स्वामी दयानन्द जी का शिक्षा दर्शन

– प्रो. बाबूराम

स्वामी दयानंद जी के बचपन का नाम मूलशंकर था, उनका जन्म 1824 में काठियावाड़, गुजरात के टंकरा में हुआ था। बचपन से ही अध्ययन में रूचि होने के कारण जीवनपर्यंत उन्होंने कर्मकांड, वैदिक ग्रंथों और साहित्य का अध्ययन किया जिसमें पाणिनी व्याकरण, वैदिक दर्शन, प्रतिपाद, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत, षड्दर्शन, चिकित्सा औषध विज्ञान,  और सभी वेद सम्मिलित थे। स्वामी पूर्णानंद सरस्वती ने उन्हें (मूल शंकर) 24 वर्ष की आयु में दयानंद सरस्वती कहा। साधना यात्रा के काल में स्वामी दयानंद कालान्तर में मथुरा में स्वामी विरजानंद के शिष्य बन गए। उन्होंने वेदों का हिंदी में अनुवाद किया।

स्वामी दयानंद जी के वैचारिक दर्शन के केंद्र में समाज का परिष्कार और परिशोधन है। समाज के धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में आई कुरीतियों का निराकरण स्वामी जी के चिन्तन का प्रमुख विषय रहा है। जवाहर लाल नेहरु ने अपनी पुस्तक ‘भारत एक खोज’ में लिखा है कि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में एक गुजराती स्वामी दयानंद सरस्वती ने सबसे उल्लेखनीय सुधार आंदोलनों में से एक की शुरुआत की थी, यह आर्य समाज था और उसका नारा था ‘वेद की ओर वापस चलो। इस आन्दोलन ने पंजाब (तत्कालीन विशाल पंजाब जिसमें हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, चंडीगढ़ के साथ पाकिस्तानी पंजाब का काफी क्षेत्र शामिल था) के हिंदुओं के बीच अपना गहरा स्थान बना लिया। आर्य समाज हिन्दू धर्म में आई कुरीतियों और इस्लाम तथा ईसाई धर्म के विरुद्ध आत्म-परिष्कार का आन्दोलन था’।

“स्वामी जी के अनुसार जीवन में शिक्षा का अत्यंत महत्त्व है, शिक्षा के बिना मनुष्य केवल नाम का आदमी होता है। यह मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह शिक्षा प्राप्त करे, सदाचारी बने, द्वेष से मुक्त हो और देश, धर्म तथा समाज के लिए कार्य करे। स्वामी दयानंद जी के विचार में शिक्षा मनुष्य को ज्ञान, संस्कृति, धार्मिकता, आत्मनियंत्रण, नैतिक मूल्यों और धारणीय गुणों को प्राप्त करने में मदद करती है और मनुष्य में विद्यमान अज्ञानता, कुटिलता तथा बुरी आदतों को समाप्त करती है।

सबके लिए शिक्षा

तत्कालीन समाज न केवल जातिवाद बल्कि समूचे नारी वर्ग के प्रति भी दुराग्रह का शिकार था। वास्तव में महिलाओं को जाति तथा महिला होने के नाते दोहरी समस्या थी। स्वामी दयानंद जी महिला शिक्षा पर बल देते हुए कहा कि सभी महिलाओं को शिक्षा मिलनी चाहिए। उनके अनुसार माता-पिता का यह कर्त्तव्य है कि वे बेटियों को बेटों के समान शिक्षा ग्रहण करने के उचित अवसर प्रदान करें। हालांकि स्वामी दयानंद सह-शिक्षा के पक्ष में नहीं थे, और इसलिए उन्होंने लड़कियों और लड़कों के लिए अलग स्कूलों की वकालत की। यहाँ तक कि उन्होंने लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग पाठ्यक्रम की भी प्रस्तावना की।

नैतिक शिक्षा पर विशेष बल

स्वामी दयानंद इस बात से भली-भांति परिचित थे कि अगर भारत जैसे बड़े देश को परिवर्तित करना है तो बचपन को प्रेरित तथा परिवर्तित करना होगा। उन्होंने स्पष्ट रूप से बच्चों की नैतिक शिक्षा पर बल देते हुए उनकी शिक्षा के साधन निर्धारित किए। नैतिक शिक्षा में एक तरफ सद्गुणों का विकास तथा प्रोत्साहन और दूसरी ओर विकारों का निराकरण शामिल है। उनका स्पष्ट मत था कि माता-पिता और शिक्षकों को स्वयं उच्च आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए।

शिक्षक की महती भूमिका पर विशेष बल

शिक्षण प्रक्रिया के दो सक्रिय वर्ग हैं एक है शिक्षक और दूसरा शिक्षार्थी। बुद्धिमान वरिष्ठ, अनुभवी होने के नाते शिक्षण प्रक्रिया को गतिमान और आगे बढाने का कार्य शिक्षक का है। इसलिए शिक्षक की भूमिका को स्वामी दयानंद द्वारा विशेष महत्व दिया गया है। शिक्षकों को निरंतर सीखने के लिए उद्यत होना चाहिए, उसे  अच्छे चरित्र का, और अपने कार्य के लिए समर्पित होना चाहिए। उनके दृष्टिकोण में समाज को ऐसे अभिमानी शिक्षकों की आवश्यकता नहीं है जो अपने कार्य के प्रति समर्पित नहीं हैं। शिक्षक और उसके शिष्य के बीच पिता-पुत्र की तरह घनिष्ठ संबंध होना चाहिए।

शिक्षक-शिष्य सम्बन्ध

शिक्षार्थी में उच्च गुणों और मूल्यों को आपसी प्रेरणा और सहयोग से विकसित किया जा सकता है। शिक्षक का कर्त्तव्य है कि वह शिक्षार्थी को सत्यवादिता, संयम, सौम्यता आदि गुणों को विकसित करे और उसके शारीरिक और मानसिक विकास पर बल दे। शिक्षक हो या शिक्षिका , उन्हें छात्रों की बुरी आदतों को सुधारने का भी पूर्ण प्रयास करना चाहिए। वहीँ दूसरी ओर शिक्षार्थी का भी कर्त्तव्य है कि वह आत्म-नियन्त्रण, संयम, मानसिक शांति, विचारशीलता, परिश्रम और प्रेम की भावना तथा शिक्षकों के प्रति सम्मान और श्रद्धा का भाव विकसित करने का कार्य करे।

समग्र व्यक्तिव विकास आधारित पाठ्यक्रम

स्वामी दयानंद जी ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में शिक्षार्थी के न केवल चरित्र निर्माण पर विशेष बल दिया है बल्कि उसके जीवन के समग्र विकास को केंद्र में रखते हुए एक विशद पाठ्यक्रम की रुपरेखा प्रस्तुत की है जिससे यह स्पष्ट करता है कि स्वामी दयानंद का उद्देश्य शिक्षा के माध्यम से शिक्षार्थी को मनुष्य की पूर्णता का साक्षात्कार कराना है। शिक्षार्थी के व्यक्तित्व के समग्र विकास को ध्यान रखते हुए प्रस्तुत विस्तृत पाठ्यक्रम कठोर अनुशासन और संयमित जीवन-शैली की अपेक्षा करता है और वर्तमान शिक्षा प्रणाली के दोषों के निराकरण का मार्गदर्शन करने में समर्थ प्रतीत होता है।

मातृभाषा तथा संस्कृत को शिक्षा का माध्यम बनाने पर बल

प्राचीन भारतीय परंपरा की अनुपालना में स्वामी दयानंद ने मातृभाषा और संस्कृत भाषा में शिक्षा का पुरजोर समर्थन किया। भारत के पास वैदिक साहित्य के रूप में ज्ञान का विशाल स्त्रोत विद्यमान है इसीलिए उन्होंने विशेषकर उच्च शिक्षा में संस्कृत को शिक्षा ग्रहण करने का माध्यम बनाने का विचार प्रस्तुत किया। उनका स्पष्ट मत था कि भारत के पास प्राचीन ज्ञान अकी इतनी विशाल धरोहर है कि हमें विकास करने के लिए एनी किसी बही स्त्रोत की आवश्यकता नहीं है। इतना ही नहीं उन्होंने संस्कृत पाठ्यक्रम और शिक्षण विधियों के बारे में भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया है।

तर्कवाद को प्रोत्साहन

स्वामी दयानंद ने समाज में विद्यमान सभी अंधविश्वासों और अवैज्ञानिक मतों के शोधन का प्रयास किया। जहां एक ओर वेदों के प्रति उनका पूर्ण सम्मान था और उनकी दिव्यता को स्वामी जी स्वीकारते थे वहीं दूसरी ओर उन्होंने मूर्ति-पूजा, जाति-भेद आदि को तर्कसंगत न मानते हुए परिष्कार का आह्वान किया।

स्वामी दयानंद का शैक्षिक दर्शन उनकी वैदिक दर्शन की व्याख्या की प्रतिध्वनि है। उस समय की सबसे बड़ी आवश्यकता थी कि हिंदू मूल्यों, समाज, धर्म और दर्शन को कैसे मुस्लिमों और ईसाई संस्कृतियों के प्रभाव से से बचाया जाए। शिक्षा पर उनके विचारों का समकालीन शैक्षिक दर्शन के लिए बड़ा महत्व है। शिक्षा के दर्शन और व्यवहार में स्वामी दयानंद का योगदान उल्लेखनीय है।

वे प्रख्यात लेखक, वेदों के विद्वान, संन्यासी, योगी, आध्यात्मिक नेता, धार्मिक सुधारक, भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थानवादी पुरोधा, राष्ट्रभक्त, दार्शनिक-शिक्षक, समाज सुधारक, क्रांतिकारी विचारक, शिक्षाविद्, भारत के शैक्षिक पुनर्जागरण की आधारशिला, कर्म योगी थे। स्वामी दयानंद सरस्वती उन महान संतों में अग्रणी हैं जिन्होंने देश में प्रचलित अंधविश्वास, रूढ़िवादिता, विभिन्न प्रकार के आडंबरों व सभी अमानवीय आचरणों का विरोध किया । हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता देने तथा हिंदू धर्म के उत्थान व इसके स्वाभिमान को जगाने हेतु स्वामी जी के महत्वपूर्ण योगदान के लिए भारतीय जनमानस सदैव उनका ऋणी रहेगा।

(लेखक चौधरी बंसीलाल विश्वविद्यालय भिवानी, हरियाणा में प्रोफेसर है और हिंदी विभाग के अध्यक्ष है।)

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