– डॉ विकास दवे
प्रिय बिटिया!
राजा शंकर शाह क्रोध से आग बबूला हो रहे थे। उनके राज्य गढ़ मण्डला में भ्रष्टाचार को देशद्रोही से कम नहीं समझा जाता था। उनके पास जो खबर थी वह प्रामाणिक थी। उनका कर्मचारी गिरधारी दास बेईमान है यह सिद्ध हो चुका था। राजा शंकर शाह गरजे – “दूर हो जाओ मेरी आँखों के सामने से। मैं तुम्हें इसी समय राज्य से निकालता हूँ। तुम ये न समझना कि यह तुम्हारे साथ ही हो रहा है। यदि इस जगह मेरा बेटा रघुनाथ भी होता तो मैं उसे यही सजा देता।”
गिरधारी अपमान का घूँट पीकर वहाँ से चला तो गया लेकिन घर का भेदी इस अपमान का बदला लेने के लिए आतुर हो रहा था। वह तुरंत अंग्रेज अधिकारी के चरण चूमने चल दिया। उसने खूब नमक मिर्च लगाकर गौरे सरकार के कान भरें – “हुजूर आप नहीं जानते दोनों बाप बेटे कितने खूँखार हैं। हर समय आपका तख्तो ताज उलटने के सपने देखते रहते हैं। सरस्वती तो मानों उन दोनों शैतानों की जीभ पर सवार रहती है। आप जानते हैं पूरे गढ़ मण्डला में अंग्रेजी राज के विरुद्ध खड़े लोग जो गीत गा रहे हैं वे सब इन दोनों बाप बेटे के लिखे हुए हैं। आप तो हिन्दी समझ पाते नहीं मैं ही आपको इन कविताओं का अंग्रेजी में भावार्थ समझाता हूँ। आप खुद जान जाएंगे दोनों कितने शैतान है।
जैसे-जैसे अंग्रेजी अनुवाद सामने आ रहा था गोरे सरकार की आँखे लाल होती जा रही थी। तुरंत आदेश देकर राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह को बंदी बनाकर अंग्रेजी फौज ने उन्हीं के नगर में घुमाया। प्रजा तो घरों से निकलकर यह दृश्य भी नहीं देख पा रही थी। रास्ते चलती महिलाओं ने मुंह ढककर अपने रुदन को रोकने का प्रयास किया।
नगर के बाहर बड़े मैदान में पूरा नगर उमड़ पड़ा था। पिता-पुत्र को तोपों से बांध दिया गया था। तोपची जलते पलीते लिए तैयार थे। अंग्रेज अफसर ने पूछा – “कोई अंतिम इच्छा हो तो बताओ? राजा शंकर शाह बोले – “जिस कविता के लिए हमें मृत्युदण्ड दिया जा रहा है, हमें उसे सुनाने की अनुमति दी जाए। हम माँ भारती की सेवा, माँ सरस्वती की अर्चना के साथ करना चाहते हैं।” जलते-भुनते उस गोरे ने अनुमति दी और फिर सबसे पहले पिता का ओजस्वी स्वर गूंज उठा वातावरण में –
मूंड मुख डंडिन को चुगलों को चबाई-खाई
खूंद दौड़ दुष्टन को शत्रु संहारिका।
मार अंग्रेज रेज कर देई मात चंडी
बचे नाहि बैरी बाल-बच्चे संहारिका।
संकर की रखा कर दास प्रतिपाल कर
वीनती हमारी सुन अय मात पालिका।
खाई लेई म्लेच्छन को झेल नाहिं करो अब
भच्छन ततच्छन कर बैरिन को कालिका।
पिता का स्वर अभी धीमा भी नहीं हुआ था कि पुत्र रघुनाथ की उससे भी अधिक तेजस्वी वाणी वातावरण को कँपाने लगी –
कालिका भवानी माय अरज हमारी सुन
डार मुण्डमाल गरे खड्ग कर धर ले।
सत्य के प्रकासन औ असुरन विनासन को
भारत-समर माँहि चंडिके संवर ले।
झुण्ड-झुण्ड बैरिन के रुण्ड मुण्ड झारि-झारि
सोनित की धारन ते खप्पर तू भर ले।
कहै रघुनाथ माँ फिरंगिन को काटि-काटि
किलक-किक माँ कलेऊ खूब करले।
अंतिम पंक्ति पूरी होते-होते तक अधिकारी का इशारा हुआ और तोपचियों ने पलीते लगा दिए। भीषण गर्जन के साथ पिता-पुत्र की देह के चीथड़े हवा में तैर रहे थे। लोगों की चीखें गूंज उठी चारों ओर। लेकिन तोप के इन दो गोलों पर बहुत भारी पड़ रहे थे वे शब्दों के गोले जो राजा शंकरशाह तथा रघुनाथ शाह छोड़ कर गए थे। 1857 के स्वातंत्र्य समर में शस्त्रों के योगदान के साथ कविता का यह योगदान सदैव अविस्मरणीय रहेगा।
-तुम्हारे पापा
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)
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