होगी कि विद्यार्थियों को केवल स्वच्छता और व्यायाम के बारे में भाषण न दे कर एक साथ मिल कर उस दिशा में प्रयत्न करते रहना होंगे।
ये बात सत्य है कि विगत दो वर्षों में बड़ी हानि हुई है लेकिन इसके साथ ही अनेक नए अवसर खुले हैं इस बात को भी ध्यान में रखना होगा। भविष्य में और नए अवसर खुलेंगे, हमें उनका लाभ लेने की तैयारी रखनी होगी।
इस आपात परिस्थिति से शासकीय अधिकारी और प्रशासकों को भी अनेक बातें सीखने जैसी है। अब वह समय आ गया है जब नए-नए क्षेत्रों की आवश्यकताओं, साधनों, मूलभूत सुविधाओं का नए तरीके से विचार करना होगा। परंपरागत विचार पद्धति तथा जीवन शैली से ऊपर उठना होगा। आने वाले समय में शिक्षण संस्थाओं को स्वायत्तता प्रदान करने का विचार चल रहा है लेकिन उसके लिए उन्हें अपनी पात्रता, योग्यता को बढ़ाने की तैयारी करने की आवश्यकता है। अभी तो अनेकों को अपनी स्वायत्तता को संभालकर कर रखना जम नहीं सका है। इस बात की जोख़िम तो है। भविष्य में शिक्षा क्षेत्र में अनेक बदलाव होने वाले हैं, उन बदलावों का हम स्वागत करें और शिक्षा पद्धति को नई दिशा प्रदान करें।
शरीर को श्रम की ओर, बुद्धि को मन तथा हृदय को भावनाओं की ओर मोड़ना सही मायनों में शिक्षा का उद्देश्य है। इस विचार का जतन करना होगा।
(लेखक शिक्षाविद, स्वतंत्र लेखक, चिन्तक व विचारक है।)
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जो सुना वो भूल गया ।जो देखा वह याद रहा।जो कीया वह पक्का हो गया।उदा. बच्चो द्वारा टी.वी.देखना ।अर्थात बच्चो को प्रत्यक्ष कार्य करने देना,कोई नुकसान हो रहा हो उसके के लिये सचेत करते रहना।मै पूर्ण लेख नहीं पढ़ सका ,ऑखों में कुछ दर्द होने के कारण, मैने भाव समझ कर यह अपनी प्रतिक्रिया देने का प्रयत्न किया है। गलती होने पर क्षमा करियेगा आपका लेख बहुत सुन्दर व पठनीय है ।