– डॉ विकास दवे
प्रिय बिटिया!
कानपुर के एक गरीब परिवार में जन्मे थे अजीमुल्ला। बचपन से ही उनकी चपलता और कुशाग्र बुद्धि अंग्रेज पादरियों की निगाह में आ गई। धर्मान्तरण के उद्देश्य से उन लोगों ने इस बालक को मिशनरी स्कूल में प्रवेश करा दिया। इसी वातावरण में पला बढ़ा यह बालक अपनी शिक्षा समाप्त कर उसी स्कूल में शिक्षक हो गया।
एक बार नाना साहब पेशवा ने किसी विषय पर सलाह लेने के लिए उन्हें बिठूर बुलाया। बस इस पहली भेंट ने ही उन्हें नाना साहब का प्रिय बना दिया और वे सदा के लिए बिठूर ही रह गये। क्रमश: अजीमुल्ला खाँ की एक-एक विशेषता सामने आने लगी। वे जितने अच्छे शिक्षक थे उतने ही अच्छे प्रशासक भी निकले। कूटनीतिज्ञ भी वे थे ही तो साथ में बहुत अच्छे लेखक भी थे। बहुभाषाविद ऐसे कि अंग्रेजी, फ्रेंच, अरबी, फारसी, हिन्दी और संस्कृत पर तो मानों उनका अधिकार ही था। एक ओर वे कुशल योद्धा थे तो दूसरी ओर श्रेष्ठ वक्ता भी। उनकी लेखनी अंगारे उगलती थी तो कविताएं साक्षात् पिघला हुआ लावा होती थी। उनके रचे झंडा गीत का आतंक तो अंग्रेजी मनों में ऐसा खौफ पैदा करता था कि जिस व्यक्ति के पास वह गीत मिल जाए या कोई उसे गाते गुनगुनाते मिल जाएं तो उसको फांसी पर चढ़ा दिया जाता था अथवा घोर यातनाएं दी जाती थी।
राष्ट्रभक्ति जब रक्त की तरह रगों में दौड़ती हो तो धर्म के आधार पर कौन भेद करता है? भारत के जन-जन के वे नायक बने। प्रखर हिन्दुत्व के पुरोधा वीर सावरकर जी ने अपना प्रख्यात ग्रंथ ‘1857 का भारतीय स्वतंत्रता समर’ लिखा तो उसमें अत्यन्त श्रद्धा से उन्होंने लिखा – “1857 की क्रांति का पूरा श्रेय अजीमुल्ला खाँ को था। वास्तवितकता यह थी कि यदि अजीमुल्ला खाँ न होते तो यह क्रांति भी न होती। यदि होती तो उसका स्वरूप इतना व्यापक न होता।” यह बात अलग है समय से पूर्व प्रारंभ हो जाने से यह क्रांति असफल हुई।
अंग्रेजों ने जब नाना साहब पेशवा को पेन्शन देना बंद किया तो नाना साहब ने अजीमुल्ला खां को अपना राजदूत बनाकर लंदन भेजा। इस कार्य में 5 हजार पौंड व्यय हो जाने के बाद भी असफलता ही हाथ लगी। लेकिन नियति को तो कुछ और ही करवाना था इस नर-नाहर से। उनकी भेंट हुई रंगोजी बापू गुप्ते से। शेर की मांद में ही बैठकर शेर के शिकार की योजना बनने लगी। संपूर्ण भारत में क्रांति को एक साथ प्रारंभ करने की योजना लंदन में ही बनाकर दोनों क्रांतिवीरों ने उत्तर और दक्षिण भारत को अपना कार्यक्षेत्र बनाया।
भारतीय क्रांति में रूस से सहयोग प्राप्त करने का प्रयत्न भी अजीमुल्ला खाँ ने किया था। यदि तत्कालीन जार निकोलस की मृत्यु नहीं हो गई होती तो भारतीय क्रांति का इतिहास ही बदल गया होता।
आओ बेटे, 1857 की क्रांति को पुनःस्मरण करते हुए गायें वह गीत जिसे रचा था अजीमुल्ला खाँ ने और जो रातों की नींद उड़ा दिया करता था अंग्रेजी राज की –
हम हैं इसके मालिक, हिन्दुस्तान हमारा।
पाक वतन है कौम का, जन्नत से भी प्यारा।।
ये है हमारी मिल्कीयत, हिन्दुस्तान हमारा।
इसकी रूहानियत से, रोशन है जग सारा।।
कितना कदीम कितना नईम, सब दुनिया से न्यारा।
करती है जरखेज जिसे, गंगी-जमुन की धारा।।
ऊपर बर्फीला पवर्त पहरेदार हमारा।
नीचे साहिल पर बजता सागर का नक्कारा।।
इसकी खाने उगल रही हैं, सोना, हीरा, पारा।
इसकी शानो शौकत का है दुनियाँ में जयकारा।।
आया फिरंगी दूर से ऐसा मंतर मारा।
लूटा दोनों हाथ से प्यारा वतन हमारा।।
आज शहीदों ने है तुमको अहले वतन ललकारा।
तोड़ गुलामी की जंजीरे बरसाओ अंगारा।।
हिन्दु मुसलमां, सिख हमारा, भाई-भाई प्यारा।
यह है आजादी का झण्डा, इसे सलाम हमारा।।
- तुम्हारे पापा
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)
और पढ़ें : पाती बिटिया के नाम-8 (एम.वाय.अस्पताल में खड़ा वह नीम का पेड़)